मेरा एक साथी नौकरी की तलाश में पिछले दिनों दिल्ली गया था। वह भी पत्रकारिता के क्षेत्र में ही अपने करियर की शुरुआत कर रहा है। उसने न सिर्फ़ दिल्ली की सड़कों की खाक छानी बल्कि कई मीडिया संस्थानों के भी चक्कर लगाये। वैसे उनकी नौकरी की तलाश तो पूरी नहीं हो पाई और उन्हें वापस भोपाल लौटना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक बड़ा ही दिलचस्प वाकया हुआ। हुआ यूँ कि वह घूमते-घूमते एक पत्रिका व्यूज़ ऑन न्यूज़ के कार्यालय जा पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात पत्रिका कि हेड से हुई। उन्होंने मेरे साथी से न सिर्फ़ आत्मीयता से बात कि बल्कि चाय नाश्ता भी कराया। इस दौरान बातचीत का क्रम चल निकला। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर काफी देर तक चर्चा होने के बाद जब बात मीडिया में नौकरी कि आई तो मोहतरमा ने मेरे साथी से कहा... काश तुम एक लड़की होते तो तुम्हे नौकरी के लिए इतना भटकना नहीं पड़ता। तब अचानक ही उसे फ़िल्म उम्राओ जान का वह गाना याद आ गया- अबके जनम मोहे बिटिया न कीजो। और मैडम के सामने ही उसके मुह से निकल गया- ...हे भगवान्...अबके जनम मोहे बेटवा न कीजो...
13.1.09
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3 comments:
good
bhai aisa mat bolo. but aapka dard main samjh sakta hoon
sahi keh rahe ho dost aaaj kal media me yehi ho raha hai .agar job chahiye ya phir tumhe ladki hona chahiye.agar ye nahi hai to media me tumhara koi godfather nahi hai to naukari ki aasha to chod hi do.aur ghar laut kar dusara kaam dhanda shuru kar dena chahhiye.aur naukari lag jaye to phir chaplusi karni bhi aani chahiye. aaaj media ka yehi sach hai.
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