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25.2.21

निजी क्षेत्र को खुश करने की परंपरा बंद होनी चाहिए

संजय रोकड़े-

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के अजंड़े को लागू करने का बिड़ा अब दमखम के साथ उठा लिया है। आरएसएस का एकमात्र और सीधा सा सूत्र है कि देश के तमाम संसाधन चंद लोगों के हाथों में आकर सीमित हो जाए और उसके बाद अधिकांश जनता इन चंद लोगों की तरफ हसरत भरी निगाहों से देखती रहे।


गर ऐसा नही होता तो शायद वजीरे आजम यह बात कहने की हिम्मत नही जुटा पाते कि 'पब्लिक सेक्टर की सभी गैर रणनीतिक कंपनियों को प्राइवेटाइजÓ किया जाएगा। इसे ओर स्पष्ट तौर पर या सीधे- सीधे शब्दों में कहूं तो सरकार ने पब्लिक सेक्टर की करीब 300 कंपनियों को बेचने का मन बना लिया है।

काबिलेगौर हो कि पब्लिक सेक्टर की सभी कंपनियों को निजी हाथों में देने का विचार  देर सवेर ही मूर्त रूप लेता है तो इससे सरकार को करीब पांच खरब डॉलर (यानी 35-40 लाख करोड़ रुपए) के संसाधन निवेश के लिए आजाद हो जाएंगे।

हैरानी की बात नही है कि जिस तरह से नरेन्द्र मोदी कंपनियों को बेचने या निजी हाथों में देने की कवायद कर रहे है उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के दिन लदने वाले है और आने वाले समय में देश का भविष्य निजी हाथों में जाने वाला है।

हालाकि हम ऐसे किसी मध्यमार्ग का गवाह बन सकते हैं, जिसके हमराह बनकर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मिलकर देश की तरक्की को साकार कर सके लेकिन मोदी सरकार की नीति और नियत में साफ खोट दिखाई दे रही है। हम ऐसा इसलिए भी कह सकते है क्योंकि लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निजी क्षेत्र की भूमिका की जमकर सराहना कर अपनी मंशा को जाहिर कर दिया।

बताते चलूं कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए मोदी ने स्पष्ट कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र जरूरी है, लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। आज भारत मानवता की सेवा इसलिए कर रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र का भी सहयोग मिला है। बजट 2021 के अवसर पर यह कहकर मोदी ने न केवल धमाका मचा दिया बल्कि देश के सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौपने का अपना इरादा भी साफ कर दिया। मजेदार बात तो ये है कि मोदी के ऐसे कहने के एक हफ्ते से भी कम समय में स्टॉक मार्केट में लगभग 10 प्रतिशत का उछाल देखा गया।

प्रधानमंत्री की इस बात में कितनी सच्चाई है ये तो एक शोध का विषय हो सकता है क्योंकि कोई भी उद्योगपति अपने मुनाफे के मद्देनजर ही जनहित में सेवा का प्रकल्प उठाता है। उद्योगपति जनता की सेवा के लिए सरकार को किसी प्रकार की मदद करता है तो उसके एवज में एक नही, दो नही बल्कि सौ गुना वापस निकालने की जुगत में रहता है।

हालाकि भारत में निजी क्षेत्र की अब तक की यात्रा प्रधानमंत्री की बातों को कुछ हद तक सही साबित कर सकती है लेकिन पूरा सच सिर्फ यही नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका आज भी देश में कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। कोरोना महामारी का हमारा अनुभव भी इसकी तस्दीक करता है। हमने करीब से देखा है कि जिस ईमानदारी के साथ सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने का काम सार्वजनिक क्षेत्र ने किया वह तत्परता निजी क्षेत्र के लोगों में नही थी।

दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र को जान-बूझकर महत्वहीन बताया जा रहा है, जबकि सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में यह क्षेत्र बहुत आगे है। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है। आज भी जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी निजी क्षेत्र के किसी भी मैनेजर से कम काम नहीं करते। सुबह से लेकर देर शाम तक वे मेहनत करते हैं। फिर भी बाबूगीरी का दाग उन पर थोप दिया है। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) का ही उदाहरण लें। इसने पिछड़े क्षेत्रों को खूब संवारा है। हरिद्वार में ही जब भेल का संयंत्र लगाया गया था तब रेल पटरियों को खासा मजबूत बनाया गया। न सिर्फ वहां संयंत्र शुरू हुए बल्कि टाउनशिप बसाई गई। कुल मिलाकर, एक पूरा सामाजिक ढांचा तैयार किया गया। निजी क्षेत्र की कंपनियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। उनको तो सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे से मतलब होता है।

