हिन्दी का साहित्य संसार करवट बदल रहा है, धड़ाधड़ हिन्दी लेखिकाएं अपनी आत्मकथा लिख रही हैं, कहीं ये कथाएं अंशों में आ रही हैं तो कहीं किताब के रूप में। यह हिन्दी की नयी बदलती स्थिति है। हिन्दी में स्त्री आत्मकथा का लंबे समय से अभाव रहा है। हिन्दी के आलोचकों के लिए यह एकदम नयी परिस्थिति है। हिन्दी की आलोचना मर्द की आत्मकथा की अभ्यस्त रही है, उसे स्त्री की आत्मकथा में कभी दिलचस्पी नहीं रही, स्थिति यह रही है कि हिन्दी भाषी लेखिकाएं परिवार की रक्षा के नाम पर लिखने तक से परहेज करती रही हैं, ऐसे में स्त्री आत्मकथा का बाजार में आना सचमुच में सुखद और ऐतिहासिक घटना है।
स्त्री आत्मकथा को मर्द आत्मकथा की तरह न तो लिखा जाता है और न पढ़ा जाता है। स्त्री आत्मकथा एक स्वतंत्र विधा रूप है। यह प्रचलित मर्द आत्मकथा से बुनियादी तौर पर भिन्ना विधा है। स्त्री आत्मकथा कभी पूरी नहीं होती, हमेशा अधूरी होती है। स्त्री आत्मकथा लिखती ही है तब जब वह अपने अव्यक्त को व्यक्त करना चाहती है, निजी को सार्वजनिक करना चाहती है, ऐसे में वह व्यक्तिगत को सामाजिक बनाती है, सामाजिक को बताने और बुनने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती। सामाजिक को आप अन्य के द्वारा भी जान सकते हैं किंतु स्त्री के व्यक्तिगत को सिर्फ स्त्री आत्मकथा में ही जान सकते हैं। स्त्री अपनी आत्मकथा में स्वयं की और अपनी छाया की अनेक उलझी परतों को खोलती है, ये ऐसी परतें हैं जो विवादों को जन्म देती हैं, अनेकार्थी व्याख्याओं को जन्म देती हैं। स्त्री आत्मकथा में कही गयी बातों ,मसलों आदि के एकाधिक समाधान भी उपलब्ध होते हैं, किंतु स्त्री को आत्मकथा में समाधान की तलाश नहीं होती बल्कि वह अपनी पहचान की खोज और अपनी निजता को व्यक्त करने के लिए लिखती है।
प्रभाखेतान की आत्मकथा '' अन्या से अनन्या'' अधूरी आत्मकथा है। इसे पूरी आत्मकथा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अभी लेखिका जिंदा है और जिन्दगी का बेहद खूबसूरत हिस्सा जीना बाकी है,यही हाल अन्य स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं का है। स्त्री आत्मकथा पूरी नहीं होती बल्कि अधूरी होती है। स्त्री की आत्मकथा कभी पूरी नहीं हो सकती, उसकी कहानी के खासकर निजी कहानी के अनेक अंश बेबाकी और बहादुदाराना दावों के बावजूद सामने नहीं आते , यही वह बिंदु है जहां से हमें स्त्री आत्मकथा को पढ़ना चाहिए, स्त्री आत्मकथा और पुरूष आत्मकथा में बुनियादी अंतर यह है कि पुरूष को वस्तुगतता पसंद है, स्त्री को निजता पसंद है, स्त्री वस्तुगतता को अस्वीकार करती है, निज के भावों और अनुभवों को पेश करने में उसकी दिलचस्पी ज्यादा होती है।
