हाल ही मे सितम्बर सरस सलिल के अंक मे छपी मेरी रचना "ये केसा सच का सामना" मे पाठकों का ख्याल करते हुए पूरी भड़ास नहीं निकाल पाया. विदेशी टीवी सीरियल "द मोवमेंट आफ ट्रूथ" की तर्ज पर स्टार प्लस पर चल रहा "सच का सामना" क्या आम लोगो की जिंदगी पर भारी पड़ रहा है? यह एक बड़ा सवाल है. टीवी को देखकर एक पति देवता को पत्नी ने हकीकत बताई तो उसे बर्दास्त नहीं हुआ और फासी का फंदा लगाकर अपनी जान दे दी, दुसरे एक मामले मे जब पत्नी ने कहा की एक बेटा उसका नहीं है तो वह आग बबूला हो गया और ब्लेड से वार कर पत्नी को मोत की दहलीज पर पंहुचा दिया. पत्नी अस्पताल मे है और पति जेल मे. दरअसल ये रील लाइफ को रियल मे खेल रहे थे. इस सीरियल पर खूब हंगामा जारी है. दिल्ली से लेकर मुंबई तक. हाईकोर्ट मे रिट भी. देखा जाये तो हंगामे की जरूरत भी क्या है. जो लोग खुद ही अपनी इज्जत को सरेबाजार कर रहे है तो फिर किसी को आपत्ति क्यों? उनको तो पहले ही मालूम है वहा केसे सवाल होंगे. उन पर कोई दबाव नहीं है. ज्यादातर सवाल शादी से पहले और बाद के संबंधो को लेकर होते है. मसलन.... आपने अब तक कितनी लड़कियों से संबध बनाये क्या उनके नाम याद है? क्या आपसे मीलने वाला हर शख्स आपसे संबध बनाना चाहता है? बहुत सवाल है जो आपके वजूद को हीला सकते है. सवाल यह है की इससे कोन सा अच्छा सन्देश जनता को जा रहा है? जनहित कहा है? यदि केवल मनोरंजन है तो उसके बहुत से विकल्प है. जिनका लोग जमकर इस्तेमाल भी कर रहे है. सभी हम सब.......न जाने केसे केसे..........वेसे लोगो कोई भी खतरनाक खेल रियल लाइफ मे न खेले तो अच्छा है. जीवन में कुछ बातो का गोपनीय रहना ही बहतर होता है. वरना तूफान को आना ही है. अब यदि लोग सीरियल से प्रेरणा लेकर हत्या/ आत्महत्या जेसे कदम उठाते है तो इसको समाज के लिये सुखद परीणाम नहीं कहा जा सकता. धारा-३७७ पर भी हंगामा है. चिंता न करे आने वक्त मे कही एसा ना हो की पुलिसकर्मी एकांत मे दो लोगो को आपतिजनक हालत मे पकडे और वो झट से ३७७ की कॉपी दिखा दे. डी.एल के साथ ये रखना भी जरूरी न हो जाये ? ...... नितिन सबरंगी.
7.9.09
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