-अमित राजपूत-
यूं तो आज के कौशलवादी मानसिकता के दौर में लगभग प्रत्येक क्षेत्र के कॅरियर अथवा कामकाज में ज़ूमिंग अर्थात् दृष्टि-विशेष देखने को मिल रही है। चाहे वो बाल काटने की कला हो, गीत गाने की कला हो, अभिनय हो, कपड़ों को डिज़ाईन करना हो, घर का नक्शा कैसा होगा ये तय करना हो या फ़िर पार्टियों में म्यूज़िक प्लेयर कौन और किस पैमाने पर प्ले करेगा इसका निर्धारण करना हो। अब हर क्षेत्र में विशेषज्ञ की मांग है और इन साब कामों के लिए लोग इन विशेषज्ञों को भारी से भारी रक़म भी चुकाते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ कहीं न कहीं इन सभी कार्यों के बरक्स संप्रेषण, पत्र-व्यवहार या संवाद जैसे गम्भीर और सावधानी पूर्वक किये जाने वाले काम की बात करें, जिसके लिए सरकार ने विशेष विश्वविद्यालय खोले हैं, भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक स्वायत्तशाषी भारतीय संस्थान भी स्थापित किया है जिसे पत्रकारिता के मक्का आदि की संज्ञा भी दे दी गई है और यह अपने आप में पत्रकारिता के लिए एशिया का एक अति महत्वपूर्ण संस्थान भी है।
इसके अलावा तमाम निजी संस्थान भी कम समय में शीघ्र व अधिक उत्पादन की कला सहित समावेशी ज्ञान और कौशल देकर पत्रकारो को तैयार करता है, फिरी इनकी पूछ नौकरशाही मानसिकता की बदौलत कूड़े के भाव कर दी गई है। एक पत्रकार के भीतर छिपी ढेरों संभावनाओं को दर किनार करते हुए उसके तमाम अधिकारों पर लालफीताशाही का जटिल मकड़जान फैलाकर अतिक्रमण किया गया है। इससे न सिर्फ़ पत्रकारों के अधिकारों का हनन हुआ है बल्कि देश का विकास रुका है, समाज की गतिशीलता रुकी है और एक सकारात्मक दृष्टिकोंण को बनाने के प्रयासों पर प्रहार भी किया गया है। शायद इसी लिहाज से इस बार के सातवें वेतन आयोग में वेतन वृद्धि के अलावा नौकरशाही में सुधार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए गए हैं। तमाम वरिष्ठ पदों पर विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति की सिफारिश भी की गई है। क्योंकि अभी अधिकतर पदों पर आईएएस अफ़सरों का ही कब्ज़ा है, भले ही वहां विशेषज्ञों की ज़रूरत हो। यदि आयोग की अनुशंसाओं को अमली जामा पहनाया गया तो नौकरशाही में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकता है।
बात चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा निजी क्षेत्र की आज एक पत्रकार का काम किसी संवेदनशील दिहाड़ी मजदूर से कम नहीं है, जो अपने तमाम अनुभवों और कौशल के दम पर इस डर के साथ कि हर एक छोटी ग़लती पर उसकी नौकरी कभी भी छीन ली जा सकती है, वह पूरी लगन के साथ काम करता रहता है और यदि पूरे महीने का औसत निकाल कर बात करें तो मात्र 500 से 800 रुपये लेकर वह पराए शहर में पड़ा अपनी दो जून की रोटी के इतज़ाम का ख़्याल करता अपने झूठे आशियाने की ओर हर रोज़ दफ़्तर का बोझ लिए वापस लौटता है। ये सब इसलिए है क्योंकि उसके अधिकारों पर, उसके लिए निर्धारिक की गई जगहों पर और उसकी प्रगति के रास्तों पर कुछ लोग सर्प पिण्डली मार कर बैठे हैं।
