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2.8.08

किचिर-किचिर पर चक-चक


किचिर-किचिर पर लंबी चकर-चकर होगी,

किसकी फटेगी...........................खोपडी,

किसका निकलेगा.......................दम,

पता नहीं।

हम समझते रहे इसे भडास,

तो फ़िर हमारी ही फटेगी.................खोपडी,

हमारा ही निकलेगा............................दम।

(घबरा गए, कुछ और न फटेगा, कुछ और न निकलेगा)

बाप-दादाओं ने भी समझा था

इसे भडास, किचिर-किचिर,

तभी खाते रहे उनका................जूता,

ख़ुद भी और

खिलवाते रहे उनका.....................जूता,

(फ़िर घबराए...............)

हमें भी,

अब लगता है, इन आदतों से

हम भी डालेंगे..............मुसीबत में

अपनी आने वाली पीढ़ी को।

युगों-युगों से चलती आ रही

जूते खाने, पिटने और फ़िर

करने की...............किचिर-किचिर

की परम्परा को

निभाते रहेंगे।

वे डालेंगे....................मुसीबत में

हमें और हम

डलवाते रहेंगे.......................मुसीबत में

ख़ुद को

क्योंकि सत्य सामने है पर हम

दबाये बैठे हैं अपना....................हौसला

और कहते हैं

किचिर-किचिर युगों से चालू है.

4 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

डॉ० कुमारेन्द्र,साधुवाद स्वीकारें इतनी प्रखर और ईमानदार अभिव्यक्ति के लिये...
जय जय भड़ास

Anonymous said...

बहूत खूब, शानदार लिखा,
आपको बहुत सारी किचिर किचिर बधाई,
जय जय भड़ास

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ said...

भाईसाहब,चलिये क्रांति कर डालते हैं इस वेबपेज पर ही क्योंकि हमारे पूर्वजों के पास न तो ये पेज था और न ही इतना दम कि कुछ उखाड़ सकते इसलिये जूतों के पकवान खाते रहे। जितने भी मुसलमान हैं पहले उनकी फ़ाड़िये फिर क्रिश्चियन्स की और फिर पारसी बाबाओं की और फिर इसके बाद आर्यजन मिल कर द्रविड़ों की फाड़ेंगे और फिर हिन्दी बोलने वाले मराठी बोलने वाले की फाड़ेंगे और फिर भड़ास वाले मिलकर "मोहल्ला" वालों की फाड़ेंगे और फिर शूद्र मिल कर ब्राह्मणों की फाड़ेंगे और फिर शैव मिल कर वैष्णवों की फाड़ेंगे और फिर बूढ़े मिलकर जवान की फाड़ेंगे और फिर मादाएं मिल कर नरों की फाड़ेंगी और फिर बिल्लियां मिलकर कुत्तों की फाड़ेंगी और फिर...... एक दिन जब सबकी फट जाएगी तब एक गांधी मोची के रूप में जन्म लेकर कहेगा कि अगर इसी तरह सब एक दूसरे की फ़ाड़ते रहे तो सारी दुनिया की ही फट जाएगी....... अरे भाई कोई तो अहिंसा को कायरता, षंढत्व और नपुंसकता मत कहो... और फिर एक नाथूराम अकेला ही उस मोची गांधी की फाड़ देगा... ठांय..ठांय...धांय...धांय....
भड़ास ज़िन्दाबाद

हिज(ड़ा) हाईनेस मनीषा said...

एक बार फिर लग रहा है कि भड़ास पर क्रांति का बिगुल बज रहा है लेकिन ये क्रांति अगर आभासी दुनिया की वर्चुअल उठापटक नहीं है तो रियल वर्ल्ड में क्यों नहीं हो पाती या बस विचार दिमाग और दिल से निकलते ही आभासी संसार में आ जाते हैं असली दुनिया में जाने से विचारों की भी फट रही है क्या....... मुनव्वर आपा,आप हमेशा से वैसी ही दिख रही हैं।
जय जय भड़ास