-शंभूनाथ शुक्ल-
आठ अप्रैल को मौसम विज्ञान विभाग ने कहा था कि इस साल मानसून वक्त से पहले आ रहा है, बारिश अच्छी होगी। लेकिन ढाई महीने बाद 24 जून को वही मौसम विभाग कह रहा है कि मानसून डिले है और बारिश भी इस साल कम होगी। मौसम विभाग की किस भविष्यवाणी को सही माना जाए यह समझ से परे है। यूं भी अपने यहां लोग अक्सर मजाक में कहते ही हैं कि अगर किसी रोज मौसम विभाग दिन में खूब चटख धूप खिलने की भविष्यवाणी करे तो कृपया घर से निकलते वक्त छाता जरूर साथ रखिए क्योंकि कभी भी बारिश हो सकती है। हमारे महान वैज्ञानिकों की समझ पर वाकई तरस आता है।
मानसून की चाल भांपने में मौसम विज्ञान विभाग से यह चूक कोई पहली बार नहीं हुई है, हर साल वो ऐसी ही चूक करता है। फिर भी मौसम विज्ञान विभाग पर करोड़ों रुपया स्वाहा किया जा रहा है। याद करिए 2004 में भी मौसम विभाग ने ठीक इसी तरह यू टर्न लिया था। उस साल भी यह विभाग मार्च से ही रटने लगा था कि इस वर्ष मानसून अच्छा रहेगा और बारिश खूब होगी। लेकिन उसका यह अनुमान धरा का धरा रह गया और बरसात सामान्य से काफी कम हुई थी। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि वह भी चुनावी साल था। इससे एक शुबहा यह भी पैदा होता है कि कहीं ये चूक मौसम विभाग अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए तो नहीं करता।
यूं मौसम विभाग जिस तरह की समझ के तहत मौसम की भविष्यवाणियां करता है उसमें ऐसी चूक स्वाभाविक है वरना जो बात किसान अपनी सहज बुद्धि से जान लेते हैं उसे मौसम विभाग क्यों नहीं जान पाता? जून के तीसरे सप्ताह में भी जब पारे की रफ्तार न थमी और वह 45 पार करने लगा तो अचानक मौसम विभाग की नींद खुली और घोषणा कर दी कि अल नीनो और आइला के कारण मानसून डिले हो गया है, अब वह पंद्रह दिन बाद आएगा। लेकिन ठीक इसके उलट किसान अप्रैल में ही ताड़ गए थे कि इस साल बारिश के दिन अच्छे नहीं आने इसीलिए खरीफ की बुआई को लेकर वह कोई खास उत्साहित नहीं दिखा। यहां यह बताना दिलचस्प होगा कि आम के बाग के ठेके फरवरी तक पूरे हो जाते हैं।
पर इस साल अमराइयों के ठेकों के बाबत किसानों ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया था क्योंकि माघ पूस में ही पारे की रफ्तार से वे ताड़ गए थे कि इस साल असली दशहरी नहीं मिलने वाला। इसकी वजह है कि बगैर मानसूनी फुहार के आम पकता नहीं। मानसून की रफ्तार का अंदाज उन्होंने दिसंबर और जनवरी की ठंड से लगा ली थी। जिस बात को किसान छह महीने पहले समझ गया था उसी बात को समझने में हमारे मौसम वैज्ञानिकों ने महीनों लगा दिए।
यह हमारी उसी तथाकथित वैज्ञानिक सोच का नतीजा है जिसके चलते हम अपने परंपरागत ज्ञान के बजाय उन मुल्कों के निष्कर्षों पर यकीन करते हैं जिनके यहां मौसम की चाल हमारे देश के सर्वथा प्रतिकूल है। हम भूल जाते हैं कि अल नीनो या आइला का असर वहां पड़ेगा जहां आमतौर पर मौसम पूरे साल रौद्र रूप धारण किए रहता हैं, जहां हमारे यहां की तरह षडऋतुएं नहीं होतीं।
हालांकि हमारे यहां के मौसम और कृषि वैज्ञानिक षडऋतुओं की हमारी परंपरागत समझ को स्वीकार नहीं करते। लेकिन अगर ऋतुएं छह नहीं होतीं तो हम न तो वसंत जान पाते न शरद और न ही हेमंत। हमारे ज्ञान के वैशिष्टय का अंग्रेजों ने सरलीकरण कर दिया था और ऋतुएं घटाकर तीन कर दी गईं तथा दिशाएं चार बताई गईं। लेकिन फिर भी हमारे किसान अपने दिमाग में षडऋतुओं और दश दिशाओं का दर्शन पाले रहे जिसके बूते वे अपने मौसम की चाल को करीब साल भर पहले ही भांप जाते हैं। हमारे सारे त्योहार अंग्रेजों के मानसून की तरह नहीं हमारे अपने षडऋतु चक्र से नियंत्रित होते हैं। इसीलिए वे अपने निर्धारित समय पर ही आते और जाते हैं। अल नीनो या आइला जैसे अवरोध यहां कभी नहीं रहे लेकिन सूखे को हमारे किसानों ने खूब झेला है इसीलिए उन्होंने अपने अनुभव और आकलन से बादलों की गति को नक्षत्रों के जरिए समझने की कोशिश की और वे सफल रहे।
