अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
आज़ादी की लड़ाई केवल चुने हुए नेताओं ने ही नहीं लड़ी थी, बल्कि देश का हर नागरिक इसमें सम्मिलित हुआ था। अतः यह स्वाभाविक था कि स्वतंत्र भारत के शासन में देश के हर नागरिक का भी हाथ हो। इस दृष्टि से तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग ले चुके महापुरूषों ने देश की शासन व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नई नीतियां बनायीं और संविधान का निर्माण किया। हमने भी 26 जनवरी 1950 में लोकतंत्र को भारतीय संविधान के अन्तर्गत स्वीकार किया और देश को गणतंत्र का दर्जा दिया।
लेकिन यदि आज देखें तो क्या संविधान निर्माताओं की मेहनत सफल हो पायी है? क्या उनके सपने पूरे हो गए?शायद नहीं..! हमारा समाज जितना विभाजित आज है, उतना पहले कभी नहीं रहा। आज हम जुड़ने के बजाय बिखरे पड़े हैं। धर्म, राष्ट्रीयता और एकता की बातें पुरानी पड़ गई हैं और जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय और क्षेत्रीयता के आधार पर नई पहचानें सर्वोपरि हो गई हैं ।एक समय था जब हम अपनी सारी कमज़ोरियों, कमियों, ग़रीबी और गुलामी के बावजूद एक थे, परन्तु आज कोई यहां कहने का साहस नहीं करता कि जो भी हमें हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई , अगड़ी-पिछड़ी जातियां, उत्तर-दक्षिण, ग्रामीण-शहरी अथवा हिन्दी-अहिन्दी भाषियों में बांटने की कोशिश करता है अर्थात जो भी देश की एकता के विरूद्ध काम करता है, वह हमारे देश भारत का दुश्मन है। आज हमारे देश के नेता ही धार्मिक उन्माद फैलाकर अपना वोट बैंक बनाते हैं। जाति के आधार पर चुनाव लड़ते हैं। चुनाव जीतने के बाद इन्हे संसद और विधान सभाओं में जगह मिलती है, सरकार बनती है और संसदीय लोकतंत्र चलता है। यही कारण है कि लोकतंत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय एकता, एक राष्ट्रीय भावना के निर्माण का एक संगठित भारतीय समाज की पहचान बनाने का हमारा उद्देयश् पूरा न हो सका।अब प्रश्न यह उठता है कि आखि़र हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे लिए ऐसी व्यवस्था क्यों चुनी?मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि दास को अपने स्वामी की हर बात आदर्श लगती है। वह वैसा ही बनना चाहता है। पश्चिम देशों की गुलामी में सदियों तड़पने के बाद यह स्वाभाविक था कि हम अपने मालिकों के देश शासन शैली और संस्थाओं की ओर आकृष्ट होते तथा इन्हें ही सर्वोत्तम और अनुकरणीय मानते। आज़ादी के संघर्ष के दिनों में भी राष्ट्रीय आन्दोलन के नायकों की मांग रही थी कि भारतीयों को भारत में भी वे सभी अधिकार व अवसर मिले जो अंग्रेज़ों को अपने देश में प्राप्त थे और वैसा ही संसदीय व्यवस्था स्थापित हो जैसा ब्रिटेन में था, पर ऐसा हो न सका।
दरअसल, आज़ादी का अर्थ होना चाहिए भारत के प्रत्येक गांव में पीने योग्य पानी, भूख से मुक्ति और बीमार पड़ने पर चिकित्सा की व्यवस्था किन्तु गणतंत्र के 59 वर्ष पूरे होने के बाद भी देश में एक लाख से अधिक गांव ऐसे हैं जहां पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। आज भी लगभग 30 प्रतिशत भारतीय निर्धनता की रेखा तले जीते हैं। लाखों को दो जून की रोटी भी नहीं मिल पा रही है। करोड़ों लोग रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। आज भी स्कूल, चिकित्सा, मकान और अन्य बुनियादी सुविधाओं से करोड़ों लोग वंचित हैं।
आखि़र यह कैसी विडंबना है। लोकतंत्र का आधार मानव जीवन का मूल्य और व्यक्तियों के बीच समानता को माना जाता है, किन्तु हमारा सामाजिक जीवन और चिंतन आज भी सामंतवादी हैं । आज भी मनुष्य के जीवन की अलग-अलग कीमतें लगती हैं। कहीं एक बच्चे का प्रतिदिन का खर्च 500 रूपये है तो कहीं मात्र 200-300 रूपये में आदिवासी माताएं अपने बच्चे को बेच डालती हैं। आखिर क्यों हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय का जो वायदा किया गया था वो आज 59 साल बाद भी पूरा नहीं हुआ? लगभग 9 फीसदी वार्षिक आर्थिक प्रगति दर का लाभ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में ही क़ैद है। गरीब किसान की उपजाऊ भूमि बिना उसकी मर्जी के छीन कर सेज को दी जा रही। सूचना क्रांति और उदारीकरण से शहरों में बढते रोजगार के अवसर भी ग्रामीण नौजवानों की बेरोजगारी कम नहीं कर पा रहे हैं। हरित क्रांति और अनाज के भरे भंडार भी लाखों किसानों को आत्महत्या करने से नहीं रोक पाएं। रोजगार देना तो दूर नई आर्थिक नीति में सब्जीवालों और खुदरा दुकानदारों तक के रोजगार छीनने का इंतज़ाम कर लिया गया है। स्वास्थ्य सेवाओं पर अरबों रूपया खर्च होने के बाद भी देश की 56 फीसदी महिलाएं व 79 फीसदी बच्चे रक्त़ की कमी से पीङित हैं।
