खबरिया चैनलों पर सेंसर की कैंची इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है ,विभिन्न चैनलों के कर्ता धर्ता इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण बता रहे हैं प्रधानमन्त्री कार्यालय से लेकर समाचार बुलेटिनों तक इस अतिक्रमण के ख़िलाफ़ संवाद किए जा रहे हैं लेकिन इन सबके बीच आत्म -मीमांसा की बात कोई नही कर रहा प्रश्न सेंसरशिप होने का या न होने का बाद में है ,पहले सवाल ये है की जिस अभिव्यक्ति पर अतिक्रमण की बात हो रही है,वो अभिव्यक्ति क्या है ?वो अभिव्यक्ति अगर राखी सावंत और उसके प्रेमी के मान -मनौवल के रूप में है तो शर्म है ,वो अभिव्यक्ति अगर देर रात प्रस्तुत किए जाने वाले अश्लील कॉमेडी शो के रूप में है तो भी शर्म है ,वो अभिव्यक्ति अगर दुनिया को ख़त्म कर देने वाले किसी फंतासी से जुड़ी है तो भी शर्म है अब आप अंदाजा लगायें बचता क्या है ?मुंबई हमले के बाद सरकार ने इस सेंसरशिप को लागू करने का मन बनाया,देश की जनता को आतंकवाद का चेहरा दिखाने वाले सारे चैनल साधुवाद के पात्र हैंलेकिन उस दौरान सिर्फ़ आतंक नही दिखाया गया ,कुछ चैनलों ने टी आर पी को लेकर घुड़दौड़ उस दौरान भी जारी रखी इंडिया टीवी उस दौरान एक आतंकवादी के साथ तथाकथित बातचीत का ब्यौरा निरंतर प्रसारित करता रहा ,सिर्फ़ इतना ही नही शहीद महेश काम्टे के एक पुराने विडियो का भी फुटेज प्रसारित कर दिया गया ,जिसमे वो गन्दी गालियाँ देते हुए दंगाईओं की भीड़ को खदेड़ रहे थे ,शहीदों का ये कैसा सम्मान ? मुंबई हमले के बाद तो हद कर दी गई जिस वक्त पुरा देश शहीदों की मौत पर विलाप कर रहा था ,उस वक्त इन चैनलों पर पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ा जा रहा था अगर सही शब्दों में कहा जाए तो जनता के भीतर पकिस्तान के ख़िलाफ़ दबे आक्रोश को संतृप्त किया जा रहा था हम मुंबई पर राज ठाकरे के विषवमन का वो दौर नही भूल पाते जब वो सिरफिरा, भाषाई आधार पर पुरे देश को विभाजित करने का खेल खेल रहा था ,ठीक उसी वक्त टीवी १८ ने मराठी भाषा में लोकमत का प्रसारण शुरू कर दिया
प्रश्न सेंसरशिप होने या न होने का बाद में है ,पहले नीयत और नीति बदलने की जरुरत है अब तक electronic न्यूज़ चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है उनमे से ज्यादातर हाई प्रोफाइल ड्रामा है ,जिनमे जो कुछ भी देश ,समाज और परिवेश में न्यूनतम स्तर पर है ,गायब है ख़बरों के नाम पर जो कुछ भी परोसा जा रहा है उनमे से ज्यादातर उनके लिए है जिनके लिए टेलीविजन ड्राइंग रूम में रखे किसी बड़े शोकेस का हिस्सा है गरीब की झोपडी गायब ,उसमे रखा बक्सा गायब और बक्से पर रखे टीवी से वो ख़ुद गायब
