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13.5.19

न्यू मीडिया भारत में लोकतंत्र की नई किरण

न्यू मीडिया का यह प्रयोग कम लागत में कोई भी शुरू कर सकता है बस उसके अंदर कार्य करने का ज़ज़्बा होना चाहिये जो सत्य के साथ अपने विचारों को आज भी बिना की किसी ख़ौफ़ और डर के रख सके।  भारत में लोकतंत्र की नई किरण देखने में  भले ही आज छोटी लगती हो पर जब चारों तरफ बाढ़ आ जाती है तो लोग खुद को बचाने के लिये अपने साथ एक दीया साथ रख लेते हैं जो रात के अंधेरे में ही उनके जिंदा रहने का सबूत दुनिया को बता देती है।
आज "यू ट्यूब" टी.वी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अच्छा विकल्प बनता जा रहा है वह भी ऐसे समय में जब देश की अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किसी न किसी राजनीति विचारधारा से प्रभावित नजर आती है।  पिछले दिनों चुनाव के दौरान बिहार की एक चुनावी सभा में कन्हैया कुमार ने जैसे ही कहा कि आप टीवी चैनल देखते हैं? उनका इशारा ‘‘गोदी मीडिया’’ की तरफ था। बस इतना ही कहना था कि चारों तरफ से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी । कहने का अभिप्राय यह है कि देश की आम जनता इस बात को अच्छी तरह से समझ चुकी है कि इन मीडिया हाऊसेस ने अपनी साख खो दी है। कम-ओ-वेस यही हाल समाचार पत्रों का भी होते जा रहा है । लोगों का इन समाचार पत्रों से भी विश्वास हटते जा रहा है जो खुद को एक समय लोकतंत्र का चौथा प्रहरी मानते थे आज ये लोग खुद को सत्ता का दलाल बना चुके हैं ।
वहीं दूसरी तरफ "यू ट्यूब"  की तरफ जनता का झुकाव पैदा हो जाना किसी नये संकेत की तरफ इशारा तो नहीं कर रहा है कि आने वाले दिनों में करोड़ों रुपये से संचालित होने वाले समाचार हाऊस के दिन लदने वाले हैं? यह बात यहीं नहीं ठहर रही है "यू ट्यूब" की बढ़ती मांग के साथ-साथ इंटरनेट पर संचारित होने वाली वेब पत्रिकाएँ जैसे भड़ास4मीडिया पोर्टल के संस्थापक और संपादक यशवंत सिंह, विनोद दुआ द्वारा "द वायर" आशुतोष के द्वारा "सत्य हिन्दी डाट कॉम", पुण्य प्रसून वाजपेयी के द्वारा यू ट्यूब पर धारावाहिक आना,  "स्वराज एक्सप्रेस",  अभिजात शर्मा के द्वारा ‘‘न्यूज चक्र’’  आज देश के राष्ट्रीय पटल पर अपना स्थान बना चुके हैं।

इनके दर्शकों की संख्या तेजी से बढ़ते जा रही है जो एक लाख से 50 लाख के बीच देखी जा रही है । इन "यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों का तेजी से फैलाव इस बात का भी प्रमाण है कि जनता को उन चापलुस पत्रकारों की बातों पर ज्यादा विश्वास नहीं रहा, उनको लगता है कि ये पत्रकार झूठ परोस रहें हैं और भ्रम फैला रहें हैं। इन यू ट्यूब या वेब पोर्टलों का चंद समय में ही लोकप्रिय हो जाना, आपातकाल की याद दिला देती है जब तमाम समाचार पत्रों ने श्रीमती इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के सामने घुटने टेक दिये थे तब गली मौहल्ले व पान-चाय की दुकानों पर लोग लंबी लाइनों में खड़ा होकर बीबीसी सुनने लगते थे। स्व. रामनाथ गोयनका को आज भी इसी के कारण याद किया जाता है कारण कि वे एक मात्र उस दौर के संपादक थे जिन्होंने जयप्रकाश नारायणजी का खुल के साथ दिया और श्रीमती गांधी के सामने घुटने टेकने से साफ इंकार कर दिया था।

सनु 2014 के बाद का यह संक्रमण काल जिसमें टी.वी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समाचारों में झूठ का समावेश जिस तेजी से बढ़ा है यह भले ही इनके टीआरपी को एक समय के लिये बढ़ा दे पर इनका अंत निश्चित है। क्योंकि कोई भी प्रत्रकार कितना भी समय की चपेट में आकर वह अपने विचारों को छोड़ दे, खुद की आत्मा को गिरवी रख दे, पर वह अंदर ही अंदर घुटता रहेगा जब तक वह सच बोल नहीं लेता। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो वह पत्रकार है ही नहीं।

आज रवीश कुमार को लोग पलक झपकते ही सुनने को लोग ऐसे ही बेताब नहीं रहते, कारण साफ है रवीश कुमार सीधे जनता के मुद्दों से खुद को जोड़े रखने में देश के तमाम टीवी ऐंकरों से काफी आगे निकल चुके हैं। भले ही इसके पीछे उनकी कड़ी मेहनत रही हो, पर समाचारों को संपादित करने में उनकी मेहनत साफ झलकती है, जो पुण्य प्रसून वाजपेयी के संपादन में भी झलकती है के अलावा किसी दूसरे ऐंकरों के संपादन में नहीं झलकती, लगता है वे किसी रोबोट की तरह समाचार के वाचक बनकर उतना भर ही बोल पाते हैं जितना उनकी खोपड़ी में भरा जाता है। यानि कि वे व्यक्ति न रह कर एक मशीन की तरह आते हैं और एंकरिंग कर के घर में टंगी अपनी खोपड़ी को पुनः सर पर लगा लेते हैं।

"यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर वैसे तो कई और भी चैनलों  या वेब पोर्टल की भरमार देखी जा सकती है पर उनकी विश्वनियता पर उतना भरोसा नहीं किया जा सकता । साथ ही ऐसा नहीं है कि ये पारंपरिक  इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया "यू ट्यूब" या वेब पोर्टलों पर नहीं हैं पर उनकी साख समाप्त हो जाने के कारण उनकी पहचान भी भीड़ में खो चुकी है यहाँ इस बात का जिक्र भी करना जरूरी समझता हूँ कि जिस प्रकार बेगूसराय लोकसभा चुनाव में कन्हैया कुमार ने "यू ट्यूब" इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रयोग कर अपने चुनाव का प्रचार किया और दुनिया भर के समाचार पटल पर चंद दिनों में ही छा गये यह भी किसी नये सुबह होने का संकेत दे रही है।

न्यू मीडिया का यह प्रयोग कम लागत में कोई भी शुरू कर सकता है बस उसके अंदर कार्य करने का ज़ज़्बा होना चाहिये जो सत्य के साथ अपने विचारों को आज भी बिना की किसी ख़ौफ़ और डर के रख सके।
भारत में लोकतंत्र की नई किरण देखने में  भले ही आज छोटी लगती हो पर जब चारों तरफ बाढ़ आ जाती है तो लोग खुद को बचाने के लिये अपने साथ एक दीया साथ रख लेते हैं जो रात के अंधेरे में ही उनके जिंदा रहने का सबूत दुनिया को बता देती है। जयहिन्द!

लेखक शंभु चौधरी स्वतंत्र पत्रकार और विधिज्ञाता हैं।

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