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7.1.09

डरी हुई है धुप

कुछ अवसाद सा घुल रहा है मौसम में
धूप के साथ-साथ
धूप डरी हुई है
कुछ दिनों से

पहले धूप होती थी खिलंदड़ी
चाहे जहां आकर बैठ जाती थी
पक्की छत पर
छत की मुंडेर पर
कच्चे आंगन में, बरामदे में
पूरा घर और घर के बाहर
अपने आप उग आयी अयाचित घास पर

पहले धूप मांगती थी-
खुली खिड़की
खुला रोशनदान
हो सके तो छोटा सा कोई संद या मोखला
जब सबको था विश्वास
धूप नहीं छोड़ेगी साथ
मरते दम तक

पहले कोई नहीं करता था बात
धूप के बारे में
धूप भी नहीं चाहती थी करे कोई बात
उसके बारे में
जब धूप थी, हम थे
हम थे और हमारा संसार था
पर नहीं था कोई तो धूप और हम

पहले धूप बहुत गरम थी न ठंडी
बस गुनगुना करती थी तन को
तन पर पड़ी कमीज को
कमीज की जेब में रखे ठंडे प्रेम पत्र को
हम कभी खर्च नहीं करते थे बीस रुपया
कलेंडर को कि कब आएगा माघ-अगहन

डरी हुई धूप देखकर
फुसफुसा रहे हैं हम
हम जानते हैं लगातार समा रहा है
हमारे भीतर
डरी हुई धूप का डर
डर का अवसाद

हम समझ रहे हैं कि
डरी हुई है धूप
और डर बन रहा अवसाद
डर झांक रहा बार बार
मन से बाहर
जहां धूप इस तरह दिखती
कि केवल तन को गुनगुना करेगी
पर मन को भी गुनगुना कर देती थी

हाइवे पर खड़ी है धूप
और बेरियर पर टोल टैक्स मांगा जा रहा है उससे
जाने क्यों ठंडा हो गया है धूप का भेजा

पवन निशान्त

2 comments:

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

sir mafi chata hoon. darasal chouthi dunia ke phir se parkashit hone ki khabar ko main sabko dena chahta tha. aainda dtyan rakhonga. soory!

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

sir mafi chata hoon. darasal chouthi dunia ke phir se parkashit hone ki khabar ko main sabko dena chahta tha. aainda dtyan rakhonga. soory!