राजाराम त्रिपाठी
भारत जैसी बहुत आंशिक रूप से संयोजित अर्थ व्यवस्था में में जहाँ अर्थ व्यवस्था का जबरदस्त भाग निजी प्रबंधन द्वारा होता रहा है और खुदरा मूल्यों, बाजारों और खेती को महत्व देना अपरिहार्य है या यों कहें की सरकार के गले में खेती के महत्व मानने की मजबूरी भी है वहां "काला धन " तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए विमुद्रीकरण के खतरनाक प्रयोग से किसान को क्या मिलेगा यह विचारणीय प्रश्न है। लोकतंत्र में लिए जा रहे फैसलों या नीतियों के परिवर्धन को शासकों की राजनितिक बाध्यता के पहलू से देखने पर नीति परिवर्तन और नीतियों में अंतर अच्छी तरह समझ में आता है पर वर्तमान परिदृश्य में हमारे भारतीय किसान के लिए तो सब भूल भूलैया ही है। उन्हें इस पूरी कसरत से कोई फायदा मिलता नहीं दीखता बल्कि परेशानी के साथ इस साल की खेती का भविष्य भी अनिश्चय में हो गया है। सीधी सी बात है 500 और 1000 रुपये के नोट बंद कर अगर हम काला धन प्राप्त करने की बात करते हैं तो अर्थव्यवस्था की वर्तमान परिस्थित तथा सामाजिक व्यवस्था साथ ही हमारी नौकरशाही यह गारंटी कहाँ से दे सकती है की दो हजार के नोटों की शक्ल में आगे काला धन नहीं जमा किया जाएगा। इस अर्थव्यवस्था के शीर्षासन के बजाय भरष्टाचार तथा अखाडा धर्म को रोकने के कठोर कानून बनाये जाते एवं उनको कठोरता से लाया जाना बेहतर विकल्प होता और दोषियों को सजा का प्रावधान होता तो शायद काला धन तथा भ्र्ष्टाचार से मुक्ति मिल सकती थी.
विकासशील देश इस तरह के अव्यवहारिक आर्थिक प्रयोग नहीं करते विशेषकर जहाँ अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत कृषि हो । किसान गांव में रहता है। ज्यादातर गांवों में बैंक भी नहीं हैं। वहां यह कमी कैसे पूरी हो। बैंक तो दूर दराज़ के छेत्र में हैं. इसके बाद भी उसके अकॉउंट में पैसा आ भी गया या पैसा बदलने वह गया तो वह कई किलोमीटर की दूरी तय करके बैंक पहुंचेगा उसके बाद भी इस बात की गारंटी नहीं की उसे पैसे मिल ही जाएंगे। बैंक वाले हाथ उठा दें कि पैसे ख़तम हो गए. दुसरे दिन या तीसरे दिन भी पैसे मिल ही जाएँ यह भी निश्चित नहीं.,ऐसे प्रयोग बेल्जियम जैसे छोटे देशों में तो चल सकते हैं जहाँ40 लाख की आबादी है वह भी उद्योगों पर आधारित है और बैंकों से सम्बद्ध भी है । पर भारत जैसे कृषि आधारित रूरल इकॉनमी वाले देश में नहीं।
जहाँ सरकारें आज आज़ादी के 70 सालों में भी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंचा सकी हैं वो मात्र 50 दिन सब डिजिटल कर देंगी यह तो सपने जैसा ही है? यहाँ यह ध्यान देने योग्य है की हमारे देश की खेती -किसानी पूरी तरह से कैश या नगदी पर आधारित है. किसान पे टी एम ( जिसमें 70 % अलीबाबा नाम की चीनी कंपनी का हिस्सा है ), फ्लिपकार्ट, अमेज़ॉन, स्नैपडील अदि से ऑन लाइन बीज , खाद , पानी , डीज़ल , दवा अदि नहीं खरीदता। दिसम्बर के शुरू होते होते अगर गेंहू न बोया गया तो इस बार गेहूं की पैदावार अच्छी नहीं होगी। गौर करने वाली बात है की मंडियों में बैठे किसान को अभी तक धान का भी पूरा भुगतान नहीं हो पाया है। पुराना क़र्ज़ भुगतान न कर पाने पर नया क़र्ज़ उसे नहीं मिलेगा. अभी 25 किसान मरे हैं। . गेंहूँ की कटाई का वक़्त आते-आते आत्महत्याओं का आंकड़ा देखिये कहाँ पहुचता है। और एक बार खेती की गाडी अगर पटरी से उतरती है तो कम से कम वापस पटरी पर लाने में तीन साल लग जाते हैं।
