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30.5.19

दलित राजनीति को डॉ. आंबेडकर से सीखना चाहिए

एस. आर. दारापुरी
डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सब से पहले दलितों के लिए राजनैतिक अधिकारों की लडाई लड़ी थी. उन्होंने ही भारत के भावी संविधान के निर्माण के सम्बन्ध में लन्दन में 1930-32 में हुए गोलमेज़ सम्मलेन में दलितों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता दिलाई थी और अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम, सिख, ईसाई की तरह अलग अधिकार दिए जाने की मांग को स्वीकार करवाया था. 1932 में जब “कम्युनल अवार्ड” के अंतर्गत दलितों को भी अन्य अल्पसंख्यकों की तरह अलग मताधिकार मिला तो गाँधी जी ने उस के विरोध में यह कहते हुए कि इस से हिन्दू समाज टूट जायेगा, आमरण अनशन की धमकी दे डाली जब कि उन्हें अन्य अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अंत में अनुचित दबाव में मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर को गांधी जी की जान बचाने के लिए “पूना पैकट” करना पड़ा और दलितों की राजनैतिक स्वतंत्रता के अधिकार की बलि देनी पड़ी तथा संयुक्त चुनाव क्षेत्र और आरक्षित सीटें स्वीकार करनी पड़ीं.

गोलमेज़ कांफ्रेंस में लिए गए निर्णय के अनुसार नया कानून “गवर्नमेंट आफ इंडिया 1935 एक्ट” 1936 में लागू हुआ. इस के अंतर्गत 1937 में पहला चुनाव कराने की घोषणा की गयी. इस चुनाव में भाग लेने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) की स्थापना की और बम्बई प्रेज़ीडैन्सी में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 सीटें जीतीं. इस के बाद उन्होंने 19 जुलाई, 1942 को आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन बनायी. इस पार्टी से उन्होंने 1946 और 1952 में चुनाव लड़े परन्तु इस में पूना पैकट के दुष्प्रभाव के कारण उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली. फलस्वरूप 1952 और 1954 के चुनाव में डॉ. आंबेडकर स्वयं हार गए. अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) नाम से नयी पार्टी बनाने की घोषणा की. इस के लिए उन्होंने इस पार्टी का संविधान भी बनाया. वास्तव में यह पार्टी उन के परिनिर्वाण के बाद 3 अक्तूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस विवरण के अनुसार बाबा साहेब ने अपने जीवन काल में तीन राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं. इन में से वर्तमान में आरपीआई अलग अलग गुटों के रूप में मौजूद है.

वर्तमान संद्धर्भ में यह देखना ज़रूरी है कि बाबा साहेब ने जिन राजनैतिक पार्टियों के माध्यम से राजनीति की क्या वह जाति की राजनीति थी या विभिन्न वर्गों के मुद्दों की राजनीति थी. इस के लिए उन द्वारा स्थापित पार्टियों के एजंडा का विश्लेषण ज़रूरी है.

आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखें. डॉ. आंबेडकर ने अपने ब्यान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- “इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छायों से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इस के प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके. पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे.” पार्टी के मैनीफिस्टो में भूमिहीन, गरीब किसानों और पट्टेदारों और मजदूरों की ज़रूरतों और समस्यायों का निवारण, पुराने उद्योगों की पुनर्स्थापना और नए उद्योगों की स्थापना, छोटी जोतों की चकबंदी, तकनीकी शिक्षा का विस्तार, उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण, भूमि के पट्टेदारों का ज़मीदारों द्वारा शोषण और बेदखली, औद्योगिक मजदूरों के संरक्षण के लिए कानून, सभी प्रकार की कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावाद  को दण्डित करने, दान में मिले पैसे से शिक्षा प्रसार, गाँव के नजरिये को आधुनिक बनाने के लिए सफाई और मकानों का नियोजन और गाँव के लिए हाल, पुस्तकालय और सिनेमा घर आदि का प्रावधान करना था. पार्टी ने मुख्यतया किसानों और गरीब मजदूरों के कल्याण पर बल दिया था. पार्टी की कोशिश लोगों को लोकतंत्र के तरीकों से शिक्षित करना, उन के सामने सही विचारधारा रखना और उन्हें कानून द्वारा राजनीतिक कार्रवाही के लिए संगठित करना आदि थी. इस से सपष्ट है इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इस के केंद्र में मुख्यतया दलित थे. यह पार्टी बम्बई विधान सभा में सत्ताधारी कांग्रेस की विपक्षी पार्टी थी. इस पार्टी ने अपने कार्यकाल में बहुत जनोपयोगी  कानून बनवाये थे. इस पार्टी के विरोध के कारण ही फैक्टरियों में हड़ताल पर रोक लगाने सम्बन्धी औद्योगिक विवाद बिल पास नहीं हो सका था.

