डा. राधेश्याम द्विवेदी
संयोग से भारत देश की अवस्थिति इस प्रकार एक दुरूह स्थिति को प्राप्त हो गया है कि वह कभी ना तो सुख, शान्ति या चैन से बैठ सकता है और ना ही अपनी तरक्की निर्वाध रूप से कर सकता है। इतिहास की हमारी कुछ असावधनियां व सरकारी निर्णय हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान के हौसले निरन्तर बुलन्द करते चले आ रहे हैं। हमारी अहिंसा और पंचशील का सिद्धान्त आज के युग में अप्रसांगिक हो गया है और अब हमें विस्तारवादी नीति को ही अपनाकर अपना अस्तित्व बचाने और अपने विरोधियों को शिकस्त देने का प्रयास करना ही चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक कर भारतीय सेना ने अपना बहुप्रतीक्षित अरमान पूरा कर लिया है। रोज-रोज के घातक और छिप-छिपकर वार से तो यह एक अच्छा विकल्प बन गया है। पूरे देश की जनता ने हमारी सेना की इस कार्य की सराहना की है। हां, कुछ स्वार्थी और सत्ता के भूखे लोग इस पर प्रश्न चिन्ह जरूर उठाये हैं। भारत की वर्तमान मोदी सरकार ने कहने को तो सेना को पूरी छूट दे रखी है परन्तु लगता नहीं है। हां, वह सौनिकों का मनोबल जरूर बढ़ाते दिख रही है। एक तरफ सेना को सरकार का समर्थन मिल रहा तो दूसरी तरफ आतंकबादियों को 6 साल पहले तथाकथित सफाया करने वाले मच्छिल सेक्टर के आरोपियो या दोषियों को रिहा करने की मांग भी सोसल साइटों पर ख्ब जमकर आने लगी है। हम इस मांग को नजरन्दाज नहीं कर सकते हैं और इस पर ना केवल सार्थक बहस अपतिु गंम्भीर प्रयास कर पिछले सरकार द्वारा दोष सिद्ध किये गये वाद को खुलवाकर, उनपर पुनः विचार कर उसे समय के मांग के अनुरूप जनभावना का सम्मान भी कर सकते हैं।
भारतीय सेना के दस्तावेज इसकी गवाही देते है कि भारतीय सेना के कर्नल डी. के. पठानियां कश्मीर के मच्छिल सेक्टर में अपने जवानों को एक-एक कर के अपनी आँखों के आगे शहीद होता देख रहे थे। केंद्र सरकार की तरफ से किसी भी प्रकार की जबाबी कार्यवाही न करने के आदेश के कारण उनकी बटालियन के हाथ और पैर बंधे थे। तत्कालीन मनमोहन सरकार विदेश नीति के तहत खुल कर भारतीय सेना को कार्यवाही करने का आदेश नहीं दे रही थी। लगातार पाकिस्तानी आतंकियों की तरफ से हो रही गोलाबारी और हमलों की वजह से हो रहे शहीद जवानों को देख कर मच्छिल सेक्टर में तैनात भारतीय सेना के अफसरों और जवानों में रोष बढ़ रहा था। राजनैतिक हरी झंडी न मिलने के कारण वो हाथ पे हाथ धरे बैठे हुए थे। जो रोज रोज की शांति से तंग आ गया था। सामने वाला गोली मारे और पूछे तो जबाव मिले, “चुप रहो , गोली मत चलाना”। भारत माँ का लाल हर दिन अपने हाथों से अपने किसी शूरवीर जवान का अंतिम संस्कार कर रहा था।
दिल्ली में बैठी कांग्रेस की सरकार एक आदेश देती थी,”जो हो रहा है उसे होने दो। ज्यादा देश भक्ति सवार है क्या? वर्दी से नहीं तो कम से कम अपने परिवार से प्रेम करो और चुप रहो”।