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20.1.09

न्याय की खातिर

सूचना का अधिकार अपने अधिकार को लेकर एक बार फिर चर्चा में है। इस मुद्दे पर मुख्य सूचना आयुक्त और सुप्रीम न्यायाधीश आमने-सामने हैं। यानी की शीर्ष सत्ता इस एक कानून को लेकर भिड़ी हुई है। मामला बेहद पेचीदा है। सूचना आयुक्त का मानना है कि पद पर रहते हुए किसी भी व्यक्ति के पास मौजूद दस्तावेज निजी नहीं हो सकते वहीं सुप्रीम न्यायाधीश जजों की संपत्ति के मामले में उनके पास उपलब्ध सहायकों के दस्तावेज बेहद गोपन बता उसे सूचना अधिकार के दायरे में लाने से ही इंकार कर रहे हैं। सूचना का अधिकार लोकतंत्र में जनता को सर्वोपरि मानते हुए उसे प्रदत्त यह अधिकार उसकी महत्ता और इस व्यवस्था में उसके शीर्ष पर होने को रेखांकित करता है। यानी जो कुछ भी है वह जनता के लिए हैं। उसे जानने का अधिकार है कि लोकतंत्र के स्तंभ उसके लिए क्या सोच रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादा ही इस बात में है कि उसके तीनों स्तंत्र समान हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। इन स्तंभों के छोटे या बड़े होने की दशा में वह लोकतंक्ष नाम की इमारत का नक्शा ही बिगाड़ते हैं। सूचना का अधिकार अभी अपने शैशव काल में है। इन तीनों स्तंभों से यह उम्मीद की जाती है कि वह इसके जीवित रहने के लिए जरूरी खाद पानी मुहैया कराएं। लेकिन जिनके हाथों में इसकी जिम्मेदारी है वही आक्सीजन ट्यूब को काटने का काम कर रहे हैं। न्याया सरीखे सम्मानीय किसी भी पद पर रहने वाले किसी भी शख्स के लिए कामकाज में शुचिता और पारदर्शिता का होना बेहद जरुरी है। सूचना का अधिकार इसी पारदर्शिता को बनाए रखने का प्रयोजन मात्र है। अब अगर सम्मानीय न्यायाधीश महोदय इस पद पर रहते हुए किसी सूचना को व्यक्तिगत कह रहे हैं तो इस पर विचार होना ही चाहिए। यह तो ठीक वैसा ही जैसे पड़ोसी के घर भगत सिंह पैदा होने की कामना करना। महा न्यायपालिका की इच्छा तो यही है कि देश में कानून का राज कायम रहे। किताबों में दर्ज कानून की सत्ता सचमुच साकार हो, लेकिन सूचना अधिनियम के आडे आकर तो कमोबेश वह अपनी इस मंशा के विपरीत ही जाती दिखती है। अगर जजों की निजता के गोपन में सब कुछ सही है तो उसके उजागर होने में हर्ज ही क्या है। वैसे भी राजा और दंडाधिकारी के लिए जितना जरूरी ईमानदार होना है उससे ज्यादा जरूरी है ऐसा दिखना। वैसे यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट ने किसी भी सूचना की प्राप्ति के लिए 500 रुपये की फीस तय की थी। यह कदम सूचना अधिनियम के खिलाफ था। इस अधिनियम के मुताबिक यह फीस महज 10 रुपये होनी चाहिए थी। इस मामले को मैने खुद सूचना आयुक्त लखनऊ के यहां उठाया था। बाद में मुकेश केजरीवाल ने भी इस मामले में शिकायत दर्ज कराई थी। सूचना आयुक्त ने फैसला हमारे पक्ष में सुनाया था। अब फिर यह दोनों शीर्ष संस्थाओं आमने-सामने हैं।

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