स्त्री आत्मकथा को कल तक पश्चिमी विधा माना जाता था, वैसे ही जैसे उपन्यास को माना जाता था, हिन्दी की स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं के आने से स्त्री साहित्य का संसार ही नहीं साहित्यिक आलोचना का संसार भी बदलेगा। स्त्री आत्मकथा इसलिए नहीं लिखती कि उसे निजी जीवन की बातें बतानी हैं और पाठकों को पढ़ना है, स्त्री आत्मकथा पाठ नहीं बल्कि आन्दोलन है। स्त्री आत्मकथा आन्दोलन की तरह है, यह सतह पर राजनीतिक आंदोलन की तरह नहीं है, बल्कि व्यवहार में किया गया आंदोलन है। स्त्री आत्मकथा का निशाना विचार नहीं मनुष्य का व्यवहार होता है। स्त्री आत्मकथा के सामाजिक प्रभावों के बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं,क्योंकि हमारे यहां स्त्री आत्मकथा लिखी ही नहीं गयी, अब लिखी जा रही है तो इसके सामाजिक प्रभावों के बारे में भी सोचना चाहिए। स्त्री आत्मकथा के प्रभाव का क्षेत्र सामाजिक संस्कार ,आदतें और एटीट्यूटस होते हैं। वह अपने अनुभव से बदलने की सीख देती है। मजेदार बात यह है कि हमारे यहां मर्द के 'स्व' का काफी लंबा चौड़ा साहित्यिक आख्यान मिलेगा, प्रत्येक विधा में इस मर्द आख्यान की महिमा का वर्णन मिलता है, किंतु स्त्री के 'स्व' पर स्त्री के नजरिए से न तो कभी लिखा और न सोचा ही गया है। स्त्री का 'स्व' मर्द के 'स्व' से भिन्ना होता है। मर्द के 'स्व' को देखने के जो पैमाने प्रचलन में हैं,वे स्त्री के 'स्व' को उद्धाटित करने में हमारी मदद नहीं करते, मर्द के लिए 'स्व' एक विषय है, जबकि स्त्री के लिए 'स्व' विषय नहीं है, पाठ नहीं है। बल्कि उसकी अस्मिता है,लिंगीय पहचान है, अनुभूति है। मर्द के यहां विषय बोलता है,व्यक्ति बोलता है। वस्तुगतता पर जोर होता है। मर्द अपनी आत्मकथा में आत्मस्वीकृति (कनफेशनल मोड़) की पध्दति का इस्तेमाल करता है, उसका अकादमिक महत्व भी होता है। जबकि स्त्री के यहां ऐसा नहीं होता, स्त्री के यहां आत्मकथा का पांडित्य प्रदर्शन से कोई संबंध नहीं है। स्त्री को वस्तुगत प्रस्तुति से चिढ़ है, वस्तुगत प्रस्तुति के नाम पर साहित्यिक परंपरा में हमेशा स्त्री की अभिव्यक्ति को ही कुचला गया है। अथवा उसे प्रस्तुति योग्य ही नहीं समझा गया। स्त्रीवादी साहित्य परंपरा में आत्मकथा का सचेत रूप से विकास किया गया है,उनके यहां स्त्री आत्मकथा को गंभीरता से लिया जाता है।
प्रभाखेतान की आत्मकथा 'अन्या से अनन्या' में कई महत्वपूर्ण विधागत चीजें हैं जिनका ख्याल रखा गया है, मसलन् लेखिका ने अपने परिवार,सामाजिक परिवेश,संस्कृति,मारवाड़ी जाति और पश्चिम बंगाल के परिवेश के बहाने बंगाली जाति के बारे में भी अपने व्यक्तित्व के रिश्तों को खोला है। इसके कारण यह आत्मकथा अनजाने ही एंथ्रोपॉलोजिकल दिशा में चली गई है। प्रभा खेतान ने जिन क्षेत्रों का विस्तार से आख्यान विकसित किया है उसमें पढ़ते हुए हम जब डा. सर्राफ और उनके बीच के आख्यान को बारीकी से पढ़ते हैं तो ये हिस्से डिसटर्ब करते हैं, पाठक को तनाव में ले जाते हैं, मर्दवादियों को इनमें कुछ निंदा की गंध भी मिल सकती है। किंतु 'अन्या से अनन्या' का लक्ष्य किसी की निंदा