किसान परेशान, व्यापारी घाटे में, उद्यमी घाटे में, नौकरी पेशा के पास बचा क्या की जो निचोड़ने की कवायद हो रही है। मज़दूर को पेट के लाले पड़े हैं , नौ करोड़ बेरोज़गारों को पैसे के साथ अपनी शादी के लिए भी जोर भरने पड़ रहे हैं ! बहुत दिन नहीं हुए जब चुनाव के वक़्त धान, गेहूं का समर्थन मूल्य 100 और 50 % बढ़ाया जाने के वादे भी किये गए थे लेकिन बढे हैं मात्र ... 6 % ही। ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा रही है शिक्षा , स्वास्थ्य और इंफ़्रा स्ट्रक्चर को निजी हाथों में भेज कर यह सब सामान्य जन की हाथ से बाहर हो गया है। सोचने की बात है की अल्पसुबिधा भोगी ग्रामीण युवा जब पढ़ ही नहीं पाएंगे तो यह कौशल विकास का नारा ...? उन्हें श्रमिक श्रेणी में ही तो ले जाने वाला है !
कुछ और सवाल। विमुद्रीकरण की यह योजना नवम्बर में बिना जनता की सुविधा- असुविधा का ध्यान दिए हुए और बिना पूरी तैयारी के लांच कर दी गयी।इसके लांच करने से पहले के कुछ फैसले जानना भी महत्वपुर्ण है जैसे प्रधानमंत्री मोदी जी जो अपने को "सी एम् " मतलब कॉमन मैन या आम आदमी कहलाने का दम भरते हैं उनकी सरकार के कुछ फैसलों से हवाला कारोबारियों को कानूनी रूप से विदेश में धन भेजने का सुनहरा मौका मिला। मोदी सरकार बनने के पहले एल,आर , एस (लिबेरलाइज़ड रेमिटेंस स्कीम ) के तहत विदेश में धन भेजने की सीमा सिर्फ 75 हज़ार डॉलर थी. भाजपा के सत्ता में आने के एक हफ्ते के बाद ही 03 जून 2014 को इसकी सीमा बढ़ कर 125 हजार डॉलर कर दी गयी। पिछले साल 26 मई को दोबारा एल आर एस की सीमा बढ़ कर 250 हज़ार डॉलर कर दी गयी. यह फैसला हवाला कारोबार को कानूनी दर्ज़ा देने जैसा साबित हुआ है . इस फैसले के चलते जून 2015 से पिछले 11 महीने में 30 ,000 करोड़ रुपये विदेशी कहते में लोगों ने ट्रांसफर कर दिए। अब आगे जो गौर करने लायक है की सर्वप्रथम इसी सितंबर माह में श्रीमान उर्जित पटेल जो की रिलायंस के पूर्व सलाहकार रह चुके हैं उन्हें आर..बी आई का गवर्नर नियुक्त किया जाता है। नवम्बर में मोदी जी अचानक विमुद्रीकरण की घोषणा देर शाम को राष्ट्र को संबोधित करके कर देते हैं। अब सिक्के का दूसरा पहलू ... ! वित्त मंत्रालय के अनुसार देश में कुल काले धन का 6 % कॅश के रूप में है। 94 % कला धन अन्य तरीकों से दबाया गया है। इस 6 % में से सिर्फ 15 % कॅश निकलने की संभावना है। बाकि बचा 85 % किसी न किसी तरीके से शुद्ध या आम बोलचाल में सफ़ेद कर दिया जायेगा। जो 15 % कला धन उजागर होगा वह एक बड़ा विज्ञापन बनेगा सरकार की सफलता का। सन 2011 में ६४८ लोगों की लिस्ट आयी थी जिनका स्विस बैंक में कला धन था... उनपर कार्यवाही करना तो दूर उनकी लिस्ट तक "कांग्रेस, भाजपा " सार्वजानिक नहीं कर पायी . ये कितने पहुँच वाले लोग होंगे