गणतंत्र और न्याय के दोहरे मापदंड
गणतंत्र का मजबूत स्तम्भ है न्याय तंत्र ,हम भारत के नागरिक इसका सम्मान
करते हैं। हमारा भरोसा इस स्तम्भ पर टिका हुआ है ,मगर प्रश्न यह है कि क्या
सर्व साधारण को सहज उपलब्ध है ?क्या कारण है कि न्याय भी खास और आम
लोगों में फर्क कर देता है ?क्यों दोहरे मापदंड देखने को मिलते है ?
क्यों पद पर बैठा जनसेवक संविधान को चुनौती दे देता है और न्याय उसके
सामने घुटने टेक देता है ?आम भारतीय जब कुछ भूल कर बैठता है तो न्याय का
यह चक्र सुदर्शन कि तरह उस पर मंडराने लगता है और उसे यथोचित दंड देकर
ही रुकता है और खास भारतीय जब जानबूझ कर उसको ढेंगा दिखाता है तो यह
चक्र घूमना बंद कर देता है या दिखावे के लिए उसके इर्द-गिर्द मंडराता रहता है
मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता।
जब आम भारतीय कर्ज समय पर नहीं चूका पाया तो कानून बड़ी जल्दी
से उसके गिरेबान को झकड़ लेता है और बड़े लोग मोटी धन राशि डकार जाते हैं
तब न्याय पकड़ छोड़ देता है।
न्याय की किसी छोटी सी धारा का उल्लंघन आम आदमी को तुरंत हवालात
में भेज देता है मगर जनसेवक धारा पर धारा तोड़ता है तब न्याय पंगु बन जाता है।
न्याय जब आम नारी के साथ हादसा होता है तो उससे अभद्र सवाल पूछ उसे
लज्जित कर देता है पर जनसेवक की लड़की के हादसे पर देशद्रोहियों को भी
छोड़ देता है।
न्याय जब गरीब के साथ होता है तो उसे सालों तक तारीख पर तारीख देता
है और जब रसूखदार के साथ होता है तो पवन वेग से दौड़ता है।
क्या कारण है कि न्याय छोटे व्यापारी की भूल को उसका अपराध मानता है
और बड़े आदमी के घोटालों पर सफेद चददर लगा देता है।
न्याय व्यवस्था के दोहरे मापदण्ड क्या हमारे गणतन्त्र को मजबूत कर पाये
हैं ? आम आदमी के लिए कानून हाथ में लेना जुर्म है मगर देश के मंत्री या मुख्य
मंत्री उस कानून की छड़े चौक अवहेलना करता है तो भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता।
ऐसी कौनसी बिमारी लग गई है न्याय तंत्र को कि कभी तो उसे दूर का तिनका
भी नजर आने लगता है और कभी आँख में पड़ा तिनका भी सुख की अनुभूति
कराता है ?
गणतंत्र का मजबूत स्तम्भ है न्याय तंत्र ,हम भारत के नागरिक इसका सम्मान
करते हैं। हमारा भरोसा इस स्तम्भ पर टिका हुआ है ,मगर प्रश्न यह है कि क्या
सर्व साधारण को सहज उपलब्ध है ?क्या कारण है कि न्याय भी खास और आम
लोगों में फर्क कर देता है ?क्यों दोहरे मापदंड देखने को मिलते है ?
क्यों पद पर बैठा जनसेवक संविधान को चुनौती दे देता है और न्याय उसके
सामने घुटने टेक देता है ?आम भारतीय जब कुछ भूल कर बैठता है तो न्याय का
यह चक्र सुदर्शन कि तरह उस पर मंडराने लगता है और उसे यथोचित दंड देकर
ही रुकता है और खास भारतीय जब जानबूझ कर उसको ढेंगा दिखाता है तो यह
चक्र घूमना बंद कर देता है या दिखावे के लिए उसके इर्द-गिर्द मंडराता रहता है
मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता।
जब आम भारतीय कर्ज समय पर नहीं चूका पाया तो कानून बड़ी जल्दी
से उसके गिरेबान को झकड़ लेता है और बड़े लोग मोटी धन राशि डकार जाते हैं
तब न्याय पकड़ छोड़ देता है।
न्याय की किसी छोटी सी धारा का उल्लंघन आम आदमी को तुरंत हवालात
में भेज देता है मगर जनसेवक धारा पर धारा तोड़ता है तब न्याय पंगु बन जाता है।
न्याय जब आम नारी के साथ हादसा होता है तो उससे अभद्र सवाल पूछ उसे
लज्जित कर देता है पर जनसेवक की लड़की के हादसे पर देशद्रोहियों को भी
छोड़ देता है।
न्याय जब गरीब के साथ होता है तो उसे सालों तक तारीख पर तारीख देता
है और जब रसूखदार के साथ होता है तो पवन वेग से दौड़ता है।
क्या कारण है कि न्याय छोटे व्यापारी की भूल को उसका अपराध मानता है
और बड़े आदमी के घोटालों पर सफेद चददर लगा देता है।
न्याय व्यवस्था के दोहरे मापदण्ड क्या हमारे गणतन्त्र को मजबूत कर पाये
हैं ? आम आदमी के लिए कानून हाथ में लेना जुर्म है मगर देश के मंत्री या मुख्य
मंत्री उस कानून की छड़े चौक अवहेलना करता है तो भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता।
ऐसी कौनसी बिमारी लग गई है न्याय तंत्र को कि कभी तो उसे दूर का तिनका
भी नजर आने लगता है और कभी आँख में पड़ा तिनका भी सुख की अनुभूति
कराता है ?
No comments:
Post a Comment