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12.2.16

मैं इस ख़ुले पत्र के जरिए हाफ़िज सईद, भारत में उसके स्लीपर सेल्स और जेएनयू में हंगामा काट रहे युवक / युवतियों को चुनौती देता हूं

अमित राजपूत

हाल ही में दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुई घटना को देखते हुए मेरा अनुमान है कि इस राष्ट्रविरोधी घटना के तार निश्चित रूप से हाफ़िज सईद से जुड़े हुए हैं। इससे पहले, जो छात्र इस घटना के सूत्रधार हैं उसके मास्टरमाइण्ड और अगुवा जिन्होने कुछ अति महत्वाकांक्षी और निरा स्वार्थी कथित विद्यार्थियों का जोकि युवा हैं, ब्रेनवॉश किया है उनके सम्पर्क भारत में छिपे स्लीपर सेल्स से हैं जो यहां बैठकर बड़ी आसानी से जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थाओं में पाकिस्तान के समर्थन में अपने प्रोजेक्ट ड्रॉ कर पाते हैं, और इसकी भी कड़ी अमेरिका सहित दुनिया के दूसरे कोनों में कश्मीर मुद्दे पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल संस्थाओं और लोगों से जुड़ी हो सकती है। कुल मिलाकर यह निश्चित है कि पूरा मामला वैश्विक पटल पर कश्मीर को लेकर भारत की छवि ख़राब करने की है जो ये दर्शाए कि पाकिस्तान तो मासूम है, असली ग़ुनहगार तो भारत है, तभी तो वहां के बड़े शैक्षिक संस्थानों से ही भारत विरोधी आवाज़े उठ रही हैं।


अब बात करते हैं निज जेएनयू की जहां ये घटना घटी। इस घटना ने ये तो साफ कर दिया है कि यहां दक्षिणी विचारधारा के लोग कितने मज़बूर और कमज़ोर हैं। जो कथित रूप से दक्षिणी विचारधारा से सम्बन्ध रखने वाले लोग भी है वो या तो असहाय हैं, शक्तिविहीन हैं या फिर वो मात्र राजनैतिक चमचागीरी के प्रयास में ही प्रयत्नशील रहते हैं, अन्यथा इस तरह की घटनाओं का मौका-ए-वारदात पर ही कड़ा विरोध होता है। लेकिन मैं इस बात से भी इन्कार नहीं करता कि जेएनयू में वामपंथियों का दबदबा है, जिनके चोले के भीतर ये राष्ट्रविरोधी तत्व फलते-फूलते हैं। ऐसे में वाम संगठनों को भी सचेत रहने की आवश्यकता है। जेएनयू में तो एक आम छात्र की बातें, उसके विचार और राय स्पष्ट ही नहीं हो पाते, अन्यथा इस घटना के तुरन्त बाद का नज़ारा ही कुछ और होता।

मैं अपने इस ख़ुले पत्र के सहारे हाफ़िज सईद, भारत में उसके स्लीपर सेल्स और जेएनयू में हंगामा काट रहे कुछ छुद्र खल युवक/युवतियों को ये चुनौती देता हूं कि अपनी यही हरक़तें आकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दिखाकर देख लो, प्रतिक्रिया का असली रस मिल जाएगा। फिर न तो विश्वविद्यालय इस घटना से जुड़ पाएगा और न ही उसे ज़रूरत ही पड़ेगी, न तो प्रशासन तक ये पहुंच पाएगा और भारतीय मीडिया तो इससे अस्पृश्य ही बनी रहेगी। यदि एक छात्र की हैसियत से तुमने आज़ादी मांगी तो एक छात्र के नाते ही वहां के आम विद्यार्थी तुम्हे आज़ादी भी दे देंगे क्यों कि वहां के हर छात्र के ख़ून में कुछ भी महसूस करने की अपार क्षमता है और वो उसकी प्रतिक्रिया भी देना जानते हैं। सब्र करो कि जेएनयू जैसी भौगोलिक स्थिति वहां नहीं है वरना हॉलैण्ड हाल, हिन्दू, केपीयूसी और ताराचंद जैसे छात्रावासों के छापामार युद्धों से तुम सब स्वतः ही प्राणों की दुहाई मांगोगे।

यद्यपि वामपंथ को संस्थागत रूप देने वाला इलाहाबाद किसी भी विचारधारा को अपने सिर पर चढ़कर मूतने की इजाज़त नहीं देता, तथापि ऐसी ज़ुर्रतों की जोहमत उठाने वाले लोग अपनी हरक़तें कर भी दें तो उसका परिणाम जेएनयू जैसा तो कतई ही नहीं होगा। हफ़्ते में तीन दफ़ा मांस, बीच में अण्डों की भरमार और इफरात भात का आहार लेकर, गांजे और कोकीन के मद में डूबे पिशाची हवस की भूख को मिटाने के बाद भी कुछ चंद दिशाहीन लोगों की जाने कौन सी ग़ुलामी है जिसके लिए उन्हें भारत के टुकड़े करके व पाकिस्तान की ज़िन्दाबादी और मुर्दाबाद भारत के अरमानों के साथ आज़ादी चाहिए, शायद जिसके लिए ये रात दिन ‘ले के रहेंगे आज़ादी’ के राग अलापा करते हैं। यदि जेएनयू के छात्र चाहें जो फिलहाल चे’ और भगत सिंह को टी-शर्ट के सहारे अपने सीने से चिपकाए घूमते रहते हैं इन कुछ कथित परतंत्र लोगों को इनकी आज़ादी दे सकते हैं। बाक़ी आप लोगों की मर्जी विश्वविद्यालय का मुंह ताकते रहो, दिल्ली सरकार की ओर निहारो या केन्द्र सरकार की आशा में उम्र गुजारो। याद रखो साथियों ‘खग समझे खग ही की भाषा’ यानी एक युवा ही इन युवाओं की बात समझ सकते हैं और अपने स्तर से ही इनको इन्ही की भाषा में भरपूर आज़ादी का स्वाद चखा सकते हैं आप, जैसा कि अन्य विश्वविद्यालयों में होता है। और हाँ, मीडिया की माया से भी दूर रहें तो बेहतर होगा, इससे अपने काम पर फोकस रहता है। कुछ करो यारो, सब्र बहुत कर लिया तुमने। इनकी आज़ादी का ख़्याल करो, ये जो बोल गए उसे समझो और उत्तर दो...      

Amit Rajpoot
amitrajpoot.ar@gmail.com

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