लेखकों में आलोचना बर्दाश्त करने का मददा होना चहिए- बहस के लिए
आखिर लेखक अपने को विशिष्ठ क्यों मानता है। अगर वह किसी की आलोचना कर सकता है तो उसे भी अपनी आलोचना बर्दाश्त करने का माददा होना चाहिए। व्यक्तिगत संबंधों में इसको लेकर कड़वाहट नहीं होनी चाहिए। यही साहित्य का लोकतंत्र है। हमें इस लोकतंत्र को बिना पूर्वाग्रह के मजबत करना चाहिए। पिछले दिनों पाखी में प्रकाशित मेरी एक कविता को लेकर कई लोगों ने आपत्ती की। उनका कहना था कि यह कविता किसी लेखक विशेष पर केंद्रित है। कुछ लेखकों ने तो पाखी के संपादक और मालिक को फोन कर भी अपनी आपत्ती जाहिर की। साहित्य के लोकतंत्र में हर किसी को अपनी आपत्तियां जताने का हक है। लेकिन प्रश्न यह है कि जब कोई रचनाकार किसी लेखक विशेष को ध्यान में रखकर कहानी या कविता लिखता है तो पाठकों की उसमें दिलचस्पी क्यों बढ जाती है ? आखिर क्यों साहित्य की दुनिया में इसकी सुगबुगाहट बढ जाती है और कानाफूसी होने लगती है? आखिर क्यों लोग किसी रचना को रचना की तरह नहीं पढते हैं? उसका कुपाठ क्यों करते हैं और उसमें किसी व्यक्ति विशेष का अक्श क्यों ढूंढने लगते हैं? आखिर उस रचना में व्यक्त प्रवृत्तियों पर लोग क्यों नहीं बात करते? आखिर ऐसी रचना छपने पर लोग क्यों नहीं बात करना चाहते हैं? आखिर लेखक समुदाय अपनी आलोचना क्यों नहीं बर्दाश्त करता? क्या लेखक विशेष के मन में कोई अपराधबोध काम करता है और वह ऐसी रचनाओं से घबराता है?ये सवाल इसलिए उठाए जा रहे हैं कि पिछले कुछ वर्षों से साहित्य की दुनिया में इस तरह की घटनाएं घटने लगी हैं। कुछ वर्ष पहले प्रसिद़ध कहानीकार उदय प्रकाश ने रामसजीवन की प्रेमकथा कहानी लिखी तो लोगों ने यह प्रचारित किया कि यह कहानी गोरखपांडे पर लिखी गयी है। जब पालगोमरा का स्कूटर कहानी छपी तो यह प्रचारित किया गया कि यह कहानी विभूतिनारायारण राय पर लिखी गयी है। इसे लेकर काफी विवाद भी हुए और दोनों लेखकों के संबंध भी कटु हुए। क्या किसी रचना को रचना की तरह नहीं पढा जाना चाहिए? रामसजीवन की प्रेमकथा या पालगोमरा का स्कूटर क्या केवल गोरख पांडे या रब्बी की कहानी कहती है? क्या इन लिखकों की निजी कथा में समाज ओर समय की व्यथा नहीं छिपी हुयी है? लेकिन हिन्दी साहित्य समाज को इस पर आपत्ती है। हिन्दी साहित्य सबकी आलोचना कर सकता है पर वह अपने लेखक की आलोचना नहीं बर्दाश्त कर पा रहा। यह लेखक की निजी कुंठा और भडास है जो वह अपनी रचना में व्यक्त करता है। अगर देखा जाए तो साहित्य अपने आप में रचनात्मक भड़स है। आप किसी बात घटना या प्रवृत्ति से असहमत हैं,कोई चीज आपको परेशान कर रही है,उदवेलित करती है,उसे आप अभिव्यक्त करना चाह रहे हैं इसीलिए आप लिख रहे हैं।