और इनके कितने प्रगाढ़ समबंध होंगे सरकार और विपक्ष से इसका अंदाज़ा भी खूबी लगाया जा सकता है। यह अंदाज़ लगाना कठिन नहीं की पूर्व और वर्तमान सरकार इन्हीं 648 लोगों की जेब में है। इन लोंगो ने कुछ तो योजना बनाई होगी स्विस बैंक के खजाने को सफ़ेद करने की। आज एक मामूली व्यापारी,जुआरी , सटोरिए, मिलावटखोर भी अपनी अघोषित जमा पूँजी को सफ़ेद करने की भरसक कोशिश कर रहा है तो जाहिर है की इन्होंने भी भरसक प्रयास किये होंगे और उन्हीं प्रयासों का हिस्सा है यह "विमुद्रीकरण" की योजना( 1000 और 500 के नोट की बंदी के रूप में ) स्विस बैंक का पैसा तो कबका भारत आ गया होगा .. लोकतंत्र में विपक्ष के रूप में कॉग्रेस इतनी कमजोर और अप्रभावशाली क्यों है ? कारन की विपक्ष स्विस खाता धारियों की जेब में है. और खुद कॉग्रेस , भाजपा के नेता ई भी इन 648 में शामिल हैं . इस तर्क पर सवाल बहुत हैं जिनका जवाब हमें ही ढूढ़ने है.. हो सकता यह अनुमान गलत हो मगर इसके ठीक और सटीक होने की भी संभावना भी है।
आज इस विमुद्रीकरण के समय देश के किसान भले ही हतप्रभ है पर जब सुस्ताने का समय मिलेगा तो उसके मन कैसी प्रतिक्रिया होगी यह सोचने का विषय है। विपक्षी पार्टियां भी वास्तविक समस्या को समझने के बजाय राजनीती की नौटंकी करने में व्यस्त हैं। इन पार्टियों को न तो खेती के वास्तविक अर्थशास्त्र का पता है न भारतीय खेती की असली दशा के बारे में अंदाज़ा है और न ही यह भारत की कृषि के अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र के अन्तर्सम्बन्ध को समझ पा रहे हैं। मोदी जी की मंशा पर कोई ऊँगली उठाना मेरे इस लेख का उद्देश्य कटाई नहीं है। "कला धन" निश्चित ही बहार आना चाहिए। कालाबाज़ारियों को कठोर सजा मिलनी चाहिए। भ्रष्ठाचरी किसी भी हाल में भी नहीं बख्से जाने चाहिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है और इसके लिए देश के नागरिक भी तकलीफ उठाने को तैयार हैं। मगर इस अव्यवस्था और अराजकता की अंधी सुरंग से गुजरने के वावजूद भी अगर देश को का ला धन से एवं भ्र्ष्टाचार से निजात नहीं मिलती है तो पुरे देश के करोड़ों नागरिकों को और विशेषकर देश के उन मजबूर बदहाल गरीब किसानों को जिनकी जमा पूँजी चाँद 500 और 1000 के नोटों की शक्ल में मौजूद है जिसे लेकर बदलवाने के लिए दर दर की ठोकर खा रहे हैं। ऐसा नहीं कि पहले कभी इस देश में नोट रद्द नहीं किये गए पर तब आम लोगों को परेशानी नहीं हुई जैसा आज झेल रहे हैं। कोई भी नीति जनहित में तभी अच्छी होती है जब उसे अच्छी तरह तैयारी के साथ लागू किया जाये. बड़े नोटों को रद्द करने का उद्देश्य भले ही महान हो पर इसे लागू करने का तरीका बेहद ढीला ढाल और अव्यवहारिक है।
डॉ राजाराम त्रिपाठी
राष्ट्रिय समन्वयक।
भारतीय कृषक महासंघ
भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद्
नई दिल्ली
151--Herbal Estate DNK Kondagaon, Chhattisgarh
India PIN 494226
Phone no.+91-9425258105
Land line +91-7786 242506
23.11.16
अब किसानों की लंगोटी पर भी सरकार की नजर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment