हम शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले, सिर्फ रहते ही नहीं, काम भी करते हैं। कोई सब्ज़ी बेचती है,कोई झाड़ू पोछा बर्तन करती है, कहीं मकान बनाने का काम मिल जाता है, तो कहीं बोझा उठाने का। कोई छोले-भटूरे बेचता है, तो कोई चाकू तेज़ करता है। कभी दुकान में काम कर लेते हैं, तो कभी दफ्तर में, कभी फैक्टरी में। कोई दिन भर कूड़ा बीनता है, तो कोई रात भर चौकीदारी करता है। क्योंकि घर रहे या ना रहे, काम तो करना ही पड़ेगा। बिना पसीना बहाये पेट कैसे भरेगा…? फिर भी हमारे काम की कीमत नहीं। मुश्किल से दिन भर में 50-100 कमा लेते हैं। अब उसी में किराया दो, बच्चों को पढ़ाओ। क्या यह संभव है…? शादी-ब्याह या बीमारी के खर्च की तो बात ही अलग है। उस वक़्त तो कमाई भी नहीं है, और ऊपर से मालिक की डांट,गुण्डों का ख़ौफ़ और स्कूल में भी नीची निगाहों से देखते हैं। मानो बड़ा एहसान कर रहे हों।
क्या सही में हम धरती पर बोझ की तरह हैं कि हर कोई हमें शहर से निकालना चाहता है…? क्या हमारी वजह से ही नदी मैली होती है, बीमारी फैलती है, कुकर्म बढ़ता है, और सारे मोहल्ले में सड़न की बू आती है…? जज कहते हैं कि सड़क पर हमारे रिक्शा और भैंस की वजह से अड़चन है। अधिकारी कहते हैं कि ज़मीन महंगी है, इसलिए बस्ती खाली करो। मंत्री कहते हैं कि मुझे वोट दो, मैं तुम्हें नोट दूंगा। और अख़बार वाले कहते हैं कि हमारे वोट की वजह से ही भ्रष्ट लोग सत्ता में आते हैं। क्या यह सारी बातें सच हैं…?
सोचिए शहर में हमारा क्या हाल होता होगा, जहां पीने की पाईप नहीं,नाली नहीं, जहां बिजली औने पौने आता हो, जहां एक बारिश में सारी बस्ती डूब जाती हो, जहां वैसे ही मच्छर हर रात को काटते हैं, पानी मटमैला पीते हैं, और निकासी की कोई जगह ना हो, वहां तो हम ही रहते हैं। वहीं हमारा रिक्शा है और हमारी रेहड़ी, वहीं हम दूसरों का कूड़ा बीनते हैं और दवाखाना में दवाई नहीं मिलती है। तो मार तो हमीं पर पड़ रही है ना…? और कौन सा हम ईंधन जला रहे हैं कि गर्मी फैल रही है…? बमुश्किल थोड़ा सा मिट्टी का तेल मिलता है, या लकड़ी बटोर कर लाना पड़ता है जिसपर दो जून की रोटी बनती है। काम पर जाते हैं तो कौन हमारे लिए एयर कंडीशन गाड़ी लेकर खड़ा है…? वही चप्पल चटकाओ या साईकिल का पैडल घुमाओ। दूर जाना है, और जेब भारी हो तो बस में धक्के खाओ। और किसके घर में कारखाना चल रहा है जिससे काला धुंआ निकल रहा है…? सारी करतूत अमीरों की और सारी गलती फकीरों की।
बस बहुत हो गया। हम सारे समाज काम करते हैं। शहर चलता है तो हमसे। फिर भी शहर की हर कमी के लिए हमें ही ज़िम्मेदार क्यों ठहराया जाता है…? चोरी होती है घर में तो पकड़ी जाती है पोछा वाली या चौकीदार। और दिन-दहाड़े आम सड़क पर लाखों की काली गाड़ी फुटपाथ पर बैठे हमारे जैसों को कुचलती हुई चली जाती है तो पुलिस नज़र फेर लेती है। हमारे वोट से चुना हुआ नेता बिल्डरों के इशारे नाचता है। कब तक चलेगा यह सब…? हम सीधी-सादी ज़िंदगी जीने वालों को कब तक सतायेंगे वो जिनका पूरा खाने पर भी पेट नहीं भरता…? कब तक चलेगा यह सब…? कब तक...? आखिर कब तक......?
नोट:- यदि आप को भी कुछ कहना है, तो बस अब कह डालिए। कब तक इसे आप अपने सीने में क़ैद रखेंगे….? हम इस कॉलम के ज़रिए आपकी बातों को उन तक पहुंचाएंगे, जिन तक आप इसे पहुंचाना चाहते हैं। हमें leaksehatkar@gmail.com पर मेल करें।
10.1.09
मेरी भी सुन लो ....
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