अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भले ही यह दावा करते हों कि उन्होंने अपनी पार्टी के घोषणा पत्र और चुनाव प्रचार के दौरान जनता से जो वायदे किये थे, वह सभी पूरे कर दिये हैं, लेकिन अखिलेश यादव के इस दावे को ‘पीने-पिलाने’ के शौकीन मानने को तैयार नहीं है। वजह प्रदेश में शाम की दवा की कीमत कम नहीं हुई है, जबकि अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार के दौरान वायदा किया था कि अगर उनकी सरकार बनेगी तो ‘शाम की दवा’ (शराब) सस्ती हो जायेगी। ‘दवा’ तो सस्ती नहीं हुई उलटे अखिलेश सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष 2016-2017 के लिये आबकारी से राजस्व वसूली का लक्ष्य पिछले वर्ष के मुकाबले दस प्रतिशत जरूर बढ़ा दिया। यानी वित्तीय वर्ष 2015-2016 में राजस्व वसूली का जो लक्ष्य 17 हजार पॉच सौ करोड़ था, उसे पूरा होते देख आगामी वित्तीय वर्ष के लिये सरकार ने इसे बढ़ाकर 19 हजार 250 करोड़ कर दिया।
भले ही शराब की दुकान के सामने से गुजरते समय कुछ लोग अपनी नाक पर रूमाल रख लेते हों और बच्चन साहब को लगता होगा, ’.........प्रेम कराती मधुशाला। ’ लेकिन सरकारी सच्चाई तो यही है कि मधुशालाएं सरकारों को मालामाल कराती हैं। दारू से आमदानी बढ़ाना किसी भी सरकार के लिये बहुत आसान होता है, शराब को सामाजिक बुराई समझा जाता है। इस लिये जब दारू की कीमत बढ़ाई जाती है तो कहीं कोई विरोध नहीं होता। सरकार को कभी यह चिंता नहीं रहती है कि शराब का समाज पर कितना बुरा प्रभाव पढ़ रहा है, उसे तो हर समय अपना राजस्व बढ़ाने की चिंता रहती है। पियक्कड़ों की परेशानी तो उसे कभी दिखाई ही नहीं देती है। एक तो वैसे ही यूपी में अन्य राज्यों के मुकाबले काफी मंहगी शराब मिल रही है दूसरे प्रदेश में शराब के शौकीनों से तय रेट से प्रति पौवा दो-तीन रूपये अधिक वसूले जा रहे हैं। इस अधिक वसूली को रंगीन पानी के सौदागर कोड भाषा में ‘रेट बेसी’ कहते है। अगर कोई ग्राहक पूछता है तो उसे समझा दिया जाता है कि रेट बेसी का पैसा ‘सरकार’ के पास सुविधा शुल्क के रूप में जाता है। वैसे रेट बेसी नया नहीं है। बसपा राज में भी रेट बेसी की शिकायतें आती रहती थीं, लेकिन न तो बसपा राज में कोई कार्रवाई की गई थी, न ही अखिलेश राज में कोई कार्रवाई हो रही है।
रेट बेसी का धंधा कई महीनों से पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से फलफूल रहा है। देसी पौवे पर दो से तीन रूपये तक, अध्धे पर तीन-चार तो बोतल पर पॉच-छहः रूपये बढ़ा कर वसूले जा रहे हैं। एक तो अन्य राज्यों के मुकाबले यूपी में महंगी शराब बिकती है, दूसरे रेट बेसी ने पियक्कड़ों की कमर तोड़ दी है। भले ही आबकारी महकमे के बड़े अधिकारी यह मानने को तैयार न हों कि ‘सरकार’ के लिये रेट बेसी के द्वारा धन उगाही हो रही है, लेकिन जिस तरह से आबकारी विभाग ने रेट बेसी से मुंह मोड़ रखा है, वह संदेह पैदा करता है कि ‘दाल में कुछ काला है। ’रेट बेसी के माध्यम से प्रति दिन करोड़ों रूपये की अतिरिक्त कमाई हो रही है। यही वजह है, जेब का भार कम करने करने के चक्कर में पियक्कड़ अन्य राज्यों से तस्करी करके लाई जाने वाली और अवैध तरीके से तैयार की जाने वाली शराब का सेवन करके अपनी सेहत और जान से तो खिलवाड़ कर ही रहे हैं, सरकार के राजस्व को भी इससे नुकसान उठाना पड़ रहा है। अवैध तरीकों से बनने वाली शराब का सेवन करके मरने वालों की लिस्ट भी लगातार लम्बी होती जा रही है।