कोरोना मरीजों की तीमारदारी हो या विदेश में फंसे भारतीयों को वापस लाना, इस मामले में सरकारी उपक्रम ही सबसे आगे दिखाई दिए। इस बात बात में भी कोई शंका नही है कि आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में सरकारी क्षेत्र की कंपनियों ने ही देश की बुनियाद तैयार की थी जबकि निजी क्षेत्र तो पूंजी की कमी का ही रोना रोते रहे।

असल सवाल तो ये है कि आखिर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की छवि को आज इतना खराब क्यों बताया जा रहा है। आखिर क्यों यह मान लिया जाता है कि सरकारी नौकरी में आने के बाद लोगों में आराम तलबी बढ़ जाती है? गर इस नजरिएं से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का आंकलन किया जा रहा है तो फिर मोदी सरकार को भी निकम्मी करार दिया जा सकता है।

दरअसल सच कुछ ओर है और इस सच को छूपा कर ही मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी हाथों के हवाले करने की फिराक में है। मोदी कितना भी झूठ बोल ले, जनता को भ्रमित करते ले लेकिन निजीकरण के इस मॉडल में मुश्किलें ही मुश्किलें सामने आने वाली है।

इस बात को कोई नकार नही सकता है कि मोदी सरकार की गलत नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र 'क्रोनी कैपिटलिज्मÓ से जूझ रहा है। ऐसा उद्योगपतियों, सत्तारूढ़ नेताओं और नौकरशाहों के बीच सांठगांठ के कारण ही संभव हुआ है। सब कोई अपना हित साधना चाह रहा है।

इसे एक उदाहरण से समझे। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में विजय माल्या नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य थे और अपनी विमानन सेवा भी शुरू कर चुके थे। नतीजतन, माना यही जाता है कि अपने फायदे के लिए ही उन्होंने किंगफिशर के स्लॉट एअर इंडिया से 10 मिनट पहले तय करवाए, जिसका नुकसान सरकारी विमानन सेवा को उठाना पड़ा। अब इसी भ्रष्टाचार को शिखर पर पहुंचाने का काम नरेन्द्र मोदी कर रहे है।

सनद रहे कि अब तक मोदी सरकार प्रत्यक्ष रूप में देशी उद्योगपतियों पर मेहरबानी दिखा रही थी लेकिन अब वह खुलकर विदेशी उद्योगपतियों पर भी मेहरबान हो गयी है। एक विदेशी कंपनी का एक भारतीय एयरलाइंस पर कब्जा हो जाए, इसके लिए सरकार सेबी के नियमों में भी बदलाव करने को तैयार हो गयी है।
 
हम यहां बात कर रहे हैं जेट एयरवेज ओर एतिहाद के सौदे की। जेट एयरवेज की हालत बहुत खस्ता है। जेट में पहले से ही 24 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद चुकी एतिहाद ने निवेश के बदले जेट के सामने कड़ी शर्तें रख दी है। एतिहाद ने नरेश गोयल से अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी के आस-पास करने को कहा है। नियम के हिसाब से एतिहाद को भारतीय कंपनी के शेयरहोल्डर्स के लिए ओपन ऑफर लाना चाहिए लेकिन एतिहाद ऐसा नहीं चाहती है। वह जेट के लिए कोई गारंटी देने के लिए भी तैयार नहीं है।

इसमें मजेदार बात यह है कि मोदी सरकार ये सभी शर्ते मानने को तैयार है। सबसे कमाल की बात तो यह है कि एतिहाद जेट को आधी कीमत में खरीदना चाहता है। एतिहाद एयरवेज ने कर्ज में डूबी भारतीय कंपनी जेट एयरवेज को 49 फीसदी डिस्काउंट पर शेयर खरीदने की पेशकश की बावजूद इसके मोदी सरकार चाहती है कि कैसे भी यह सौदा हो जाए।