यद्यपि कोई अन्य कथित विद्वानों की तरह भले ही किसी उच्च स्तरीय संस्थान से गुणवत्तापरक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल लेकर निकला हो, लेकिन पत्रकारों की जात में उसका भी हाल दिहाड़ी सा ही है। वास्तव में ये हाल एक अदने से पत्रकार से लेकर एक आईआईएस अधिकारी तक का है जो कभी पत्रकारिता का विद्यार्थी रहा हो। यूँ तो आईआईएस के हक़ों में भी इन सफ़ेद कॉलर वालों के द्वारा निब और स्याही को क्रमशः कुण्ठित और खुरदुरी बनाने का काम किया गया है जिससे उसका रंग चढ़ाए न चढ़े और लिपि में धुंधली काया सी पड़ जाए, जहाँ विशेषज्ञों को मात्र शगुन के तौर पर रखा गया है और पूरी बारात किन्हीं औरों से ही सजायी गयी है। तो फ़िर हमें इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं। अभी हाल ही में पीआईबी की घटना को ही ले लीजिए। दिसम्बर के शुरुआती दिनों में बाढ़ से बेहाल चेन्नई का हवाई जायजा लेने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु पहँचे थे। पीआईबी में बैठे पेशेवर अपरिपक्व गैर विशेषज्ञ और कथिक अधिकारी जनों की भारी भूल का ही परिणाम थी वो फोटोशॉप वाली घटना, जिसके ऊपर उन दिनों खूब हो-हल्ला हुआ था। चिन्ता इस बात की है कि जब सरकार के पास पेशेवर कौशल रखने वाले, विशेषज्ञ और इस विधा में ख़ासा अनुभव रखने वाले कम्युनिकेशन के जानकार लोग हैं तो फिर ऐसी लीपापोती क्यूं की जा रही है। क्या यह मान लिया जाए कि मौजूदा सरकार भी ब्यूरोक्रेसी के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है या फिर से सच में कौशल का अमल करती है, अन्यथा इसके कौशल-विकास के पहल पर भी प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा हो रहा है।
यद्यपि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इसके लिए भारत सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय ज़िम्मेदार नहीं है। सच त यह है कि उसे सब पता रहता है। क्योंकि यदि हम कुछ साल पहले गुड़गांव में घटी हॉण्डा वाली घटना का विश्लेषण करें जिसमें कम्पनी के लेबर यूनियन के मजदूरों और प्रबन्धन के बीच मनमुटाव हो गया था। सरकार की ओर से मध्यस्थता स्वरूप संवाद न स्थापित करने से वो मजदूर और भी ज़्यादा आक्रामक होते-होते हिंसक भी हो गए थे और वह इस क़दर कि इसका परिणाम यह हुआ कि प्रबन्धन की ओर से उस हिंसक झड़प में एक प्रबन्धन अधिकारी को जान से हाथ धोना पड़ गया था। इस पेर मामले में पुलिस को लाठी चार्ज भी करनी पड़ी थी, जिसकी बाहर मीडिया में खूब आलोचना भी हुयी थी, जबकि वास्तव में यह एक संवाद हीनता के कारण घटी घटना थी। इस पूरे मामले को भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने गम्भीरता पूर्वक लिया और इसके बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इसकी पूरी जनकारी देते हुए सलाह दी कि पब्लिक क्षेत्र में कुशल संवाद और सही सूचनाएं एक निश्चित समय पर न होने के कारण इस तरह की हिंसक घटना घटी। इसलिए क्यों न अति शीघ्र ऐसे तमाम सार्वजनिक संस्थानों में सरकार पीआरओ जैसे पदों का निश्चय करे और इन पदों पर विशेषज्ञों को नियुक्त करने के प्रयासों में तेज़ी लायी जाए। हांलाकि, इस घटना के सालों बीत जाने के बावजूद भी सम्बन्धित मंत्रालय की ओर से इस दिशा में अब तक कोई पहल नहीं की गई है और न ही कोई अन्य ज़रूरी क़दम भी उठाए गए हैं। ऐसे में इसका सटीक अर्थ यही निकाला जा सकता है कि सरकार का यह तंत्र ऐसी हिंसक या इससे भी विनाशकारी घटनाओं के घटने के आमंत्रण स्वरूप इन्तज़ार में अब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा है, अन्यथा इससे सम्बन्धित कार्यों की पहल न करने का इसका कोई भी कारण समझ से परे है।
