दिनेश दीनू
मोदी है तो मुमकिन है। आएगा तो मोदी ही। और फिर मोदी ने जनमत के हथियार से विपक्ष के वोटों पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी, वह भी उनके गढ़ों में घुसकर। जीत के बाद मोदी का पहला जो ट्वीट आया, उसमें उन्होंने कहा कि सबका साथ+सबका विकास+सबका विश्वास= विजयी भारत। मोदी अपनी चुनावी सभाओं और रैलियों में लगातार कहते रहे कि 2019 का आम चुनाव देश की जनता लड़ रही है। इसी बात पर उनका ट्वीट मोहर लगा रहा है। 2019 का चुनाव मोदी चुनाव रहा।
भारतीय जनता पार्टी का इस चुनाव में चेहरा नहीं था। मोदी खुद जनता से कहते रहे कि कमल के बटन को दबाओगे, तो मोदी के खाते में आपका वोट आएगा। और यही हुआ भी। यह चुनाव तमाम मुद्दों, आशा, आकांक्षाओं, असंतोष जैसे सारे मुद्दों को हवा करते हुए 'राष्ट्रवाद’ के नाम पर अंगद के पांव की तरह जम गया। मोदी का राष्ट्रवाद देश की जनता के दिल और दिमाग में उतर गया था, जिसे विपक्ष के नेता, भाजपा के भी नेता, राजनीतिक पंडित और भविष्यवक्ता तक नहीं पहचान पाए। 'घर में घुसकर मारा (पाकिस्तान के संदर्भ में), 'घर में घुसकर फिर मारेंगे’ जैसे बयान 'लौह वक्तव्य’ हो गए थे। पाकिस्तान को देश की आजादी के बाद जब-जब सबक सिखाया गया, देश की जनता उसके साथ गई।
किसानों की आत्महत्या, नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी 'राष्ट्रवाद’ के आगे नतमस्तक हो गए। भारतीय मतदाता भावनाओं में बहता है। उसे कितनी ही पीड़ा मिले, जब बात देशभक्ति की आएगी, तो वह उठ खड़ा होता है। मोदी के साथ यही मतदाता आ गया। उन्होंने एक रैली में कहा भी था कि 18 साल के मतदाता पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने वोट दें। इस बयान का विरोध हुआ, लेकिन देश का मतदाता इस मार्मिक अपील पर 'देशभक्त’ हो गया।
23 मई की झांकी 6 मई को ही दिख गई थी, जिस दिन लखनऊ में चुनाव था। 11 बजे दिन में हमारे घर की डोरबेल बजी। मुख्य दरवाजा खोला, तो देखा हमारा धोबी था। वह रविवार को धुले कपड़े लेकर आता है और धुलने वाले कपड़े ले जाता है। बाराबंकी के एक गांव से साइकिल से वर्षों से हमारे यहां आता है। हमने पूछा- वोट नहीं दिया क्या? उसने कहा- साब सुबह ही वोट डाल आया। हमने पूछा- किसको दिया? फख्र से उसने कहा- मोदी जी को। हमने पूछा- मोदी को क्यों, तो उसने जवाब दिया कि मोदी जी के हाथों में देश सुरक्षित है। उसकी आंखों में विश्वास की चमक थी।
यह विश्वास हमारे धोबी में ही नहीं था, बल्कि यह विश्वास देशवासियों के मन में घर कर गया था। तभी तो मोदी 303 (यानी भारतीय जनता पार्टी) और मोदी की गठबंधन सेना 346 सीटों तक पहुंच गई। 2014 में भाजपा के हिस्से में सीटें थीं 282 और गठबंधन की सीटें थीं 336। हमारे धोबी के चुनाव क्षेत्र से कोई और खड़ा था। उसने उस प्रत्याशी का नाम बताने में समय लगाया। बस उसे इतना पता था कि कमल के निशान का बटन दबाएंगे, तो उसका वोट मोदी के खाते में चला जाएगा। इसे मोदी का जादू नहीं कहा जा सकता। जादू में कुछ भी हो सकता है। परिणाम जादू के नतीजे नहीं हैं। यह मतदाता का, किसी के प्रति विश्वास का अंगद पैर है। मोदी के खाते में यही 'विश्वास’ आया है।
पर चुनाव परिणामों के बाद की स्थिति को भी समझना होगा। आम चुनाव के दरम्यान लोकतंत्र की आबोहवा में कटुता और कलह का जहर घोलकर सत्ता हासिल करने के जो राजनीतिक प्रयास हुए, उसका संदेश भी है कि देश के अगले पांच सालों का सफर कठोर, कंटीला और अंगारों से भरा रहने वाला है। 2019 के आम चुनाव में भाषा की जो मर्यादाएं तोड़ी गई हैं, उसके संकेत हैं कि लोकतंत्र के इर्द-गिर्द मंडराते खतरनाक इरादों की भूमिका भी तैयार हो चुकी है।