ऐसे ही देश के एयरपोर्ट के संचालन के मामले में मोदी ने अड़ानी पर खासी दरियादिली दिखाई है। अड़ानी जब इस व्यवसाय में आए थे तो इसकी एबीसीड़ी तक नही जानते थे, साफ शब्दों में कहे तो वे इस व्यवसाय में अनाड़ी ही थे बावजूद इसके मोदी ने अब देश के 6 हवाईअड्डों पर अडाणी समूह का कब्जा करवा दिया। ये कब्जा दस बीस साल नही बल्कि पूरे 50 साल तक के लिए करवाया गया है।

अड़ानी समूह को जिन हवाईअड्डों को 50 साल तक चलाने का अधिकार मिला है उनमें देश के छह प्रमुख हवाईअड्डे लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, मंगलूरु, तिरुवनन्तपुरम और गुवाहाटी है। मतलब इनका नीजिकरण कर दिया। मजेदार बात तो ये है कि इन हवाईअड्डों पर वित्तीय मामलों में अडानी ग्रुप का ही एकाधिकार होगा।

अब तो मोदी ने सरकारी संपत्ति को चुन चुन कर बेचने की कसम खा ली है। देश नहीं बिकने दूंगा का थोथा नारा देने वाले मोदी ने अब तो प्रण ले लिया है कि साल भर के अंदर तमाम अहम सरकारी उपक्रम बेच कर ही मानेगे। बैंक, गैस, पावर, पेट्रोलियम, बंदरगाह, इश्योरेंस कंपनी जैसे उद्यमों को चाहे वह मुनाफ में चल रही हो या घाट में इस बात से कोई लेना देना नही, बस बेचना है।

इस समय मोदी को महाभारत के योद्धा अर्जुन की तरह दिखने वाली मछली की आंख की तरह सिर्फ एक ही चीज नजर आ रही है और वह है हर कीमत पर सार्वजनिक उद्यमों को सेल करना। इस समय मोदी का एक ही लक्ष्य है सेल,सेल और सेल। आपको ये जानने का भी पूरा- पूरा हक है कि आखिर मोदी क्या क्या बेचने जा रहे है।

बताते चलूं कि मोदी सरकार इंडियन ऑयल कारपोरेशन (आईओसीएल) की तेल पाइप लाइन बेचने जा रही है। वेयरहाउस बेचे जाएंगे। भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड ( बीईएमएल) को बेचने की तैयारी है। एयर इंडिया की बिक्री होनी है। दो सरकारी बैंक बेचे जाएंगे।

देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल ) को बेचा जाएगा। नीलांचल इस्पात निगम की बिक्री होनी है। पवन हंस बिकेगा। बिजली के ट्रांसमिशन लाइन बिकेगी। गैस ऑथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) की गैस पाइप लाइन बेची जाएगी। राजमार्गों को बेचा जाएगा। भारतीय जीवन बीमा निगम में हिस्सेदारी बेची जाएगी। शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की बिक्री होगी। कंटेनर
कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया को बेचा जाएगा। आईडीबीआई बैंक में हिस्सेदारी बेची जाएगी।

सरकार के मालिकाने वाली लाखों एकड़ जमीनों को बेचने या लीज पर देने की फाइल भी तैयार है। इसके साथ ही नीति आयोग को अन्य कंपनियों की भी सूची तैयार करने को कहा है,जिसे बेचा जा सकता है। मतलब साफ है कि और भी बहुत कुछ है जिसे बेचा जाना है। बिक्री का काम वित्त वर्ष 2021-22 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।

ध्यान दिलाते चलूं कि पहली बार विनिवेश मंत्रालय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में बनाया गया था। तब यह तय किया गया था कि घाटे में चल रही कंपनियां ही बेची
जाएंगी। उस बात को कहे 17 साल गुजर गए है। अब भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानना है कि अब घाटे की कंपनी कोई खरीदना नही चाहता है इसलिए मुनाफा कमा रही सरकारी कंपनियों को बेचने में भी कोई हर्ज नहीं है। इस मामले में खास बात  ये है कि मोदी कई कंपनियों को औने पौने दामो में अपने हितैषियों को बेचने की तैयारी कर चुके है।