लखनऊ तथा पड़ोसी जिले उन्नाव में बीते साल के पहले ही महीने में जहरीली शराब कांड में करीब 50 लोगों की मौत हो गई थी, इसके अलावा 15 मरीजों की आंखों की रोशनी भी चली गई है। विषैली मदिरा पीने से बीमार हुए करीब 100 लोगों का लखनऊ तथा उन्नाव के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती कराया गया था। जिला प्रशासन ने मामले की गम्भीरता को देखते हुए इसकी मजिस्ट्रेट से जांच के आदेश दिये तो गृह विभाग के प्रमुख सचिव तथा पुलिस महानिदेशक ने प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को छह बिंदुओं पर आधारित निर्देश भेज कर कहा कि जहरीली शराब से मौतों की घटनाओं में शामिल लोगों पर नजर रखकर जरूरत पड़ने पर उनके खिलाफ कार्रवाई करने, पूर्व की ऐसी घटनाओं में आरोपियों के मुकदमों का जिला जज से सहयोग लेकर जल्द निपटारा कराने तथा जहरीली शराब बनाने में संलिप्त लोगों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की जाये। इस शराब कांड में कुछ अधिकारियों का निलंबन भी हुआ, लेकिन बात इससे आगे नहीं बढ़ पाई थी। यह अकेली घटना नहीं है। लखनऊ समेत पूरे प्रदेश में अवैध शराब का धंधा पुलिस संरक्षण में खूब फलफूल रहा है जो अक्सर ही जानलेवा साबित होता है।
उत्तर प्रदेश आबकारी विभाग ने वर्ष 2015-2016 में देशी शराब की 13, 946, विदेशी मदिरा की 5365, मॉडल शॉप 420, बियर की 4325 दुकानों से देशी/विदेशी शराब बेची। वहीं भांग के भी 2, 425 ठेके थे। वित्तीय वर्ष 2015-2016 एक अप्रैल 2015 से लेकर 31 जनवरी 2016 तक प्रदेशवासी 24 करोड़ 15 लाख लीटर शराब पी गये। प्रदेश में पुरूषों की कुल आबादी 10 करोड़ 46 लाख है। इस हिसाब से प्रति व्यक्ति लगभग ढाई लीटर शराब की खपत हुई। इसी प्रकार विदेशी मदिरा के शौकीन 14 करोड़ 15 लाख बोतल गटक गये। वहीं बियर के शौकीन भी कम नहीं रहे। 34.5 करोड़ बियर की बोतलें बिकी। यह आंकड़े सिर्फ दुकानों के हैं। इस दौरान मॉडल शॉप, कैंटीन, मिलेट्री कैंटीन से जो शराब बिकी उसके आंकड़े इसमें शामिल नहीं है। मिलेट्री कैंटीन से 32 लाख बोतल तो रम की ही बिक गई। यह आंकड़े दस महीनों के है, जबकि दो महीने अभी शेष बाकी हैं। बात दस महीनों में भांग की खपत की कि जाये तो 4 हजार एक सौ दस कुंटल भंाग सरकारी ठेकों से बिकी। आबकारी विभाग सरकार के लिये कामधेनूु जैसा हैे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2010-2011 में जहां शराब बेच कर सरकार ने 06 हजार 77 करोड़ रूपये कमाने का लक्ष्य निधार्रित किया था, वह वित्तीय वर्ष 2016-2017 आते-आते यह आंकड़ा 19 हजार 250 करोड़ तक पहुंच चुका है।
बात जिले-जिले अवैध शराब के धंधे की कि जाये तो कई कारणों से चर्चा में रहने वाला आजमगढ़ आजकल अवैध शराब के कारोबार के कारण भी खूब नाम कमा रहा है। लखनऊ के नजदीकी जिले बाराबंकी में राम सनेही घाट कोतवाली कच्ची शराब के धंधे में अन्य किसी भी इलाके को पीछे छोड़ रखा है। क्षेत्र में कच्ची शराब बनाने का धंधा धीरे-धीरे कुटीर उद्योग बनता जा रहा है। महराजगंज, घुरघुटवा, इब्राहिमाबाद, जेठवनी, मठ, गाजीपुर, अल्पीपुरवा, बडेलानरायनपुर, टेमा, सुखीपुर, धुनौली, आदि गांवों में आबकारी विभाग व पुलिस की मिलीभगत से कच्ची शराब के धंधे बाज बेखौफ हैै। गांव-गांव शराब की भट्टियां धधक रही हैं जो अक्सर गरीब पियक्कड़ो की मौत का कारण भी बनती है। तीर्थनगरी इलाहाबाद में ही अवैध शराब गांव-गांव में बन रही है। यहां के सोरांव नवाबगंज, नैनी, बारा, लालापुर व कौंधियारा में शराब का कारोबार उद्योग की तरह चल रहा है। जिला कौशाम्बी के पूरामुफ्ती, चरवा, मंझनपुर, सैनी, करारी व सरायअकिल में भी यह धंधा फल-फूल रहा है। वाराणसी के आसपास देसी दारू बनाने का धंधा लम्बे समय से चल रहा है। यही हाल कानपुर, आगरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों मुरादाबाद, मेरठ, गाजियाबाद आदि जिलों का है।