देश में सत्रहवीं लोकसभा के नए सदस्यों के संवैधानिक शपथ-विधि समारोह की पूर्व बेला में सबसे पहले तो महात्मा गांधी सलीब पर टंगे हैं। ...और नाथूराम गोडसे, भगत सिंह जैसे शहीदों की शहादत में नाम दर्ज कराने की कतार में खड़े कर दिए गए हैं। गोडसे महिमा-मंडन के साथ महात्मा गांधी की आलोचनाओं के सुनियोजित सिलसिले में इतिहास के पन्नों को फाडऩे के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।
मध्यप्रदेश के भोपाल से भाजपा के टिकट पर चुनी गईं प्रज्ञा ठाकुर द्वारा उम्मीदवारी के दौरान गोडसे की प्रशस्ति के बाद मोदी का यह कहना कि 'मैं दिल से उन्हें माफ नहीं कर पाऊंगा’ कुछ भी स्पष्ट नहीं करता। लेकिन मोदीजी को अपने इस दिल से कही बात को याद रखना होगा। नहीं तो मोदी के मुखारबिंद से छलकी राजनीतिक-विषाद की यह शब्दावली उनकी चुनावी मजबूरी के खाते में दर्ज हो जाएगी। क्योंकि महात्मा गांधी को आरोपों के कटघरे में खड़ा करने के प्रयास बखूबी चल रहे हैं। साफ-साफ कहा जाए, तो दो-मुंहापन और दोगलापन भारतीय राजनीति की विषाक्त अभिव्यक्ति का मुख्य हथियार रहा है। इस हथियार के सहारे नेता आम जनता को बरगलाने का काम अरसे से करते रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि नई पारी में मोदी गांधी-विचारों को सलीब पर टांगने के प्रयासों को कैसे रोकेंगे अथवा खामोश बने रहेंगे। 'एक बार फिर मोदी सरकार’ का नारा चरितार्थ हो गया है।
इस कार्यकाल में मोदी के सामने बड़ी चुनौतियां हैं, क्योंकि देश की जनता ने उन्हें दोबारा इसलिए मौका दिया है कि वह कुछ करेंगे। करना भी चाहिए। पिछले कार्यकाल में देश की जनता के सामने चित्र चला है कि लोकतंत्र की आस्थाओं के हनन के मामलों में मोदी सरकार का इतिहास साफ-सुथरा नहीं है। यह प्रचारित है कि पीएम के रूप में मोदी ने जिस प्रकार सरकार के कामकाज का संचालन किया, उसके कारण लोकतंत्र, संविधान और संघवाद की परिकल्पनाएं आहत हुई हैं।
चुनाव के दौरान अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों का उपयोग पहली बार देखने को मिला है। देखा जाए तो देश की विविधता, संस्कृति की साझी विरासत, लोकतांत्रिक संस्थाओं का उन्नयन लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत होती है। चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब चलता है। पर अब सत्ता के सिंहासन पर 'मोदी अगेन’ हैं। उनके सामने उन धारणाओं को तोडऩे का समय आ गया है, जो उनके खिलाफ बनाए गए या उन्होंने खुद गढ़े। 'टाइम’ मैगजीन ने 'इंडियाज डिवाइडर-इन-चीफ’ की जो उनकी छवि गढ़ी है, उसे अपने कामों से उन्हें धोना है। बताना है कि देश में डिवाइडर की कुसंस्कृति पनपने नहीं देंगे। देश एक है। कुछ भी नहीं बंटा है। देश में रहने वाला हर नागरिक जिस भी धर्म-संप्रदाय का हो, वह हिंदुस्तानी है।
कोई सत्ता में दस साल रहे, बीस साल रहे, पर उसे अपनी ऐसी छवि गढऩी चाहिए कि आने वाले वर्षों में वह सबके लिए पूज्य हो। गांधी के गुजरात से मोदी हैं। यह उन्हें समझना होगा। उन्हें यह भी समझना होगा कि विपक्ष की पराजय को अपनी तमाम कारस्तानियों पर जनता की मोहर लगाने की गलती न करें। इससे समस्याएं घटेंगी नहीं, बल्कि और बढ़ेंगी। जनता ने दोबारा मोदी में विश्वास जताया है, तो उसके गंभीर अर्थ हैं। अर्थहीन करने का खतरा नहीं उठाना चाहिए।
-दिनेश दीनू
मोदी है तो मुमकिन है। आएगा तो मोदी ही। और फिर मोदी ने जनमत के हथियार से विपक्ष के वोटों पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी, वह भी उनके गढ़ों में घुसकर। जीत के बाद मोदी का पहला जो ट्वीट आया, उसमें उन्होंने कहा कि सबका साथ+सबका विकास+सबका विश्वास= विजयी भारत। मोदी अपनी चुनावी सभाओं और रैलियों में लगातार कहते रहे कि 2019 का आम चुनाव देश की जनता लड़ रही है। इसी बात पर उनका ट्वीट मोहर लगा रहा है। 2019 का चुनाव मोदी चुनाव रहा।
भारतीय जनता पार्टी का इस चुनाव में चेहरा नहीं था। मोदी खुद जनता से कहते रहे कि कमल के बटन को दबाओगे, तो मोदी के खाते में आपका वोट आएगा। और यही हुआ भी। यह चुनाव तमाम मुद्दों, आशा, आकांक्षाओं, असंतोष जैसे सारे मुद्दों को हवा करते हुए 'राष्ट्रवाद’ के नाम पर अंगद के पांव की तरह जम गया। मोदी का राष्ट्रवाद देश की जनता के दिल और दिमाग में उतर गया था, जिसे विपक्ष के नेता, भाजपा के भी नेता, राजनीतिक पंडित और भविष्यवक्ता तक नहीं पहचान पाए। 'घर में घुसकर मारा (पाकिस्तान के संदर्भ में), 'घर में घुसकर फिर मारेंगे’ जैसे बयान 'लौह वक्तव्य’ हो गए थे। पाकिस्तान को देश की आजादी के बाद जब-जब सबक सिखाया गया, देश की जनता उसके साथ गई।
किसानों की आत्महत्या, नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी 'राष्ट्रवाद’ के आगे नतमस्तक हो गए। भारतीय मतदाता भावनाओं में बहता है। उसे कितनी ही पीड़ा मिले, जब बात देशभक्ति की आएगी, तो वह उठ खड़ा होता है। मोदी के साथ यही मतदाता आ गया। उन्होंने एक रैली में कहा भी था कि 18 साल के मतदाता पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने वोट दें। इस बयान का विरोध हुआ, लेकिन देश का मतदाता इस मार्मिक अपील पर 'देशभक्त’ हो गया।
23 मई की झांकी 6 मई को ही दिख गई थी, जिस दिन लखनऊ में चुनाव था। 11 बजे दिन में हमारे घर की डोरबेल बजी। मुख्य दरवाजा खोला, तो देखा हमारा धोबी था। वह रविवार को धुले कपड़े लेकर आता है और धुलने वाले कपड़े ले जाता है। बाराबंकी के एक गांव से साइकिल से वर्षों से हमारे यहां आता है। हमने पूछा- वोट नहीं दिया क्या? उसने कहा- साब सुबह ही वोट डाल आया। हमने पूछा- किसको दिया? फख्र से उसने कहा- मोदी जी को। हमने पूछा- मोदी को क्यों, तो उसने जवाब दिया कि मोदी जी के हाथों में देश सुरक्षित है। उसकी आंखों में विश्वास की चमक थी।
यह विश्वास हमारे धोबी में ही नहीं था, बल्कि यह विश्वास देशवासियों के मन में घर कर गया था। तभी तो मोदी 303 (यानी भारतीय जनता पार्टी) और मोदी की गठबंधन सेना 346 सीटों तक पहुंच गई। 2014 में भाजपा के हिस्से में सीटें थीं 282 और गठबंधन की सीटें थीं 336। हमारे धोबी के चुनाव क्षेत्र से कोई और खड़ा था। उसने उस प्रत्याशी का नाम बताने में समय लगाया। बस उसे इतना पता था कि कमल के निशान का बटन दबाएंगे, तो उसका वोट मोदी के खाते में चला जाएगा। इसे मोदी का जादू नहीं कहा जा सकता। जादू में कुछ भी हो सकता है। परिणाम जादू के नतीजे नहीं हैं। यह मतदाता का, किसी के प्रति विश्वास का अंगद पैर है। मोदी के खाते में यही 'विश्वास’ आया है।
पर चुनाव परिणामों के बाद की स्थिति को भी समझना होगा। आम चुनाव के दरम्यान लोकतंत्र की आबोहवा में कटुता और कलह का जहर घोलकर सत्ता हासिल करने के जो राजनीतिक प्रयास हुए, उसका संदेश भी है कि देश के अगले पांच सालों का सफर कठोर, कंटीला और अंगारों से भरा रहने वाला है। 2019 के आम चुनाव में भाषा की जो मर्यादाएं तोड़ी गई हैं, उसके संकेत हैं कि लोकतंत्र के इर्द-गिर्द मंडराते खतरनाक इरादों की भूमिका भी तैयार हो चुकी है।