मसलन, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया। यह एक छोटी सी सरकारी कंपनी है। इसे 1988 में शुरू किया गया था। यह देश की सबसे बड़ी लॉजिस्टिक कंपनी है, जिसके वेयरहाउस और डिपो हर रेलवे रूट, हवाई रूट और जलमार्गों पर हैं। हर साल मुनाफा कमा कर सरकार को देती है पर सरकार इसे सौ फीसदी बेच कर मुक्त होना चाहती है।

इतने बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों को बेचने के पीछे सरकार का बड़ा ही हास्यास्पद तर्क है कि बेकार पड़ी संपत्ति या घाटे में चल रही कंपनियां सरकार के ऊपर बोझ हैं। यह वित्तीय घाटा बढ़ाने का कारण बन रही हैं। इन्हें बेचने से सरकार को कमाई भी होगी और हर साल होने वाले वित्तीय घाटे को भी कम किया जा सकेगा।

असल में वित्तीय घाटे को कम करने के मोदी के इस विचार पर थोड़ा संशय होता है। वो इसलिए कि गर वे वाकई इस घाटे को कम करना चाहते है तो फिर मुनाफे के उपक्रमों को नीजि हाथों में क्यूं सौपने जा रहे है। दरअसल मसला नीति और नियत में खोट का है। आखिर मोदी निजी हाथों पर इतना भरोसा क्यूं करना चाहते है।

वजीरे आजम मोदी की इस हठधर्मिता पर मुझे एक जाने माने अर्थशास्त्री जून रॉबिन्सन की वो बात याद आती है कि- गर सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ यदि निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया जाए तो सार्वजनिक क्षेत्र कतई सफल नहीं हो सकते है। इस देश में अब तक का अनुभव भी ऐसा ही रहा है। जहां-जहां निजी क्षेत्र का दखल हुआ, वहां-वहां से सार्वजनिक क्षेत्र को बाहर करने की कोशिशें तेज हुई।

इसमें कोई दो राय नही है कि कई सरकारी संस्थान ऐसे हैं जहां काहिली पसरी हुई है। मगर टूटे हुए मनोबल से यदि कर्मचारियों से काम लिया जाएगा तो निजी क्षेत्र की कंपनियां भी फायदा नहीं कमा सकती है। ऐसे में, मध्यमार्ग कहीं बेहतर जान पड़ता है। मोदी सरकार गर मारुति को मिसाल बनाए तो पीएसयू को बेचे बिना ही निजीकरण संभव है।

आखिर ये मारूति का मॉडल क्या है इसे समझते है। आप विनिवेश का मारुति मॉडल याद कीजिए। ये अब तक का सबसे कामयाब निजीकरण था। यह भारत सरकार और जापान की सुजूकी मोटर कॉरपोरेशन के बीच ज्वाइंट वेंचर था जिसकी शुरुआत अस्सी के दशक में हुई थी। यह अनलिस्टेड कंपनी थी। भारत सरकार इस कंपनी की बड़ी शेयरहोल्डर थी लेकिन सुजूकी को कंपनी पर नियंत्रण दिया गया, इसके बावजूद कि उसका स्वामित्व सिर्फ 26 प्रतिशत था।

1982 और 1992 में सुजूकी की शेयरहोल्डिंग बढ़ाई गई, पहले 26 से 40 प्रतिशत और फिर 50 प्रतिशत। लेकिन भारत सरकार, जिसका स्वामित्व लगभग आधा था, ने सुजूकी को और नियंत्रण सौंपा। बदले में कई रियायतों सहित बड़े निर्यात बाजार तक पहुंच और भारतीय प्लांट में ग्लोबल मॉडल्स का निर्माण संभव हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि इस ज्वाइंट वेंचर की कीमत जबरदस्त तरीके से बढ़ी। इसके बाद मास्टरस्ट्रोक की बारी थी। कंपनी ने 400 करोड़ रुपए मूल्य के राइट्स इश्यू निकाले और भारत सरकार ने सुजूकी के पक्ष में अपने शेयर छोड़ दिए।