दूसरा महत्वपूर्ण सवाल है कि एक लेखक सिकी रचना में खुद को पात्र बना सकता है तो वह किसी लेखक को पात्र क्यों नहीं बना सकता? वह अपने घर के सदस्यों,पडोसियों और समाज के लोगों को पात्र बनाता है तो फिर किसी लेखक विशेष को क्यों नहीं? क्या लेखक समाज का हिस्सा नहीं है? क्या वह कोई पवित्र चीज है? क्या उसमें दुर्गंण नहीं है? क्या वह अपनी कमजोरियों से नहीं जूझता? क्या उसके भीतर दो तरह के व्यक्तित्व नहीं होते? इलियट जिसे एस्पीलीट पर्सनालटि कहते हैं । बाल्मीकि डाकू नहीं थे, पर उन्होंने रचना की। क्या मेघदूत का चरित्र कालिदास खुद नहीं थे। नगार्जुन की प्रसिद़ध कविता है - कालिदास सच सच बतलाना तुम रोये या अज रोया था। क्या शेखर अज्ञेय नहीं हैं। जब लेखक खुद को पात्र बनाता है तो वह उसकी सीमाओं और अंतरविरोधों को रेखांकित करता है,अपनी जददोजहद को सामने रखता है। दरअसल लेखक कोई भी पात्र बनाते समय,वह उस पात्र की प्रवृत्तियों को सामने रखता है जो समाज के आम लोगों में दिखायी देती है। वह सामान्यीकरण करता है। अगर रचना सामान्यीकरण करती है तो और भी अर्थपूर्ण हो जाती है और अगर वह ऐसा नहीं करती तो खराब रचना है।दुर्भाग्य से आज हिन्दी में रचना पर नहीं व्यक्ति पर बात होती है। कृति को नहीं कृतिकार को सम्मानित किया जा रहा है। साहित्य अकादमी के पुरस्कार इस बात के प्रमाण हैं। यह पुरस्कार कृति को दिया जाता है,पर दुर्भाग्यवश हर साल कृतिकार को दिया जा रहा है।गोविंद मिश्र,अमरकांत और कमलेश्वर को निसंदेह पुरस्कार मिलने चाहिए पर उनकी श्रेष्ठ कृतियों को मिलने चाहिए थे। इन तीनेां लेखकों ने जब श्रेष्ठ साहित्य लिखा तब अकादमी पुरास्कार नहीं मिले पर बाद में कमजोर रचनाओं को पुरस्कार मिले।साहित्य में व्यक्तिवाद हावी है। इसलिए आज रचनाकार बडे हैं पर उनकी रचनाएं छोटी हैं। प्रेमचंद का व्यक्तित्व गोदान से बना है,रेणु का व्यक्तित्व मैला आंचल से बना है। यशपाल का झूठा सच और हजारीप्रसाद का अनामदास का पोथा तथा मुक्तिबोध का अंधेरे में ,जैनेन्द्र का त्यागपत्र से। पर समकालीन साहित्य में ऐसी बडी कृतियां सामने नहीं आ रही हैं। अपवाद स्वरूप कुछेक कृतियां हैं पर आलोचना का फोकस कृतियों पर नहीं है। आज के रचनाकारों का प्रेाफाइल बडा है पर रचना छोटी है। दर्जनों पुस्तकों के प्रकाशित हो जाने पर भी रचनाकार स्थापित नहीं हो पाता है। उसे पाठकों का प्यार नहीं मिल पाता है।कारण यह है कि रचना को जो सम्मान मिलना चाहिए वह हिन्दी में नहीं मिल पाता है। संपादकीय दृष्टिकोण पर फोकस नहीं है वह भरती की रचनाएं छापते हैं या फिर लौटा देते हैं , वे उसपर लिखकों के साथ कोई विमर्श नहीं करते,रचनाओं पर अपनी राय नहीं देते। इसलिए रचनाओं का ना तो संपादन ठीक से हो पाता है और ना चयन ही। शायद रचना को गोण रखने के कारण ही हिन्दी जगत को इसतरह के चटखारे में ज्यादा दिलचस्पी है कि कौन सी रचना किस पर लिखी गयी,किस को पटखनी दी गयी। या किसकेा धूल चटा दी गयी। कई लेखकों ने धमकाने के अंदाज में लेखकों संपादकों को फोन किया। थेाडी सी आलोचना होने पर बोलचाल बंद कर दी,नाराजगी मोल ले ली। लोगों की जड कटनी शुरू कर दी। सूचियों से और लेखेां से नाम हटाने लगे। कम से कम ऐसी क्षुद्रता का परिचय तो लेखकों को नहीं देना चाहिए पर दुख की बात है कि आज यह सब हो रहा है।