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24.11.16

ज़ाकिर नाइक की संस्था पर प्रतिबंध और मुसलमानों की प्रतिक्रिया

इमामुद्दीन अलीग

डॉक्टर ज़ाकिर नाइक को किस वजह से निशाना बनाया जा रहा है ? ये सभी जानते हैं कि उनका 'जुर्म' केवल "इस्लाम का प्रचार करना" है और इस्लाम का प्रचार भी इतने तर्क, तथ्य और संदर्भ के साथ कि वो साम्प्रदायिक और बातिल ताक़तों के लिए अजेय (यानी नाक़ाबिले शिकस्त) साबित हो रहे थे। उनके पास ज़ाकिर नायक का कोई तोड़ नहीं बचा था सिवाए इसके कि उलटे सीधे आरोप लगा कर उनकी संस्था को बैन कर दिया जाए। इसके इलावा और कोई वजह है किसी के पास? अगर ज़ाकिर नाइक को "इस्लाम का प्रचार करने" के 'जुर्म' में निशाना बनाया जा सकता है तो आप इस्लाम की खातिर उनका साथ क्यों नहीं दे सकते ? अगर ज़ाकिर नायक का साथ देने में आप का मसलक आड़े आ रहा है तो समझ लीजिए कि मसलक ने आप के इस्लाम को क़ैद कर लिया है !


ताज्जुब की बात है कि जो व्यक्त हमेशा क़ुरान व हदीस की की रौशनी में, तर्क व तथ्य और संदर्भ के साथ बात करता था, जो मात्र इस्लाम का प्रचार करता था, जिसने अपने आपको कभी किसी मसलक से नही जोड़ा, उस शख्स का विरोध मसलक के आधार पर किया जा रहा है !!! भला ये कैसी कुंठा है ?

ये पहला मौक़ा नहीं है जब मुस्लमान मसलक के आधार पर दुसरे मुस्लिम भाई की परेशानी पर जश्न मानते देखे गए हों। इससे पहले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर ऊँगली उठी तब भी कुछ मुसलमान खुश हो रहे थे, पीस टीवी बंद हुआ था तब भी कुछ मुसलमान खुश हो रहे थे,  आज ज़ाकिर नायक की आईआरएफ़ पर बैन लगा है तब भी कुछ मुसलमान खुश हो रहे है ! पूरे के पूरे मुसलमान दुखी तो तब होते हैं जब NDTV पर बैन लगने की घोषणा होती है ! दूसरों की परेशानी पर तो मुस्लमान दुख जताने के साथ एकजुट हो कर पीड़ित का भरपूर समर्थन भी करते हैं जो कि सही भी है। पीड़ित और शोषित का साथ देना मुसलमानों का दीनी फ़रीज़ा (धार्मिक ज़िम्मेदारी) भी है. लेकिन वहीँ दूसरी ओर अपने और सामने वाले मुस्लिम भाई में 90 चीजें कॉमन होने के बावजूद उसकी परेशानी पर साथ देने के बजाए ख़ुशी मानते नज़र आते हैं।  जबकि ये बात स्पष्ट है कि आने वाले कल में सब की बारी आने वाली है।  बरेलवी हों, देवबंदी हों, सल्फी हों या फिर जमीअत-उल्मा-हिन्द और जमाअत-ईस्लामी आदि जैसे संगठन हों, कोई नहीं बचने वाला है। क्योंकि लाख फ़िरक़ाबंदी के बावजूद सभी फिरकों और मसलकों में एक अल्लाह, एक नबी और एक क़ुरान सामान्य है।

दरअसल मसलक को मज़हब बना लेने से ही ये सोच जन्म लेती है कि मैं सही बाकी सब गलत, मैं बरहक़ और जन्नती बाक़ी सब बातिल और जहन्नमी ! यही सोच एक मुसलमान को दुसरे मुसलमान की परेशानी पर खुश होने का कारण बनती है जबकि इस्लाम तो किसी गैर मुस्लिम या यूँ कहें कि किसी भी इंसान की परेशानी पर ख़ुशी मनाने की इजाज़त नहीं देता।
सभी मसलक और फ़िरक़ों से मेरा एक सीधा और सादा सा सवाल है।

नबी (s.) ने एक हदीस में फ़रमाया कि क़यामत के क़रीब आने पर फ़ह्हाशी और बेहयाई बढ़ जाएगी। अब आप ही बताइए कि इस हदीस में फ़ह्हाशी और बेहयाई के खिलाफ चेतावनी है या प्रेरणा (तरग़ीब) ?

इसी तरह 73 फ़िरक़ों वाली हदीस फ़िरक़ा बाज़ी और मसलक परस्ती के खिलाफ एक चेतावनी है या प्रेरणा ? अगर चेतावनी है तो फिर मसलक और फ़िरक़ों के प्रचारक इस हदीस को अपने हक़ में दलील के तौर पर किस आधार पर इस्तेमाल करते हैं ?  जबकि इसी हदीस में ही आगे बता दिया गया है खुद को किसी मसलक या फ़िर्क़े से न जोड़ कर "मेरे और सहाबा (r.) के रास्ते पर चलने वाले" या "सुन्नत वलजमात" अर्थात इज्तेमाइयत के रास्ते पर चलने वाले लोग ही हक़ पर होंगे। तफर्रका बाज़ी के सिलसिले में सहाबा (r.) का रास्ता या इज्तेमाइयत का रास्ता क्या था वो हर कोई जानता है। लाख इख्तेलाफ़ात के बावजूद सहाबा (r.) ने खुद को और दुसरे साथियों को "मुसलमान" और "मोमिन" के इलावा कोई और नाम नहीं दिया, एक दुसरे को फ़िरक़ों, मसलकों और गिरोहों में नहीं बांटा और न ही किसी को "मुसलमान" के इलावा किसी और टर्म से कभी पुकारा। जबकि ऐसा भी नहीं था कि उनमें इख़्तिलाफ़ात और नजरियाती विरोधाभास नहीं थे।

वैसे ज़ाकिर नायक की आईआरएफ़ पर बैन लगने से खुश होने वाले फ़्रिक़ा परस्त सूरमाओं और मसलकी प्रचारकों से इस्लाम के प्रचार की उम्मीद करना या इत्तेहाद की अपील करना सरासर बेवक़ूफी और हिमाक़त है, फिर भी मुझ जैसे कुछ लोग ये बेवक़ूफ़ी बार बार करते हैं ।  अभी समय है कि एक कलमा और एक अल्लाह के मानने वाले मुसलमान मुत्तहिद हो जाएँ वरना बारी बारी सब नपेंगे ।

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