ये हाल सिर्फ़ निजी क्षेत्रों का ही नहीं है। सरकारी संस्थाओं की जानकारी तो हैरान ही कर देने वाली है। स्वयं भारत के लोक सेवा प्रसारक कहे जाने वाले आकाशवाणी और दूरदर्शन में ही अकेले कार्यक्रम निष्पादकों (पेक्सों) के आधे से भी अधिक पद रिक्त पड़े हैं जबकि हर साल पर्याप्त मात्रा में कुशल पत्रकार सम्बन्धित मंत्रालय को मिलते हैं। एक आरटीआई संख्या ‘ए-11070/78/2015-कर्म-3/3343’ में आरटीआई एक्टीविस्ट नरेन्द्र कुमार तिवारी को मिले जवाब से साफ होता है कि देश भर में दूरदर्शन के सभी केन्द्रों में कुल 225 प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) हैं और 229 प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) के पद रिक्त हैं। यानी आवश्यक पैक्सों में आधे से अधिक कार्यक्रम निष्पादकों की भर्ती ही नहीं की गई है और जो कार्यरत हैं भी तो उनमें भी सम्भवतः कईयों के कार्यकाल समाप्त हो गए हैं, लेकिन फिर भी वे सब अभी तक इस संस्थानों में घइस रहे हैं। इसके अलावा भी जो अन्य शेष कार्यरत पैक्स हैं उनमें से यह देखना दिलचस्प होगा कि कितनों के पास पत्रकारिता की डिग्री, डिप्लोमा और अनुभव है। वास्तव में जब देश का पत्रकार अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहा हो, सन्घर्ष कर रहा हो और उसे एक दिहाड़ी मजदूर के दाम पर काम करने की मजबूरी हो तो ऐसी स्थिति में इन पदों की भर्ती क्यूं नहीं की जा रही है। इस बात का जवाब मंत्रालय के पास नहीं है और यदि जवाब है भी तो यह सिद्ध मानिए कि वह अकर्मण्य है।
इस आरटीआई में ही कार्यक्रम निष्पादकों के कार्यों का विवरण भी मांगा गया है, जिसके जवाब कुछ इस प्रकार हैं कि प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) का काम कार्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर और मार्गदर्शी सिद्धान्तों पर दर्शकों, दूरदर्शन के अन्य केन्द्रों और महानिदेशालय से पत्राचार करना हैं, तथा यदि अपेक्षा हो तो प्रसारण की विशिष्ट प्रकृति की बाबत पम्फलेट और पुस्तिकाएं निकलवाना होता है। इसी आरटीआई में प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव (पैक्स) के और कामों की रूपरेखा में कहा गया है कि दूरदर्शन केन्द्र में प्रस्तुतकर्ता/कार्यक्रम निष्पादक द्वारा किए जाने वाले कृत्यों का दूसरा महत्वपूर्ण प्रवर्ग जनसम्पर्क का क्षेत्र है। यह ऐसे कलाकारों और वक्ताओं से व्यवहार करने का है जो बुक किए जाते हैं। ऐसे सार्वजनिक क्रियाकलापों और समारोहों में उपस्थित होना जो, साहित्य, कला, उद्योग, समाज कल्याण, राष्ट्रीय विकास आदि दोनो में होते हैं। ऐसे क्रियाकलाप जिनमें कार्यक्रम निष्पादक/प्रस्तुतकर्ता को निकट सम्पर्क में रहना चाहिए ताकि वो किसी न किसी रूप में कार्यक्रम में प्रतिबिम्बित हो सकें। उस कार्यक्रमों के बारे में लोगों की पत्रों में व्यक्त, बातचीत में व्यक्त या प्रेस के माध्यम से व्यक्त प्रतिक्रिया की भी जानकारी रखनी चाहिए।
वास्तव में उक्त समस्त कार्यों के लिए विशेषज्ञ के तौर पर मास कम्युनिकेशन के विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। इसलिए अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय को यह स्वयं देख लेना चाहिए कि कार्यरत कार्यक्रम निष्पादकों में कितनों ने पत्रकारिता की शिक्षा और उसका प्रशिक्षण लिया है, जोकि एक कम्युनिकेशन के विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता है और जो उनको अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ बनाता है।