आखिर क्यों....? अरबों रूपये खर्च करने वाले खुफिया तंत्र और लाखों थानों से गृह मंत्रालय तक फैले पुलिसिया जाल के बावजूद देश में आतंकवादी छिपे रहते हैं,और खतरनाक वारदातों को अंजाम देने के बाद साफ बचकर निकल जाते हैं। नक्सलवाद बंगाल से शुरू होकर झारखंड, उङीसा, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र तक फैल चुका है। सीबीआई, आर्थिक अपराध निरोधक विभाग, निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायलय तक का पूरा तंत्र बिछा है,फिर भी भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पाया जा रहा। बङे-बङे घोटालों में लिप्त ताकतवर लोगों का ये एजेंसियां बाल भी बांका नहीं कर पाती, आखिर क्यों....? सच तो ये है कि गणतंत्र के 59 साल बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और समानता जैसे मुद्दों पर रहनुमाओं द्वारा किए गए वायदे केवल थोथे नारे ही साबित हुए हैं।
बहरहाल, देश में संकट केवल राजनैतिक व्यवस्था का नहीं, बल्कि राष्ट्र चरित्र का भी है। इस व्यवस्था में जो मन सुहाती कहते हैं पुरस्कृत होते हैं और जो सच्ची बात कहने अथवा किन्हीं मूल्यों की रक्षा करने का साहस करते हैं वे तिरस्कृत होते हैं, आज पैसा, कुर्सीं सत्ता, पद और उपाधियों की लड़ाई ही सब कुछ हो गई है। देश के सांसद पैसे पर बिकने लगे हैं। हद तो यह है जनता के लिए प्रश्नों को भी पैसे लेकर पूछते हैं। सबके सब पैसे व शोहरत के लालची हो गए हैं। चाहे इसके लिए देश भाड़ में जाए। यहां तक कि इन्होने ‘पवित्र’ संसद को भी नहीं बक़्शा! इसकी मर्यादाओं का ख्याल भी न रखा। यदि ऐसा ही होता रहा और हम इसी संवैधानिक, राजनीतिक व्यवस्था से चिपके रहे तो निश्चित ही हमारे लोकतंत्र का लोप हो जाएगा और भारतीय गणतंत्र नष्ट…! इन्हें बचाना है तो व्यवस्था और उसे चलाने वाले दोनों को बदलना होगा। लोक मानस को जगाना होगा। जन-जन को उठना होगा, और प्रत्येक नागरिकों को स्वंय विपक्ष और लोकपाल बनना होगा। हर भारतीय को देश के प्रति अपने कर्तव्यों को याद करना होगा, तब जाकर हम कहीं स्वतंत्र व गणतंत्र होने की आशा कर सकते हैं। और सच पूछे तो जब तक सत्ताधारी और उसकी नौकरशाही सारी योजना और नीति अपने लाभ को केन्द्र में रखकर बनाते रहेंगे,तब तक विकास का यही भौंडा स्वरूप हमारे सामने आता रहेगा। हर राष्ट्रीय पर्व और सेमिनार या सम्मेलनों में इन सवालों पर गत 59 सालों से लाखों बार बहस हो चुकी है और आज भी हो रही है, पर इन बहसों में हिस्सा लेने वाले दिल से नहीं ज़ुबान से बोलते हैं। इसलिए उनके वक्तव्यों के बाण निशानों पर नहीं लगते,इर्द-गिर्द टकराकर गिर जाते हैं। जिनके पास ठोस और मौलिक विचार हैं, सफल अनुभव हैं, कुछ कर गुज़रने का जज़्बा है, उनके पास अपनी बात सत्ताधीशों तक पहुंचाने के माध्यम नहीं है,मंच नहीं है, साधन नहीं है, और जो माध्यम,मंच या साधन उसके पास मीडिया के रूप में मौजूद है,वो किसी और काम में व्यस्त है।
बहरहाल, बेशुमार सवालों से घिरे होने के बावजूद हमारा गणतंत्र आगे बढ रहा है। कम से कम ऐसा लिखने और बोलने की छूट तो हमें मिली है। यही क्या कम है। और एक दिन वह भी ज़रूर आएगा जब हमारी बातें आवाज़ बनेगी और आवाज़ नीतियों का रूप लेंगी। तब देश के सौ करोड़ से भी ज़्यादा चेहरे उसी हर्षोल्लास से अपने घरों में गणतंत्र दिवस को त्योहार के रूप मनाएंगे जैसे परेड में भाग लेने वाले हज़ारों लोग राजपथ पर चलते हुए मनाते हैं। यह सम्भव है, क्योंकि इसी सदी में कई देशों के जनता व हुक्मरानों ने ऐसा कर दिखाया है। इसलिए हम भी इस गणतंत्र दिवस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आगे बढने का संकल्प लेंगे।
22.1.09
हम वास्तव में गणतंत्र हुए हैं...?
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