उत्तर प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई जिला होगा जहां जहरीली शराब का धधा न चल रहा हो और इससे किसी की कभी मौतें न हुई होगी। लखनऊ के सरोजनीनगर, तालकटोरा, मलिहाबाद, मोहनलालगंज, काकोरी व बंथरा सहित अन्य क्षेत्रों में तस्कर भारी मात्र में महुआ व गुड़ का सीरा मिलाकर शराब बनाते हैं। इसमें नशा पैदा करने के लिए यूरिया खाद व ऑक्सीटोसीन दवा का इस्तेमाल किया जाता है। लखनऊ में ही देसी शराब के करीब चार सौ ठेके हैं। आधे से अधिक ठेके लखनऊ के ग्रामीण क्षेत्रों में हैं.लेकिन सस्ती के चक्कर में लोग अवैध ठेकों का रूख करने के मोह से बच नहीं पाते हैं। इसी प्रकार. कानपुर और उससे लगे उन्नाव के आसपास के क्षेत्रों में भी अवैध शराब का धंधा चरम पर है। रायबरेली के सौ से अधिक गांवों में शराब के अवैध धंधे को रोकने का प्रयास कागजों से बाहर नहीं निकल पा रहा है।
हरदोई में शायद ही कोई गांव हो जहां कच्ची शराब बनाने का धंधा न फल-फूल रहा हो। कन्नौज के कई क्षेत्र में जाति विशेष की बस्ती में अवैध शराब का कारोबार होता है। फतेहपुर में अवैध शराब की पचासों भट्टियां धधक रही हैं। इटावा, बांदा, महोबा और हमीरपुर में अवैध शराब का धंधा कुटिर उद्योग बन चुका है। यहां धंधे में महिलाएं ज्यादा सक्रिय हैं। जालौन में बेहद अवैज्ञानिेक तरीके से तैयार होने वाली दारू कभी भी जहरीली शराब कांड का कारण बन सकती है, लेकिन सरकार और प्रशासन तब तक आंखे बंद किये बैठे रहता हैं जब तक कि कोई हादसा नहीं हो जाता। पूर्वांचल के मऊ, गाजीपुर, चंदौली और सोनभद्र आदि जनपदों में भारी मात्रा में अवैध शराब का उत्पादन किया जाता है। इससे स्थानीय प्रशासन के भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की बराबर क साझेदारी होती है। भले ही यह धधा गंदा हो लेकिन इस धंधे में रसूखदारों की भी अच्छी खासी भागेदारी हैं। यही वजह है कि इस गोरखधंधे पर अंकुश लगाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूर-दूर के गांवों में भी शराब से जुड़ी समस्याएं किस तरह से विकराल रूप धारण कर चुकी हैं, इसका अहसास यहां के जिलों के गांवों का दौरा करके देखा जा सकता है। कहीं लोग जहरीली शराब से होने वाली मौतों की शिकायत करते हैं तो कहीं शराब-माफिया व पुलिस की मिलीभगत की और कहीं शराब फैक्ट्रियों से फैल रहे प्रदूषण की। कुशीनगर जिले में जहरीली शराब पीने से कई मौतें हो चुकी हैं। कई परिवार उजड़ चुके हैं, लेकिन यह धंधा बदस्तूर जारी है। स्थानीय लोग कभी -कभार शराब की बिक्री का विरोध करने का साहस करते भी हैं तो पुलिस की लाठिया व शराब माफियाओं की गुंडागर्दी के सहारे इसे दबा दिया जाता है। गोरखपुर के गांवों का भी यही हाल है.। सबसे सनसनीखेज तथ्य तो यह है कि बिहार के सरहदी इलाकों से ऐसा रसायन पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपदों में आ रहा है जिसका इस्तेमाल अवैध शराब बनाने में धड़ल्ले से किया जा रहा है। कच्ची की मंडियों में खपाई जाने वाली यह शराब काफी कम दाम पर बेची जा रही है। जानकारों का कहना है कि एक लीटर रसायन में सौ लीटर शराब तैयार की जा सकती है। अब तक तो जनपद में ईंट-भट्ठों से लगायत क्षेत्रों में कच्ची शराब बनाई और बेची जाती रही है. लेकिन अब शराब कारोबारियों ने नायाब तरीका तलाश लिया है।