इसका एक कारण यह भी है कि लेखक पुरस्कार,विदेशयात्रा,दूतावासों से संबंध ,प्रकाशकों का आगा पीछा करने ओर लोकार्पण पर ज्यादा ध्यान देते हैं। वे अपनी आत्ममुग्धता के शिकार हैं। उसे लगता है कि वह कोई कहानी या कविता लिख देगा तो बडी क्रांति हो जाएगी,देश में भूचाल आ जाएगा। वह पाखंड और अंतरविरोंधों का शिकार होता जाता है। जीवन जगत के पेचोखम में कई बार समझौते करने पडते हैं अपनी आजीविका के लिए पर उनमें इसकी स्वीकारोक्ति नहीं है। वह तो खुद को क्रांतिकारी बताना चाहता है। ऐसे में कोई उसकी ओर ईशारा करता है तो लेखक तिलमिला जाता है। और अपनी आलोचना के विरूद़ध अभियान चलाने लगता है।दरअसल हिन्दी साहित्य का पूरा ढांचा अभी पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं बन पाया है।भारतीय समाज की जो कमियां और अंतरविरोध है वह इसमें देखे जा सकते हैं।इधर का हिन्दी साहित्य ब्राहमणवाद ,बर्चस्ववाद,जातिवाद,समूहवाद,क्षेत्रवाद,लिंगवाद का शिकार है। यद़यपि कई लेखक इस सबसे लड रहे हैं पर वे साहित्यके सत्ता विमर्श में शामिल नहीं हैं। वहां मठाधीशों की जमात है।लेकिन जिस तरह हमें अपने समाज और परिवार में जीना होता है उसी तरह साहित्य में भी जीना होता है। खंडित आदर्शों के साथ एक नये आदर्श की कल्पना लेकर,इसमें ही रचना का पुनरनिर्माण छिपा है।यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। प्रेमचंद ने मोटेरामशास्त्री कहानी लिखी तो उसे भी व्यक्ति केंद्रित कहा गया और मुकदमा तक कियागया था। पर आज उसी कहानी पर नाटक होते हैं तो यह सोचाजाना चाहिएकि वह किस पर लिखा गयाहै। कम से कम लेखकों को खुद अपनी छवि किसी रचना में नहीं ढूंढनी चाहिए और इसपर प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करनीचाहिए।कुछ दिन पहले जब मेरी कहानी आउटलुक में छपी तो लेागों ने यह प्रचारित किया कि यह मैंने किसी मित्र पर लिखी है। नतीजा यह हुआ कि हमदोंनों में काफी समय यक खठास रही। आखिर जब मैं अपनी कहानी में अपनी कमजोरियों को सामने रख सकता हूं तो दूसरी रचनाओं में लेखकों को पात्र क्यों नहीं बना सकता । मेरे लेखे वह पात्र महत्वपूर्ण है लेखक नहीं। लेखक से मेरे संबंध सामान्य रहने चाहिए। लेखक विशेष को इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। आखिर हम दूसरों की तारीफ कर सकते हैं तो आलोचना क्यों नहीं। इतनी सहिष्णुता तो होनी ही चाहिए। क्या आडवाणी जी,लालजी या मनमोहन सिंह पर कविता कहानीलिखी जाए तो क्या वे इसी तरह प्रतिक्रिया करेंगे। नागार्जुन ने कविता लिखी थी-आओ रानी हम ढोएंगे पालकी,यही हुयी है राय जवाहरलाल की। आखिर लेखक अपने को विशिष्ठ क्यों मानता है। अगर वह किसी की आलोचना कर सकता है तो उसे भी अपनी आलोचना बर्दाश्त करने का माददा होना चाहिए। व्यक्तिगत संबंधों में इसको लेकर कड़वाहट नहीं होनी चाहिए। यही साहित्य का लोकतंत्र है। हमें इस लोकतंत्र को बिना पूर्वाग्रह के मजबत करना चाहिए।
10.1.09
लेखकों में आलोचना बर्दाश्त करने का मददा होना चहिए- बहस के लिए
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