जिस वक्त ब्लॉग पर ये रिपोर्ट लिखी जा रही थी ,उस वक्त चैनलों पर लगातार सिर्फ़ और सिर्फ़ संजय दत्त के चुनावी समर में उतरने से सम्बंधित ख़बर दिखाई जा रही थी सच ये है कि खबरें नदारद हैं है ,गंभीरता गायब है ,अगर कुछ है तो केवल मनोरजन और उसको परोसने कि यथासंभव जुगत ,क्या यह कम आश्चर्य कि बात नही है कि दिल्ली के किसी पाश इलाके में देर रात अपने पुरूष मित्र के साथ घूम रही युवती के साथ बलात्कार कि ख़बर हफ्तों तक न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियाँ बनी रहती हैं ,लेकिन छत्तीसगढ़ के किसी गाँव में आदिवासी महिला के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार को पट्टी पर भी जगह नही देती जिस वक्त ये चैनल बोरवेल में फेस किसी बच्चे कि कहानी घंटों बयां करते हैं उस वक्त वास्तविक धरातल पर कोई समाचार नही होता ,उस वक्त उस बच्चे के जीवन और मौत के बीच चल रही रस्साकसी से जुड़ा शर्मनाक रोमांच ख़बर बन जाता है ख़बरों का वर्गीकरण देखिये ,दिल्ली में सड़क दुर्घटना में एक कि मौत -ख़बर ,वारंगल में सरकारी बस कि चपेट में आकर ६ कि मौत -ख़बर नही ,जिंदगी से तंग आ चुकी नशे में धुत्त मॉडल का सड़क पर आ जाना -ख़बर ,भूख और दरिद्रता से हारकर सोनभद्र के ननकू अगरिया की आत्महत्या -ख़बर नही , ibn7 से जुड़े मेरे एक पत्रकार मित्र कहते हैं 'हम विवश हैं ,हमें खबरों को हाई प्रोफाइल और लो प्रोफाइल के आधार पर चुनना पड़ता है ,लो प्रोफाइल की खबरें करने को साफ़ मनाही हैं आख़िर जो बिकता है वही दीखता है ,सच ही है अगर ख़बरों को बेचना है तो ताज पर हमले के दौरान की गई कार्यवाही को लाइव दिखाया जाना जरुरी है ,चाहे उसके वजह से बंधकों के ऊपर कोई भी आफत क्यूँ न आ जाए ,अभी अधिक दिन नही हुए जब बनारस में कुछ चैनलों के संवाददाताओं ने अतिक्रमण के आरोपी कुछ पटरी के दुकानदारों को पहले जहर की पुडिया दी और फ़िर उसे खाकर प्रदर्शन करने को कहा ,जहर खाने के बाद जब कुछ दुकानदारों की हालत बिगड़ने लगी तो ये सच सामने आया सर्वाधिक आपतिजनक ये है की ख़बरों को न सिर्फ़ पैदा किया जा रहा है ,बल्कि उनकी नीलामी भी की जा रही है
इन सब बातों का ये मतलब कतई नही है की सरकार को सेंसरशिप लागू करने की इजाजत देनी चाहिए ,तमाम अपवादों के बावजूद इन समाचार चैनल्स के तमाम पत्रकार बेहद विपरीत परिस्थितयों में समाचार संकलन का काम कर रहे हैं थकी हारी शिखा त्रिवेदी नक्सली महिलाओं से बिहार जंगलों में इंटरव्यू लेने पहुँच जाती है तो IBN का मनोज राजन बुंदेलखंड में भूख को जीता दिखाई देता है कोशी की बाढ़ पर ndtv के अजय सिंह की कवरेज को ऐतिहासिक न कहना बेईमानी होगी तीसरी आँख की वजह से हमारा लोकतंत्र निरंतर मजबूत हो रहा है ,राजनीति परिष्कृत हो रही है ऐसे में सरकार अगर समाचार चैनलों पर किसी प्रकार कभी सेंसर लागू करती है तो उसे आदर्श स्थिति पैदा करने की कवायद तो कदापि नही कहा जा सकता ,हाँ ये ख़ुद को बार बार कटघरे मैं खड़ा किया जाने के रक्षार्थ की गई राजनैतिक चालबाजी जरुर होगी इस बात का मतलब कत्तई ये नही है की ख़ुद की विवेचना न करें ,ख़बरों के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया हर कीमत पर छोड़ना होगा ,नही तो सरकार अपने दामन को पाक आफ रखने के लिए तिकड़मों का इस्तेमाल तो करेगी ही ,देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा भी हमें किसी मॉल की बिकाऊ सामग्री समझ कर आँखें मूँद आगे निकल लेगा
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