अब देखिए- ज्वाइंट वेंचर ने महत्वाकांक्षाओं को आसमान छूने का मौका दिया। सुजूकी को कंपनी का नियंत्रण मिला, और पूंजी भी। इसके अलावा भारत सरकार को 'नियंत्रण छोडऩेÓ के बदले 1000 करोड़ रुपए मिले। उसने सुजूकी से कहा कि वह 2300 रुपए प्रति शेयर की कीमत पर पब्लिक इश्यू जारी करे। इसके बाद मारुति लिस्टेड हुई (और भारत की सबसे लोकप्रिय ऑटो कंपनी बनी) और भारत सरकार को शानदार रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट मिला, क्योंकि उसने स्वामित्व बरकरार रखा, सिर्फ नियंत्रण निजी कंपनी को सौंपा, वह भी थोड़ा थोड़ा करके। ज्वाइंट वेंचर के जरिए उसके पार्टनर का भी भाव बढ़ा।

मुश्किल को आसान कैसे बनाएं और दस साल में 300 बैंकों, कंपनियों का निजीकरण कैसे हो मारुति मॉडल की मिसाल लेकर किया जा सकता है। इसमें खास बात यह है कि सरकार शेयर न बेचकर भी नियंत्रण हस्तांतरित कर सकती है। धीरे-धीरे कंपनी से बाहर निकल सकती है और कंपनी को मजबूत भी कर सकती है।

गर मोदी इस तरह के मध्यमार्ग पर विचार नही करेगें और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बेचने या निजी हाथों में सौपने पर आमादा रहेगें तो वे बेहद असफल पीएम के तौर पर याद किए जाएगें। इसके साथ ही उन पर राजनैतिक स्तर पर यह आरोप लगाएं जाएंगें कि वे ठीक वैसा है करना चाहते है जैसे कोई अपने परिवार की कीमती चीजों को अपने गहरे दोस्तों या 'नव-उपनिवेशवादियोंÓ को बेच दे। ये कंपनियां ईस्ट इंडिया कंपनी का आधुनिक रूप है।
वे इन उपक्रमों को निजी हाथों में देने जाएगें तो विवादास्पद स्थिति बनगी। वैसे भी यह व्यक्तिपरक प्रक्रिया है। इसे अदालतों में आसानी से चुनौती दी जा सकती है और इस पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग सकते हैं। मोदी को इस बात का भी भान रखना होगा कि सार्वजनिक उद्यमों की हमें उन इलाकों में खासतौर से जरूरत है, जहां गरीबी पसरी हुई है।

लिहाजा इनको निजी हाथों में सौपने की बजाय सरकारी संस्थानों में पारदर्शिता लानी चाहिए और उनको जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। तभी वे सही तरीके से काम कर सकेंगे। रही बात निजी क्षेत्र की, तो इसे भी तवज्जो मिलनी चाहिए लेकिन उन जगहों पर जहां धनाढ्य वर्गों का वास्ता ज्यादा हो।

एक सर्वे के मुताबिक 90 फीसदी दिल्ली वाले प्रतिमाह 25 हजार से भी कम रुपये अपने परिवार पर खर्च करते हैं। इसका मतलब साफ है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए उन्हें निजी बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है।

सार्वजनिक क्षेत्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह बाजार में संतुलन बनाए रखता है और निजी क्षेत्र को मनमानी नहीं करने देता।
इसे हम ऐसा समझ सकते  है। अगर दिल्ली का सबसे बड़ा अस्पताल एम्स यदि कोई ऑपरेशन एक लाख रुपये में करता है, तो निजी अस्पताल चाहकर भी उसके लिए 10 लाख रुपये नहीं मांग सकता है। अधिक से अधिक तीन-चार लाख में ही उस ऑपरेशन को करना होगा।
असल में हमने भारत में निजी क्षेत्र को सब कुछ सौंप दिया तो देश में गरीबों का जीना दूभर हो जाएगा। अब तक का अनुभव यही साबित करता है कि बाजारीकरण की नीतियों ने देश में असमानता की खाई को काफी गहरी किया है।
 एक तरफ हम कम आमदनी वाले देशों में शामिल हैं, तो दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या के मामले में दुनिया में चौथे पायदान पर हैं। निजी क्षेत्र को अधिक महत्व देने से यह असमानता और बढ़ सकती है इसलिए निजी क्षेत्र को खुश करने की परंपरा बंद होनी चाहिए।


संपर्क-
संजय रोकड़े
103 देवेन्द्र नगर अन्नपूर्णा रोड़ इंदौर- 452009
मोबाईल 9827277518


लेखक द इंडिय़ानामा पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चला कर फ्रीलांस लेखन करते है।

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