अब बाबा साहेब द्वारा स्थापित 1942 में स्थापित आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाये. डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी. पार्टी के मैनिफिस्टो में कुछ मुख्य मुद्दे थे: सभी भारतीय समानता के अधिकारी हैं, सभी भारतियों के लिए धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता की पक्षधरता; सभी भारतियों को अभाव और भय से मुक्त रखना राज्य की जिम्मेवारी है,  स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का संरक्षण; आदमी का आदमी द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा तथा राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति और सरकार की संसदीय व्यवस्था का संरक्षण, आर्थिक प्रोग्राम के अंतर्गत बीमा का राष्ट्रीयकरण और सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य बीमा योजना और नशेबंदी का निषेध था. यद्यपि यह पार्टी पूना पैक्ट के कारण शक्तिशाली कांग्रेस के सामने चुनाव में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकी परन्तु पार्टी के एजंडे और जन आंदोलन जैसे भूमि आन्दोलन आदि के कारण अछूत एक राजनीतिक झंडे के तल्ले जमा होने लगे जिस से उन में आत्मविश्वास बढ़ने लगा. फेडरेशन के प्रोग्राम से स्पष्ट है कि यदपि इस पार्टी के केंद्र में दलित थे परन्तु पार्टी जाति की राजनीति की जगह मुद्दों पर राजनीति करती थी और का फलक व्यापक था.

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि बाबा साहेब ने बदलती परिस्थितियों और लोगों की ज़रुरत को ध्यान में रख कर एक नयी राजनीतिक पार्टी “रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया” की स्थापना की घोषणा 14 अक्तूबर, 1956 को की थी और इस का संविधान भी उन्होंने ही बनाया था. इस पार्टी को बनाने के पीछे उन का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो. वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती. वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है. आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1) समाज व्यवस्था से विषमतायें हटाई जाएँ ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सब के लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ सामान व्यवहार, (6) मानवता की भावना जिस का भारतीय समाज में अभाव रहा है.

पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य “ न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता” को प्राप्त करना था. पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था. पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तल्ले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें. (दलित राजनीति और संगठन - भगवान दास)
आरपीआई की विधिवत स्थापना बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद 1957 में हुयी और पार्टी ने नए एजंडे के साथ 1957 व 1962 का चुनाव लड़ा. पार्टी को महाराष्ट्र के इलावा देश के अन्य हिस्सों में भी अच्छी सफलता मिली. शुरू में पार्टी ने ज़मीन  के बंटवारे, नौकरियों में आरक्षण, न्यूनतम मजदूरी, दलितों से बौद्ध बने लोगों लिए आरक्षण आदि के लिए संघर्ष किया. पार्टी में मुसलमान, सिक्ख और जैन आदि धर्मों के लोग शामिल हुए. उनमें पंजाब के जनरल राजिंदर सिंह स्पैरो, दिल्ली में डॉ. अब्बास मलिक, उत्तर प्रदेश में राहत  मोलाई, डॉ. छेदी लाल साथी, नासिर अहमद, बंगाल में श्री एस. एच .घोष आदि प्रसिद्ध व्यक्ति और कार्यकर्ता हुए.

1964 में 6 दिसंबर से फरवरी 1965 तक पार्टी ने स्वतंत्र भारत में ज़मीन के मुद्दे को लेकर पहला जेल भरो आन्दोलन चलाया जिस में तीन लाख से अधिक दलित जेल गए. सरकार को मजबूर हो कर भूमि आबंटन और कुछ अन्य मांगें माननी पड़ीं. इस दौर में आरपीआई दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एक मज़बूत पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई. परन्तु 1962 के बाद यह पार्टी टूटने लगी. इस का मुख्य कारण था कि इस पार्टी से उस समय की सब से मज़बूत राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को महाराष्ट्र में खतरा पैदा हो रहा था. इस पार्टी की एक बड़ी कमजोरी थी कि इसकी सदस्यता केवल महारों तक ही सीमित थी. कांग्रेस के नेताओं ने इस पार्टी के नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर पार्टी में तोड़फोड़ शुरू कर दी. सब से पहले उन्होंने पार्टी के सब से शक्तिशाली नेता दादा साहेब गायकवाड़ को पटाया और उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया. इस पर पार्टी दो गुटों में बंट गयी: गायकवाड़ का एक गुट कांग्रेस के साथ और दूसरा बी.डी.खोब्रागडे गुट विरोध में. इस के बाद अलग नेताओं के नाम पर अलग गुट बनते गए और वर्तमान में यह कई गुटों में बंट कर बेअसर हो चुकी है. इन गुटों के नेता रिपब्लिकन नाम का इस्तेमाल तो करते हैं परन्तु उन का इस पार्टी के मूल एजंडे से कुछ भी लेना देना नहीं है. वे अपने अपने फायदे के लिए अलग पार्टियों से समझौते करते हैं और यदाकदा लाभ भी उठाते हैं.

