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6.6.08

विजय रियल पत्रकार लगता है, बिल्कुल दबा कुचला, पैर में चप्पल पहने, जनता की बात करने वाला

बग्गा जी कहते हैं उर्फ़ रियल पत्रकार की छवि

मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ वहाँ एक बग्गा जी हैं जितेन्द्र बग्गा। क्राइम रिपोर्टर हैं. मेरे बारे में अक्सर वह कहतें हैं की विजय रियल पत्रकार लगता है. बिल्कुल दबा कुचला, पैर में चप्पल पहने जनता की बात करने वाला. वो ये बात मेरे लिए क्यों कहतें हैं मुझे पता है और यह मेरे लिए नया भी नहीं है. इससे पहले मैं भाषा में भी कुछ दिन रहा. वंहा के संपादक कुमार आनंद को भी मेरी यह छवि पसंद नहीं आई. उन्होंने इसे कस्बाई पत्रिकाओं वाली छवि करार दिया. उनके सामने भी जब मैं पहली बार गया था तो बिल्कुल उसी गेटअप में जैसे मैं हमेशा रहता हूँ. शर्ट बाहर किए, पैर में चप्पल पहने और पार्टी कांग्रेस में मिला जुट वाला बैग लिए हुए.

संपादक महोदय ने इसे कस्बाई छवि वाला पत्रकार का नाम दिया और साथ ही हिदायत भी की, यह नही चलेगा. खैर मेरी यह छवि संसद मार्ग पर बने उस बड़े से आफिस से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता था. लेकिन हरकतों में बहुत बदलाव नहीं आया और मुझे वंहा आगे काम कराने का मौका भी नहीं मिला.

मौजूदा संस्थान के संपादक से मैं पहली दफा बिल्कुल उसी गेटअप में मिला. बात करते करते वह कई बार मुझे ऊपर से नीचे तक देखें. मेरे झोले को देखें. इसलिए जब बग्गा जी यह बात कहते हैं तो मुझे कतई यह बुरा नहीं लगता. बस कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ की वास्तव में रियल पत्रकार की छवि क्या उसके कपडे और चप्पलें तय करतीं हैं. फ़िर मैं आपने ब्लॉग को खोलकर उन पत्रकारों की कहानी पढ़ता हूँ जिन्हें पुलिस माओवादी बता कर गिरफ्तार किया है. क्या उनकी भी यही छवि रही होगी. आख़िर आज आदमी का गेटअप क्यों यह तय कराने लगा है की वह कैसा होगा.

आज जब हम आम आदमी की बात करतें हैं तो आधिकंश लोगों इसे अजीब तरह से लेतें हैं. इस बने बनाये खाके से अलग हट कर कुछ करना चाहों तो यह व्यवस्था तुरंत आपको मावोवादी या नक्सली करार देती हैं. मीडिया में आकर कई अच्छे लोग भी मज़बूरी में या व्यवस्था से न लड़ पाने के कारन उसी के होकर रह जातें हैं. लेकिन अभी भी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस व्यवस्थ में रह कर भी इससे लड़ रहें हैं और ख़ुद को जिंदा रखें हैं.

मेरे सामने एक इसे भी पत्रकार का उदाहरण हैं. अनिल चमडिया ऐसे ही एक पत्रकार हैं जो शायद आने वाली पीढ़ी के हम जैसे युवा पत्रकारों का आदर्श बन सकतें हैं. जो ख़ुद भी ऐसे तमाम अनुभवों से गुजरें हैं. उनके यह अनुभव ही मुझमे यह साहस भरतें हैं की व्यवस्था से लड़ना कठिन तो है, नामुमकिन नहीं. इसके लिए बस तय करना होगा की आप किस तरफ़ बहना चाहतें हैं नदी के साथ या उसके विपरीत.

((विजय प्रताप के ब्लाग जंतर-मंतर http://jantarmantarloktantantar.blogspot.com/ से साभार। इस ब्लाग का मैं भी सदस्य बना हूं, पिछले दिनों। विजय भाई, शानदार लिखा है। शानदार जिया है। धारा के विपरीत जीने में ही मजा है। अगर हम सिस्टम के खिलाफ जीते हुए इंज्वाय करने लगे तो फिर जो भी मुश्किलें आती हैं, वो जानी पहचानी सी लगती हैं। ....यशवंत))

1 comment:

Anonymous said...

दद्दा,

बेहतरीन जानकारी फ़िर से एक बार। सच ओर कडुआ। सच्ची पत्रकारिता का ये ही हश्र होता है ओर चापलुसों कि चांदी। फ़िर भी पत्रकार सचेत नही। अरे भैये सुधर जाओ ओर अपनी जवाबदेही को समझ कर काम शुरु करो नहि तो वो दिन दूर नही जब विजय भाई सर्वत्र होगा ओर तुमलोगों की हालत कुत्ते से भी बदतर होगी।

जय जय भडास।