वर्षा के स्वागत में तमाम मंगलगीत और ऋचाएं लिखी गईं हैं। कालिदास ने अपने ऋतु संहार में वर्षा का वर्णन करते हुए लिखा है- वर्षा ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह प्रेमीजनों के चित्त को शांत करती है। पूरे भारतीय समाज में वर्षा के स्वागत की परंपरा है, सिर्फ किसान ही नहीं हर व्यक्ति यहां वर्षा के लिए व्याकुल है। चौदहवीं शताब्दी के मशहूर सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने बरसात की शुरुआत आसाढ़ से बताई है-
चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, साजा बिरह दुंद दल बाजा।
धूम साम धौरे घन आए, सेत ध्वजा बग-पांत दिखाए॥
खडग बीज चमकै चहं ओरा, बुंद बान बरसहिं घनघोरा।
ओनई घटा आन चहुं फेरी, कंत उबार मदन हौं घेरी॥
दादुर मोर कोकिला पीऊ, गिरै बीज घट रहे न जीऊ।
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा, हौं बिन नाह मंदिर को छावा।
अदरा लागि, लागि भुईं लेई, मोहि बिन पिउ को आदर देई॥
जायसी ने भी वर्षा को प्रेमीजनों से ही जोड़ा है। लेकिन वर्षा हमारी समृद्धि और खुशहाली से भी जुड़ी है। अगर वर्षा रूठ जाए तो आसन्न विपदा को रोका नहीं जा सकता। इसीलिए राज्य को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वर्षा न होने पर राजा आने वाली विपदाओं से लड़ने की युक्ति सोचे।
मानसून शब्द अंग्रेजों ने गढ़ा था। हिंद महासागर और अरब सागर से आने वाली हवाएं मानसूनी कहलाती हैं। आम तौर पर मई के आखिरी दिनों से ये उठने लगती हैं और हिमालय की चोटियों से टकरा कर ये फिर वापस लौट आती हैं और मैदानी इलाकों में ये बरस पड़ती हैं। इन्हीं के समानांतर बंगाल की खाड़ी से भी ऐसी हवाएं उठती हैं और बंगाल व छोटा नागपुर के पठारी इलाकों में बरसती हैं। अल नीनो का मतलब है वे हवाएं जो प्रशांत महासागर से उठती हैं और गर्म हो जाने के कारण वे बरसती नहीं। इन हवाओं का हिंदुस्तान की सरजमीं से कोई ताल्लुक नहीं है।
बंगाल की खाड़ी में हवाओं के विक्षोभ से जो पिछले दिनों तबाही आई थी उसे वैज्ञानिकों ने आइला का नाम दिया है। इसी आधार पर मौसम विभाग का कहना है कि बंगाल की खाड़ी से मानसूनी हवाएं उठी ही नहीं। अब ये कितनी विरोधाभासी बातें हैं। बंगाल की खाड़ी से मानसून ज्यादा विचलित नहीं होता क्योंकि हमारे यहां असल बारिश दक्षिण पश्चिमी मानसून की वजह से होती है जिसका बंगाल की खाड़ी से कोई लेना देना नहीं है।
चूंकि भारत में किसान सदियों से इसी बारिश पर ही निर्भर हैं इसलिए वे इसकी चाल को पहचानने में कभी भूल नहीं करते। उन्हें पता रहता है कि जब जेठ के महीने में मृगशिरा नक्षत्र तपेगा तभी बारिश झूम कर होगी। गर्मी के मौसमी फल यानी तरबूज और खरबूजे भी उसी वक्त पकेंगे जब बैशाख और जेठ में लू चलेगी। लू की गरमाहट आम में मिठास पैदा करती है लेकिन पकेगा वह तब ही जब मानसून की पहली फुहार उस पर पड़ेगी। जायद की पूरी फसल लू पर निर्भर करती है। लेकिन इसे हमारे वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं।
1 comment:
हम अपनी समृद्ध और साइंटिफिक परंपराओं पर गर्व करना तो दूर, उसे जानना तक नहीं चाहते, यह शर्मनाक है। आपका यह लेख पढकर पश्चिम की ओर हर बात के लिए देखने वाली नई पीढ़ी की आंखें खुल जानी चाहिए।
आपसे आगे भी इसी तरह के आलेख की उम्मीद करेंगे।
शुभकामनाएं
विनय प्रताप
बेंगलोर
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