आरपीआई के पतन के बाद उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक पार्टी उभरी जिस ने बाबा साहेब के मिशन को पूरा करने का वादा किया. शुरू में इस पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. बाद में 1993 में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिल कर चुनाव लड़ने से इस पार्टी को अच्छी सीटें मिलीं  और एक सम्मिलित सरकार बनी. परन्तु कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण जल्दी ही इसका पतन हो गया. इस पार्टी के नेता कांशी राम ने  सत्ता पाने के लालच में दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता करके मुख्य मंत्री की कुर्सी हथिया ली परन्तु बाबा साहेब के मिशन और सिद्धांतों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी. इस के बाद पार्टी ने दो बार फिर भाजपा से गठबंधन किया और सत्ता सुख भोगा और अब अपने पतन की ओर अग्रसर है. इस पार्टी ने अवसरवादी, ब्राह्मणवादी, माफिययों और पूंजीपति तत्वों को पार्टी में शामिल करके दलितों को मायूस किया और उन्हें राज्य से मिलने वाले कल्याणकारी लाभों से वंचित कर दिया. इस के नेतृत्व के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, तानाशाही, अवसरवादिता और अदूरदर्शिता से बाबा साहेब के नाम पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बनी एकता छिन्न- भिन्न हो गयी है. आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी से टूट कर हिन्दुत्ववादी भाजपा के साथ चला गया है. दलितों की एक प्रमुख जाति चमार/जाटव को छोड़ कर दलितों की शेष उपजातियां अधिकतर भाजपा की तरफ चली गयी हैं. भाजपा इन जातियों का इस्तेमाल दलितों और मुसलामानों के बीच टकराव करवाने के लिए कर रही है. इस से हिंदुत्व मज़बूत हुया है और बहुसंख्यकवाद उग्र होता जा रहा है.

उपरोक्त विवेचन से एक बात बहुत स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर जाति की राजनीति के कतई पक्षधर नहीं थे क्योंकि इस से जाति मजबूत होती है. इस से हिंदुत्व मजबूत होता है जो कि जाति व्यवस्था की उपज है. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य तो जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था. डॉ. आंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे. यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे. वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे. इसी लिए जब तक उन द्वारा स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही. जब तक उसमें में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रही तब तक वह फलती फूलती रही. जैसे ही वह व्यक्तिवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया.

अतः यदि वर्तमान में विघटित दलित राजनीति को पुनर्जीवित करना है तो दलितों को जातिवादी राजनीति से बाहर निकल कर व्यापक मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा. जाति के नाम पर राजनीति करके व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि करने वाले नेताओं से मुक्त होना होगा. उन्हें यह जानना चाहिए कि जाति की राजनीति जाति के नायकों की व्यक्ति पूजा को मान्यता देती है और तानाशाही को बढ़ावा देती है. जाति की राजनीति में नेता प्रमुख हो जाते हैं और मुद्दे गौण. अब तक के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि जाति की राजनीति से जाति टकराव और जाति स्पर्धा बढ़ती है जो कि जातियों की एकता में बाधक है. इसी के परिणामस्वरूप दलितों की कई छोटी उपजातियां बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुश्मन हिन्दुत्ववादी पार्टियों से जा मिली हैं जो कि दलित एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. अतः इस खतरे के सम्मुख यह आवश्यक है कि दलित वर्ग अपनी राजनैतिक पार्टियों और राजनेताओं का पुनर मूल्यांकन करे और जाति की विघटनकारी राजनीति को नकार कर जनवादी, प्रगतिशील और मुद्दा आधारित राजनीति का अनुसरण करे जैसा कि डॉ. आंबेडकर की अपेक्षा थी. दरअसल अब देश को जातिवादी पार्टियों की ज़रुरत नहीं बल्कि सब के सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की ज़रुरत है, अन्यथा जातियां मज़बूत होती रहेंगी जिस से धर्म की राजनीति को पोषण मिलता रहेगा जो वर्तमान में लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है.     

एस. आर. दारापुरी
राष्ट्रीय प्रवक्ता
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट 

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