देश में सत्रहवीं लोकसभा के नए सदस्यों के संवैधानिक शपथ-विधि समारोह की पूर्व बेला में सबसे पहले तो महात्मा गांधी सलीब पर टंगे हैं। ...और नाथूराम गोडसे, भगत सिंह जैसे शहीदों की शहादत में नाम दर्ज कराने की कतार में खड़े कर दिए गए हैं। गोडसे महिमा-मंडन के साथ महात्मा गांधी की आलोचनाओं के सुनियोजित सिलसिले में इतिहास के पन्नों को फाडऩे के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।
मध्यप्रदेश के भोपाल से भाजपा के टिकट पर चुनी गईं प्रज्ञा ठाकुर द्वारा उम्मीदवारी के दौरान गोडसे की प्रशस्ति के बाद मोदी का यह कहना कि 'मैं दिल से उन्हें माफ नहीं कर पाऊंगा’ कुछ भी स्पष्ट नहीं करता। लेकिन मोदीजी को अपने इस दिल से कही बात को याद रखना होगा। नहीं तो मोदी के मुखारबिंद से छलकी राजनीतिक-विषाद की यह शब्दावली उनकी चुनावी मजबूरी के खाते में दर्ज हो जाएगी। क्योंकि महात्मा गांधी को आरोपों के कटघरे में खड़ा करने के प्रयास बखूबी चल रहे हैं। साफ-साफ कहा जाए, तो दो-मुंहापन और दोगलापन भारतीय राजनीति की विषाक्त अभिव्यक्ति का मुख्य हथियार रहा है। इस हथियार के सहारे नेता आम जनता को बरगलाने का काम अरसे से करते रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि नई पारी में मोदी गांधी-विचारों को सलीब पर टांगने के प्रयासों को कैसे रोकेंगे अथवा खामोश बने रहेंगे। 'एक बार फिर मोदी सरकार’ का नारा चरितार्थ हो गया है।
इस कार्यकाल में मोदी के सामने बड़ी चुनौतियां हैं, क्योंकि देश की जनता ने उन्हें दोबारा इसलिए मौका दिया है कि वह कुछ करेंगे। करना भी चाहिए। पिछले कार्यकाल में देश की जनता के सामने चित्र चला है कि लोकतंत्र की आस्थाओं के हनन के मामलों में मोदी सरकार का इतिहास साफ-सुथरा नहीं है। यह प्रचारित है कि पीएम के रूप में मोदी ने जिस प्रकार सरकार के कामकाज का संचालन किया, उसके कारण लोकतंत्र, संविधान और संघवाद की परिकल्पनाएं आहत हुई हैं।
चुनाव के दौरान अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों का उपयोग पहली बार देखने को मिला है। देखा जाए तो देश की विविधता, संस्कृति की साझी विरासत, लोकतांत्रिक संस्थाओं का उन्नयन लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत होती है। चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब चलता है। पर अब सत्ता के सिंहासन पर 'मोदी अगेन’ हैं। उनके सामने उन धारणाओं को तोडऩे का समय आ गया है, जो उनके खिलाफ बनाए गए या उन्होंने खुद गढ़े। 'टाइम’ मैगजीन ने 'इंडियाज डिवाइडर-इन-चीफ’ की जो उनकी छवि गढ़ी है, उसे अपने कामों से उन्हें धोना है। बताना है कि देश में डिवाइडर की कुसंस्कृति पनपने नहीं देंगे। देश एक है। कुछ भी नहीं बंटा है। देश में रहने वाला हर नागरिक जिस भी धर्म-संप्रदाय का हो, वह हिंदुस्तानी है।
कोई सत्ता में दस साल रहे, बीस साल रहे, पर उसे अपनी ऐसी छवि गढऩी चाहिए कि आने वाले वर्षों में वह सबके लिए पूज्य हो। गांधी के गुजरात से मोदी हैं। यह उन्हें समझना होगा। उन्हें यह भी समझना होगा कि विपक्ष की पराजय को अपनी तमाम कारस्तानियों पर जनता की मोहर लगाने की गलती न करें। इससे समस्याएं घटेंगी नहीं, बल्कि और बढ़ेंगी। जनता ने दोबारा मोदी में विश्वास जताया है, तो उसके गंभीर अर्थ हैं। अर्थहीन करने का खतरा नहीं उठाना चाहिए।
-दिनेश दीनू
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