बिहार से पगडंडियों के रास्ते ऐसा रसायन मंगाया जा रहा है जिसकी एक लीटर की मात्रा में पानी मिलाकर सौ लीटर शराब बनाई जा सकती है। इस शराब में पूंजी भी कम लग रही है। शराब बनाने में अगर पानी थोड़ा भी कम हो जाए तो पीने वालों की मौत हो सकती है। पुलिस को पैसा पहुंच जाता है, इसलिए इस पर कोई कार्रवाई नहीं होती। पूर्वांचल के बिहार सीमा से लगे बलिया, देवरिया, गाजीपुर जैसे जिलों में इस शराब का धंधा काफी तेजी फल-फूल रहा है. लोग बताते हैं कि शराब के कारोबारी बिहार से गैलन, टीन के जरिए दूध बेचने के बहाने रसायन लेकर इन जनपदों में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। अवैध तरीकों से तैयार की जाने वाली और तस्करी कर लाई जा रही शराब पर अगर नियंत्रण नहीं लग पा रहा है तो इसके लिये पुलिस और आबकारी विभाग तो जिम्मेदार है ही सरकार की नीतियां भी कम कसूरवार नहीं हैं।
अवैध रूप से शराब बनाने वाले दिन में या तो अपने घर पर रहते हैं या अन्य कामों में लगे रहते हैं। दिन छिपने के बाद ही ये माफिया शराब बनानी शुरू कर देते हैं। रात में पुलिस और आबकारी विभाग भी दबिश डालने से कतराती है। इसका फायदा शराब माफिया उठाते हैं और बेरोकटोक शराब बनाकर बेच रहे हैं। मेरठ में कई बार जहरीली शराब कहर बरपा चुकी है। बावजूद इसके शराब के अवैध धंधे को बंद कराने में पुलिस, प्रशासन और आबकारी विभाग खास दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है। जहरीली शराब का ऐसा कहर मेरठ में सात साल पूर्व बहसूमा थाना क्षेत्र के रामराज में हुआ, जिसमें पांच लोगों की मौत हुई थी। पूरे प्रदेश में पंचायत चुनाव के दौरान नंबर दो की शराब खूब पी-पिलाई गई। कन्नौज जिले में पंचायत चुनाव के दौरान प्रत्याशियों ने जमकर वोटरो को लुभाने के लिए जहरीली और नकली शराब पिलाई। पूरे जिले में मौत का नंगा खेल खेला गया। आधा दर्जन से अधिक पियक्कड़ों की मौत हो गई। इस पर न तो अब तक आबकारी विभाग कोई अंकुश लगा पाया और न ही जिला प्रशासन इस पर कोई कार्यवाई कर सका।
बहरहाल, प्रदेश सरकार को वाणिज्य कर विभाग के बाद सबसे अधिक राजस्व देने वाला आबकारी विभाग यह तो मानता है कि प्रदेश में तस्करी और अवैध शराब का धंधा चल रहा है, इसके खिलाफ समय-समय पर कार्रवाई भी की जाती है, लेकिन संसाधनों के अभाव में उस तेजी के साथ कार्रवाई नहीं हो पाती है, जिसकी जरूरत है। बात वित्तीय वर्ष 2014-2015 की कि जाये तो जनवरी 2015 तक आबकारी विभाग ने अवैध शराब निर्माण के मात्र 67735 मामले ही पकड़े, जबकि छापेमारी के दौरान अन्य राज्यों से तस्करी कर लाई जाने वाली शराब जब्त करने के अलावा 11253 मामले भी दर्ज किये गये, जो देखने में भले ही अच्छे लगते हों, लेकिन जमीनी हकीकत से काफी कम थे।
लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क ajaimayanews@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.
12.2.16
यूपी सरकार को मालामाल कराती मधुशाला बनाम सपाइयों का शराब प्रेमी जनता पर चोट
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