अकबर इलाहाबादी ने अगर ये कहा था तो सोच समझ कर ही कहा होगाखेंचो ना कमानों को ना तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो और ज़ाहिर है कि देश में सरकार, सरकारी और भ्रष्टाचारी पर ये तोप यानी कि मीडिया भारी पड़ने लगी है। दरअसल बड़ा सवाल यह नहीं है कि मीडिया पर सेंसरशिप हो या ना हो बल्कि बड़ा सवाल यह है कि हो या क्यूँ ना हो ? फिलहाल बात यह है कि हमारी गजब की निकम्मी सरकार मीडिया का मुंह बंद करने के लिए गजब की इच्छा शक्ति दिखा रही है। ब्रोड कास्ट बिल के बहाने जिस तरह से सरकार मीडिया को अपना पालतू गुलाम बनाने की कोशिश में है वह सफल तो नहीं होगी यह पक्का है पर उसे शायद यह अंदाजा नहीं है कि इस सब के चक्कर में उसकी कितनी फजीहत होने वाली है।
मेरा सवाल है कि आख़िर ऐसा क्या किया है देश के न्यूज़ चैनल्स ने ? क्या सच बोलना अपराध है या दिखाना ? क्या अगर हाकिम निकम्मे बन कर सोते रहे और जनता की आवाज़ उन तक ना पहुंचे तो उसको बुलंद करना गुनाह है ? मुंबई हमलों में मीडिया पर जिस तरह से आतंकवादियों की अप्रत्यक्ष मदद करने का इल्जाम लगा है वह अपने आप में ही हास्यास्पद है....और फिर अगर यहाँ मीडिया दोषी है तो क्या वे अधिकारी, मंत्री और खुफिया एजेंसी के लोग दोषी नहीं हैं जिनकी अकर्मण्यता और उपेक्षा की वजह से यह सब हुआ ? क्या इसके लिए सरकार दोषी नहीं है ?दरअसल २६/११ के बाद जिस तरह से मुंबई और पूरे मुल्क की जनता सरकार और नेताओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई....वह सरकार के सरदर्द का सबब है।
मैं मानता हूँ कि कई जगह कई मामलों में मीडिया को विवेक से काम लेना होता है, मैं यह भी मानता हूँ कि उल जुलूल और गैर ख़बरीसामगी को ख़बर के तौर पर पेश करने से मीडिया की छवि ज़रूर गिरी है पर यह बताएं कि क्या अगर मुंबई हमले के बाद तीन दिन तक सारे अखबार, टीवी चैनल और वेब मीडिया लगातार लिखती और चीखती ना रहती तो
हमारे दोनों माननीय पाटिल इस्तीफा देते ?
क्या सरकार कभी पाकिस्तान पर इतना ज़बरदस्त दबाव बनाती ?
क्या हमारे वे मंत्री जो कहते रहते हैं कि देख रहे हैं, देखेंगे, दोषियों को छोड़ा नहीं जायेगा ....चुप रहते या फिर पड़ोसी के ख़िलाफ़ साहसी बयान देते ?
क्या ये पूरा मसला हमेशा की तरह एक दो हफ्तों बाद शांत हो कर अवचेतन में खो नहीं जाता ?
मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम ज़ाहिर तौर पर अपनी गलतियां भी स्वीकारें और अपने हक के लिए, अपनी स्वतन्त्रता के लिए अपनी तलवारें .....अपनी कलम हाथों में ले लें। हम पत्रकार हैं, हम जानते हैं कि हमें क्या करना है, हम अपनी गलतियां भी स्वीकारेंगे, हो सकता है कि हम कभी कोई बाबा या को जानवर ख़बर बना कर कभी दिखा दें पर हम कभी भी देश के ख़िलाफ़ नहीं जाते ..... ऐसा नहीं कि फालतू खबरें ग़लत नहीं हैं पर उस बहाने से मीडिया की स्वतंत्रता पर बुरी नज़र डालता है तो न तो हम यह बर्दाश्त करेंगे न ही यह लोकतंत्र का तकाजा है।
सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने की बात करती है...क्यूँ ? हमने कौन सा राष्ट्रीय संपत्ति को नुक्सान पहुंचाया है ? हमने क्या किसी राष्ट्रीय गोपनीयता के दस्तावेजों को लीक किया है ? क्या हम चैनल्स पर देश विरोधी बातें करते हैं ? और अगर ऐसा है तो क्यूँ नहीं सरकार हमें इसके लिए जेल में डाल कर हम पर राष्ट्र द्रोह का मुकदमा चलाती है ?दरअसल चूँकि जनता अब जागने लगी है और सरकार के ख़िलाफ़ अब खुल कर सड़कों पर उतरने लगी है....हम अब दिखाने लगे हैं की किस प्रकार जनता का नेताओं पर से विशवास उठ चुका है.....ये अच्छी तरह से जानते हैं कि जनता का सड़कों पर इस तरह से उतरना इनके लिए अच्छा संकेत नहीं है और इसलिए अब ये यह चाहते हैं कि आम आदमी वही देखे जो यह दिखाना चाहते हैं।पर इन सबको हम बताना चाहते हैं कि हम लोकतंत्र के चौथे खंभे की स्वतन्त्रता के लिए आखिरी सफलता तक लड़ाई लडेंगे .....
हम दूरदर्शन नहीं हैं और ना ही आप हमें कभी बना सकेंगे ! मीडिया पर सेंसरशिप लादने को तैयार सरकार क्या कहना चाहेगी अपनी सरकार में शामिल अपराधियों और दागियों के बारे में ? उस पर कोई रोक क्यूँ नहीं ? क्या कहेगी अपने लापरवाह अफसरों के बारे में या भ्रष्टाचार के बारे में .....? क्या कहेगी आख़िर क्या जवाब देगी ? देश की ८५% समस्याओं के जिम्मेदार नेता आज हम पर सेंसरशिप और नैतिकता की बात करते ना तो बहुत अच्छे लग रहे हैं ना ही महान सो बंद करें ये बकवास.....इससे पहले भी इस तरह की कोशिशें हो चुकी है पर इतिहास अपने आप सब कुछ कह देता है। मीडिया को कुचलने की जितनी कोशिश की गई है, वह उतनी ही ताक़तवर हो कर उभरी है, अज्ञेय ने एक कविता में लिखा था....
मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूलि सा, आंधी सा और उमड़ता हूँ
यह कोशिश है अपने ख़िलाफ़ उठने वाली किसी भी आवाज़ को अनसुना कर के सोते रहने की। आम आदमी को यह जानना चाहिए कि इस तरह की सेंसर शिप से सरकार अप्रत्यक्ष रूप से जन आंदोलनों की कवरेज़ पर भी रोक लगा देने का प्रयास कर रही है।तो याद रखियेगा ये आवाम की आवाज़ है, और आवाज़ ऐ खल्क - नगाडा ऐ खुदा है तो इसे छुपाना कम से कम किसी इंसान के बस की तो बात नहीं। हम जितना दबाये जायेंगे, हमारा स्वर उतना ही और मुखर होगा ! अंत में रामधारी सिंह 'दिनकर' की पंक्तियों के साथ बात को अभी विराम.....
दो में से क्या तुम्हे चाहिए
कलम या कि तलवार
एक भुजाओं की शक्ति
दूजा बल बुद्धि अपार
कलम देश की बड़ी शक्ति है
भाव जगाने वाली
मन ही नहीं विचारों में भी
आग लगाने वाली
जहाँ पालते लोग लहू में
हलाहल की धार
क्या चिंता यदि वहाँ
हाथ में नहीं हुई तलवार
मयंक सक्सेना
ज़ी न्यूज़
18.1.09
बोल कि लब आजाद हैं तेरे
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