“ एक दिन उस से ना रहा गया 30 अप्रैल 2010 को कर्नल डी के पठानिया ने स्वयं को सरकार के हर आदेश, हर बाध्यता, हर नियम से मुक्त कर डाला। कर्नल डी के पठानियां ने केंद्र सरकार से मिलने वाली जबाबी कार्यवाही के आदेश का इंतजार बंद करने का निर्णय लिया। आतंकियों को उनकी ही भाषा में ही जबाब दिया जाय। उन्होंने सेना अनुशासन हीनता की अवेहलना करते हुए ‘भविष्य में जो होगा देखा जायेगा’ ये सोच कर, अपने सहयोगियों को मरता देखकर अपने अधीनस्थ साथी मेजर उपेन्द्र को अपने निर्णय से अवगत कराया। मेजर उपेन्द्र ने अपने अधीनस्थ दूसरे और साथियों हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी व सिपाही अरुण कुमार को कर्नल डी के पठानियां के उक्त निर्णय से अवगत कराया। कर्नल डी के पठानियां ने अपने सहयोगियों, मेजर उपेन्द्र, हवलदार देवेंद्रकुमार, लांस नायक लखमी व सिपाही अरुण कुमार के साथ विमर्श कर सर्वसम्मति से आत्मरक्षा और आतंकियों के विनाश के लिए जबाबी कार्यवाही करने के निर्णय पर सहमति जाहिर की और जवाबी कार्रवाई कर दी। आतंकी शहज़ाद अहमद, रियाज़ अहमद व मोहम्मद शफ़ी को 72 हूरों के पास ज़न्नत पहुँचा दिया गया । सेना के कानून को ताक पर रखते हुए एक मुड़भेड़ में मार गिराया।
कर्नल पठानिया और मेज़र उपेन्द्र का खौफ़ हिमालय की घाटी में बन्दूक और तोपों की आवाज से भी ज्यादा गूँज गया था । वहां खुद को आतंकी कहने वाला अपना हुलिया बदल कर बंदूक की जगह बुरका पहन कर घूमने लगा था ।शांति के दूतों में छाया ये खौफ़ दुर्दांत आतंकी संगठन और उस समय की सत्ता के मालिक कांग्रेस को रास ना आया था । फिर कर्नल पठानिया और मेज़र उपेन्द्र पर अनंत प्रताड़ना का दौर, बिल्कुल उड़ीसा वाले दारा सिंह की तरह शुरू हुआ । आखिर उन्होंने मुसलामानों को मारा था। बिना केंद्र की अनुमति के कर्नल डी के पठानियां, मेजर उपेन्द्र एवं अन्य सैनिकों के द्वारा की गई कार्यवाही की जानकारी सेना के उच्च अधिकारियों से होती हुई रक्षा मंत्रालय पहुँची उस समय के रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने जाँच के आदेश जारी कर दिए थे ।
उस समय सेना ने दावा किया था कि उन्होंने कुपवाड़ा जिले की लाइन ऑफ कंट्रोल के माचिल सेक्टर में तीन गुर्रिला को मार गिराया। कथित मुठभेड़ में मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद खड़ा हो गया था क्योंकि मरने वालों के रिश्तेदार और पड़ोसियों ने दावा किया कि इस मुठभेड़ में तीन नागरिकों को मारा गया है। उनका आरोप था कि इन तीन नागरिकों को फर्जी मुठभेड़ के तहत मारा गया और उनका आतंकवाद से कोई लेना देना नहीं है। पुलिस जांच से बाद में यह साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें ईनाम और पैसों के लिए फर्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया गया। इसके बाद सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया जिसमें छह जवान दोषी पाए गए।
सेना ने कहा कि वे पाकिस्तानी आतंकवादी थे, लेकिन बाद में उनकी पहचान बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई। उन्हें कथित तौर पर सीमा इलाके में ले जाकर गोली मारी गई। पीड़ितों के रिश्तेदारों की शिकायतों के बाद पुलिस ने प्रादेशिक सेना के एक जवान और दो अन्य को गिरफ्तार किया था, लेकिन घटना की वजह से पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई और बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होने लगे, जिनमें 123 लोग मारे गए। उत्तरी कमान के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने कहा कि सेना ने 2010 के कथित माछिल फर्जी मुठभेड़ मामले में शामिल सैन्य इकाईयों के आरोपी