-विवेक दत्त मथुरिया-
सियाचिन ग्लेशियर पर अपना फर्ज अदा करते हुए देश का प्रहरी लांस नायक हनुमंथप्पा प्रकृति की अति से संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। परंपरागत और सोशल मीडिया पर हनुमंथप्पा के समर्पण और जज्बे को पूरा देश नमन कर रहा है। बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि बात देश की आजादी के संघर्ष की हो या आजाद हिन्दुस्तान की सीमाओं की हिफाजत की, गांव की अभाव भरी जिन्दगी से संघर्ष करने वाले किसान-मजदूर का ही बेटा अपने प्राणों न्योछावर करता चला आ रहा है। देश निर्माण से लेकर हिफाजत में सर्वस्व न्योछावर करने वाला किसान- मजदूर आज हनुमंथप्पा की तरह अस्तित्व की जंग व्यवस्था से लड़ रहा है।
एक ओर अन्नदाता के रूप में देश का पेट भरे, दूसरी ओर देश की हिफाजत के लिए बेटा दे। क्या देश, समाज और व्यवस्था उनकी इस देश भक्ति का सही मायनों में मोल समझ पायी है? पूंजीवादी और अमरिका परस्त साम्राज्यवादी नीतियों के पोषण हेतु किसान और मजदूर को निर्ममता के साथ तबाह किया जा रहा है। महाराष्ट्र से लेकर बुंदेलखंड तक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। दूसरी ओर केंद्र की मोदी सरकार पूंजीपतियों के कर्ज माफ कर कॉरपोरेट घरानों को 'अच्छे दिन' का तोहफा देने में व्यस्त है। यह बात शासकों को भलि-भांति समझ लेनी चाहिए किसान-मजदूर बचेगा तो ही देश बचेगा। क्योंकि बुनियाद के हिलने या कमजोर होने का सीधा असर इमारत पर पड़ता है। देश के विकास और अर्थ-व्यवस्था की बुनियाद आज भी कृषि है। पर यह बुनियाद आज पूँजीपतियों के हिमायती शासकों की जन विरोधी और किसान विरोधी नीतियों के कारण तेजी से कमजोर हो रही है। सरकारी नीतियों से पैदा हो रही इस विषमता से पैदा हो रहे दुष्परिणामों की अनदेखी कर बड़ी मूर्खता कर रही हैं।
आज अमेरिकी साम्राज्यवादी दबाव में खेती को हतोत्साहित किया जा रहा ताकि आने वाले समय में देशी-विदेशी पूंजीपतियों को किसान बना कर मनमाना मुनाफा कमाये जाने की कोशिश की जा रही है। मोदी सरकार द्वारा उसी की भूमिका तैयार की जा रही है। सरकार में आने के साथ प्रधानमंत्री ने शीर्ष प्राथमिकता के साथ भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने का राजहठ किया। लेकिन किसान-मजदूरों के संगठित संघर्ष ने सरकार को कदम वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। देश की बदली हुई जन विरोधी राजनीति के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के आधार पर ही देशभक्ति की समीक्षा और आलोचना करनी चाहिए। आज शोषण से जुड़े बुनियादी सवालों को जात-धर्म के नाम हाशिए पर धकेलने की सियासी साजिश लगातार जारी है। कथित विकास के झासे से बाहर निकल कर जमीनी सच को स्वीकारना होगा। वोटों के लिए सियासी राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर कब तक जय जवान के पालन हार किसान की जय कब होगी? यह सवाल आखिर कब तक अनुत्तरित रहेगा? बुनियाद कर मजबूत और भव्य इमारत खड़ी नहीं की जा सकती। हनुमंथप्पा तो अपना फर्ज अपनी जान देकर निभाह रहे हैं। सरकार और समाज इनकी असली जय के लिए कब फर्ज कब निभाएगी?
लेखक विवेक दत्त मथुरिया मथुरा के प्रतिभाशाली पत्रकार हैं.
12.2.16
किसान, मजदूर और हनुमंथप्पा
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