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10.1.09

''भारतीयता की रिपोर्टिंग करना चाहता हूं''

संजय तिवारी
मैं अपने से ही पूछता हूं कि हम ऐसा क्या करना चाहते हैं जो मीडिया घराने हमें करने नहीं देते? अपने खुद के लिए मेरा जवाब है- मैं भारतीयता के लिए रिपोर्टिंग करना चाहता हूं. और यही एक काम ऐसा है जिसे भारतीय मीडिया घराने करने की इजाजत नहीं देते.
पिछले पंद्रह बीस सालों में मीडिया ने अपनी धारणा पूरी तरह से बदल ली है. यह बदलाव उस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा है जो देश में आया है. यह जुमला पुराना हो गया है कि हम दुनिया से अलग-थलग नहीं रह सकते. यही सच्चाई भी है. अगर एक व्यक्ति समाज से अलग-थलग नहीं रह सकता तो फिर एक देश दुनिया से अलग कैसे रह सकता है. लेकिन जैसे समाज में यह महत्वपूर्ण है कि उस व्यक्ति की हैसियत क्या है उसी तरह एक देश के लिए भी यह जानना बेहद जरूरी है कि जिस दुनिया में वह शामिल होने जा रहा है वहां उसकी अपनी हैसियत क्या है?
भारत ने अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए जिस एक बात का सबसे पहले बलिदान किया वह है भारतीयता. भाषा, भूषा, भेषज, भवन, कला, संस्कार हमने सबको खारिज करने का ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया. अघोषित रूप से हम उसपर बड़े जोर-शोर से काम भी करना शुरू कर दिया. मीडिया में जिन बदलावों की हम बात कर रहे हैं यह उसी ब्लूप्रिंट का हिस्सा है जिसका एकमात्र लक्ष्य है- भारतीयता का नाश. आज देश में मीडिया की ऐसी स्थिति हो गयी है कि वह एक कदम भी आगे बढ़ता है तो भारतीयता एक परत और रसातल में धंस जाती है. इसका एक दो उदाहरण आपको देता हूं.
१९९४-९५ में नवभारत टाईम्स ने निर्णय लिया कि वह अखबार के बैकपेज को सातों दिन सिर्फ फिल्मों से भरेगा. उसके पहले नवभारत टाईम्स का आखिरी पन्ना अलग-अलग फीचर पेज होता था. नवभारत टाईम्स ने यह निर्णय क्यों लिया होगा? मैंने यही सवाल उस दौर में नभाटा के संपादक रहे धर्माधिकारी से पूछा तो उन्होंने झल्लाते हुए कहा था- ''सुंदर चेहरे किसे अच्छे नहीं लगते."
बात सही है. अच्छे चेहरे किसे अच्छे नहीं लगते. जब मैंने यह सवाल पूछा था तो मैं भी नहीं जानता था कि यह सवाल मैं क्यों पूछ रहा हूं. लेकिन आज दस साल बाद मैं ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकता हूं कि मेरा सवाल सही था. आज हमारे मीडिया के पास मनोरंजन के नाम पर सिर्फ फिल्म और फिल्मों से जुड़ी गाथाएं ही हैं. कलाकार के नाम पर सिर्फ फिल्मी कलाकार टीवी के नमूने है. क्या हमने कभी सोचा कि यह देश नट-बहुरूपियों का देश है. यह सपेरों और कर्तब दिखानेवालों का देश है. मनोरंजन की जितनी विधाएं आपको भारत में मिलेंगी शायद ही दुनिया के किसी देश में मिलें. लेकिन एक फिल्म को पकड़कर हमने बाकी सबको छोड़ दिया.
एक शाहरूख खान या राखी सावंत की ब्राण्ड इमेज बढ़ाने के लिए हमने देश में थियेटर को रिपोर्ट करने की जहमत ही नहीं उठायी. पूंजी और तकनीकि का नशा हमारे दिलो-दिमाग पर ऐसा छाया कि हमने फिल्म को मनोरंजन के एकमात्र साधन के रूप में स्थापित कर दिया है.
इलेक्ट्रानिक मीडिया ने यह अपराध किया हो तो किया हमारे प्रिंट ने भी इस मामले में मास मर्डरर की भूमिका निभाई है. आईपीएल के दौरान चीयरलीडर्स को हमारे अखाबारों ने मुद्दा ही बना दिया था लेकिन लाखों कलाबाज और ज्यादा गुणकारी कर्तब दिखानेवाले कलाकार हमारी सड़कों पर भीख मांगते हैं. जिस पश्चिम की नकल करके हम फिल्मों को मनोरंजन का एकमात्र साधन बनाने में लगे हुए हैं उस पश्चिम ने अपने चीयरलीडरों अर्थात नटों को भी उसी तरह सहेज कर रखा है कि आप उन्हें किराये पर लेकर आते हैं. हम मीडिया के लोगों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की मनोरंजन को उद्योग बनाने की हमारी वकालत में हम अपनी ही देशज कला को कैसे खत्म करते जा रहे हैं.
आधुनिकता की अंधी और नासमझ दौड़ में हमारे नौजवान साथी ही नहीं पुराने पत्रकार भी ऐसे बह गये कि उन्होंने हर स्तर पर आधुनिकता का आंख मूंदकर समर्थन कर दिया. विरोध की कहीं कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ी. उल्टे अगर कोई इस बारे में बात करना चाहता तो उसे दकियानूसी करार दे दिया गया. पूरी पत्रकार बिरादरी आधुनिकता के ऐसे हीनभाव से ग्रस्त है जो अंततः भारतीयता का सत्यानाश करती है.
मनोरंजन का क्षेत्र तो मैंने सिर्फ एक उदाहरण दिया है. यही काम हमने अर्थ के क्षेत्र में किया है. शेयर बाजार और कंपनियों के अलावा इस देश में कोई और आर्थिक गतिविधि हो सकती है, हम कभी सोचते ही नहीं. अगर कोई गलती से भी सोच ले तो बाकी सारे लोग उसे इतना हीनताबोध से लाद देते हैं कि फिर दोबारा वह ऐसा सोचने की हिम्मत ही नहीं कर पाता. वह भी यही मान लेता है कि शेयर बाजार की रिपोर्टिंग की सच्ची आर्थिक रिपोर्टिंग है. इसी तरह हम शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, सरकार चारों ओर भारतीयता का विरोध कर रहे हैं. हम शिक्षा की रिपोर्टिंग करते हैं तो कभी नहीं सोचते कि हम किस शिक्षा की वकालत कर रहे हैं? भारत में शिक्षा की क्या कोई परंपरा रही है? अगर रही है तो वह क्या है? क्या हमारी रिपोर्टिंग से शिक्षा की वह परंपरा आगे बढ़ रही है या नष्ट हो रही है? हम चिकित्सा सेवाओं की रिपोर्टिंग करते हैं तो कभी इस बात का ध्यान नहीं रखते कि चिकित्सा और आधुनिक अस्पताल व्यवसाय में हमें किसका पक्ष लेना चाहिए? मैं हमेशा यही कोशिश करता हूं कि भारतीयता की रिपोर्टिंग करूं।

(लेखक संजय तिवारी हिंदी वेब के सबसे विचारवान पोर्टल विस्फोट.काम के संपादक हैं। इनके लेखन के लिए इन्हें हाल में ही मालवीय पुरस्कार से नवाजा गया है। पुरस्कार पाने के बाद संजय ने अनुरोध किए जाने पर ये आलेख खासकर भड़ास के पाठकों के लिए लिखा है)

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