ऐसे ही रेलवे के क्षेत्र में भी तमाम ऐसे पद हैं जो एक कम्युनिकेशन के विद्यार्थी की ही मांग पर बने हैं और उन्हे इनकी ज़रूरत भी है, लेकिन आज भी वहां गैर विशेषज्ञ लोग ही कुर्सी गरम करने में लगे हुए हैं। रेलवे में एक एडीजी-पीआर का पद होता है, जो पूरे देश के रेलवे नेटवर्क को कम्युनिकेट करता है, जो एक आईआईएस होता है और इस पद के लिए एक कम्युनिकेशन के विशेषज्ञ की ज़रूरत होती है, जबकि आज इसके लिए एक गणित विषय से एमएससी-एमफिल की अर्हता रखने वाले व्यक्ति को ऐसे संवेदनशील पद पर नियुक्त कर रखा गया है। वास्तव में यहां किसी तर्क-शक्ति की नहीं बल्कि संवाद और कुशल पत्राचार के कौशल की आवश्यकता है।
ऐसे ढेरों मामले अकेले रेलवे में ही सरकार की नाक के नीचे ढंके की चोट पर यूं ही पड़े हैं और इनके कान पर है कि जूँ तक नहीं रेंगती। ऐसे ही मामले गृह मंत्रालय, पुलिस विभाग, विश्वविद्यालय और तमाम स्थानीय सार्वजनिक उपक्रमों से जुड़े हुए हैं जहाँ पर एक स्पोक पर्सन और सही व आवश्यक सूचनाएं देने वाले या संवाद स्थापित करने वाले अधिकारी और पब्लिक से डीलिंग करने सम्बन्धी तमाम कामकाज के लिए एक विशेषज्ञ की अत्यन्त आवश्यकता है, और इस आवश्यकता को एक प्रशिक्षित पत्रकार ही पूरा कर पाने में सक्षम है। लेकिन इतना ही नहीं खजूर नज़दीक मिले तो दूर क्या जाना। एक कथित आईआईएस अधिकारी मात्र एमए की शिक्षा लेकर भारत के जाने-माने लोक सेवा प्रसारक के बड़े केन्द्र का निर्देशन कर रहे हैं। इनकी गुस्ताख़ी यहीं पर आकर नहीं रुक जाती है। आजकल तो ये उस आईआईएमसी को डायरेक्शन देने के लिए सूची में अग्रणी चल रहे हैं और न सिर्फ़ आगे चल रहे हैं बल्कि ऊपर के आकाओं को अपने विश्वास में लेने की फ़िराक में अपनी एड़ी-चोटी का बल भी लगा रहे, जिन्होने आईआईएस की ट्रेनिग के दैरान सन् 2003 में आईआईएमसी का सिर्फ़ तीन दिन (25-08-2003 से 27-08-2003 तक) ही मुंह देखा था। अब भला ऐसे में कोई भी पत्रकारिता का विद्यार्थी या उससे जुड़ा कोई भी शख़्स इस कैसे बर्दास्त कर सकता है। यह त वैसे ही है जैसे अपना चूल्हा अपनी आँखों के सामने फुंकते देखना।
इसके अलावा कुछ बातें और जो गम्भीर हैं और सोचने वाली भी हैं, कि जब एक मेडिकल स्टोर की दुकान खोलने के लिए फॉर्मासिस्ट की डिग्री का होना अनिवार्य है तो फिर एक पीआर की एजेन्सी चलाने वाले के लिए पत्रकारिता की डिग्री या डिप्लोमा का होना अनिवार्य क्यूं नहीं होता? जबकि एक कुशल पत्रकार पहले पत्रकारिता की शिक्षा लेता है, आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। इसके बाद वह इण्डस्ट्री के भीतर जाकर पेशेवर प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) प्राप्त करने के बाद वही पत्रकार कहलाता है। बज़ाहिर, इंटर्नशिप के दौरान हर काम के लिए एक ख़ास तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है। आख़िरकार पत्रकारों के साथ ये छलावा कब तक। ऐसे में जो लोग भी पत्रकारों के हितों को चकनाचूर करते हुए देश को धोखा दे रहे हैं, शायद उन्हें इस बात का भी भान नहीं है कि हुनरबंद बनने के लिए काम करना ज़रूरी है, न कि चंद किताबों की घुट्टी पीकर एक दिन-विशेष को इम्तिहान पास करके अपनी कॉलर टाईट कर लेना। वास्तव में इन सबको याद रखना होगा कि एक पत्रकार हर दिन इम्तिहान देता है, ...हर दिन।
3.2.16
पत्रकार हर दिन इम्तिहान देता है... हर दिन
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