सैन्यकर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया। गवाहों को समन देने, सबूत दर्ज करने और आरोपी सैन्यकर्मियों के दोष की स्थापना के लिए राज्य पुलिस और न्यायिक विभाग की मदद से विस्तृत एवं व्यापक जांच की गई। पूरे मामले और संबंधित सैन्यकर्मियों द्वारा किए गए अपराध की विस्तृत जांच के बाद सेना ने कोर्ट मार्शल की कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया था ताकि त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के सेना के संकल्प को दिखाते हुए कानूनी प्रक्रिया को एक तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाया जाए। राज्य पुलिस ने जुलाई, 2010 में इस मामले में सेना के एक कर्नल, एक मेजर और सात अन्य के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया था।आरोप पत्र में राजपूताना रेजीमेंट के कर्नल पठानिया, मेजर उपिंदर एवं चार अन्य और प्रादेशिक सेना के एक जवान एवं दो अन्य के खिलाफ कथित तौर पर सोपोर से तीन युवकों को नौकरी दिलाने के बहाने अगवा करने और बाद में आतंकवादी बताकर कुपवाड़ा में मारने का आरोप लगाया गया। यह आरोप पत्र सोपोर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में दायर किया था । पुलिस ने मामले में कथित संलिप्तता के लिए प्रादेशिक सेना के जवान अब्बास शाह और बशारत लोन एवं अब्दुल हामिद भट्ट को गिरफ्तार किया था।
रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने उनकी वर्दी उतरवा कर उन्हें बर्खास्त कर दिया और कोर्ट ने मेजर उपेन्द्र, कर्नल डी के पठानिया और उन पाँचों जवानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। फिर आतंकियों में छाया सारा खौफ़ घूम कर सेना में छा गया। कश्मीर में घी के लड्डू बंटे। वो सारे महावीर आज भी जेलों में हैं। इसे सरकार के निर्देश के अनुसार अनुशासनहीनता माना गया और कर्नल डी के पठानियां तथा उनके सहयोगियों का कोर्टमार्शल करके उसे आजन्म कारावास की सजा दी है। फिर उन सबके ऊपर सिविल कोर्ट में भी अभियोग दर्ज कर मुकदमा चलाया गया और सिविल कोर्ट से उन सभी को आजीवन कारावास की सजा हो गई जिसे आज भी वो पाँचों काट रहे हैं।
क्या राष्ट्र भक्ति का दम भरने वालों में दम है ये कहने का कि कर्नल पठानिया और मेजर उपेन्द्र को मुक्त करो? मीडिया जब अपने एजेंडे से छोटे से छोटे मुद्दे को हवा दे तो राष्ट्र भक्तों को असली मुद्दों पर भी ध्यान देना चाहिए। इस मामले में दोषियों के परिवारी जन, उच्च या उच्चतम न्यायालय की शरण लेकर इस मामने को पुनः खुलवा सकते हैं। यहां यदि सफलता ना मिले तो माननीय राष्ट्रपति महोदय के पास दया याचिका दाखिल कर सकते हैं। सरकार भी इसे अपने वकील के जरिये खुलवा सकती है। इतना ही नहीं माननीय उच्च या उच्चतम न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर जन भावना के आशंकाओं का समाधान ढ़ूढ़वा सकती है। छः साल की सजा को प्रर्याप्त मानते हुए उनकी बाकी सजा मांफ भी किया जा सकता है। यदि वे सचमुच दोषमुक्त हो जाते हैं तो उनको सरकारी वेतन पेंसन तथा जेल की अवधि व प्रताडना के लिए क्षतिपूर्ति तथा सैन्य पुरस्कारों से भी नवाजा जा सकता है।
3.11.16
कर्नल और मेजर जेल में, उनकी रिहाई कब?
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