करना अथवा चरित्र हनन करना नहीं है। यह नितांत व्यक्तिगत वृत्ताान्त है, सामाजिक वृत्ताान्त है, एक ऐसा वृत्ताान्त है जो घट चुका है, किंतु लिखा अब गया है, यह ऐसा यथार्थ है जिसमें कल्पना की गुंजाइश नहीं है, स्त्री आत्मकथा इसी अर्थ में यथार्थ अनुभवों पर टिकी होती है। उसमें कल्पना और भाषायी अतिरेक नहीं होता। स्त्री आत्मकथा इस अर्थ में भी अलग है कि इसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो अवचेतन का हिस्सा रहा है।
प्रभाखेतान अपनी आत्मकथा में अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि उद्धाटित करती है। स्त्री सैध्दान्तिकी के मुताबिक स्त्री को आत्मकथा लिखने की जरूरत अपनी अभिव्यक्ति के लिए पड़ी बल्कि स्त्री आत्मकथा का लक्ष्य होता है उद्धाटन करना। यह उद्धाटित करने वाला गद्य है। यहां आत्मकथा का पांडित्य में विलय देखा जा सकता है। जो व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है वह धीरे-धीरे उद्धाटन की शक्ल ले लेती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो औरत अभिव्यक्त नहीं उद्धाटित करती है। निबंध और कहानी की मिल-जुली शैली में 'अन्या से अनन्या' को लिखा गया है। 'अन्या से अनन्या' में कई रणनीतियां एक साथ लागू की गई हैं। यहां मनोविज्ञान की रणनीतियां हैं तो साथ ही द्वि-स्तरीय अभिव्यक्ति के रूप भी हैं,प्रभाखेतान एक औरत है,परनिर्भर औरत है,भावनात्मक रूप से डा.सर्राफ पर निर्भरता है साथ ही इसका भिन्ना रूप भी है, यानी परनिर्भर औरत के अंदर से आत्मनिर्भर औरत की रणनीतियां भी उभरती नजर आती हैं, यह चेतना के स्तर पर जो द्वि-स्तरीयबोध है, यही स्त्री आत्मकथा का सबसे मजबूत तत्व भी है। युवा प्रभा के जीवन के मन ,बचपन में यौन शोषण और बाद में गर्भपात का जिक्र आना ,ये अवचेतन की रणनीतियां हैं। आत्मकथा यथार्थ अनुभव से गुजरते हुए अचानक अवचेतन की ओर मुड़ जाती है। स्त्री आत्मकथा में अवचेतन का आना स्वस्थ लक्षण है। स्त्री साहित्य को इस फिनोमिना की अभिव्यक्ति से अपनी पहचान मिलती है।
'अन्या से अनन्या' का आख्यान डा. सर्राफ और प्रभा के बीच में चलता है, यह मूलत: उन्हीं की कहानी भी है ये दोनों किताब का अच्छा-खासा हिस्सा घेरते हैं। इस आत्मकथा को लिखा है प्रभा ने ,किंतु इसमें डा.सर्राफ की आवाजें भी चली आई हैं। सतह पर ये ही दो मुख्य आवाजें हैं उन्हीं का आख्यान है इसे हम प्राइवेट कार्य व्यापार भी कह सकते हैं,किंतु स्त्री का आख्यान इसे प्राइवेट अथवा दो के बीच की चीज नहीं रहने देता। प्रभा अपने बचपन से लेकर जवानी तक के जिस अन्तर्विरोध और द्वंद्व की विस्तार से चर्चा करती है उसके कारण सामाजिक का जन्म लेता है, प्राइवेट जन्म नहीं लेता। प्राइवेट को आप छिपाते हैं, किंतु इस किताब को पढ़कर आप छिपाते नहीं हैं बल्कि पाठक को अनेक बार यह महसूस होता है कि यह तो मैं भी जानता हूँ, मेरे साथ भी ऐसा हुआ है। प्रभा का गुस्सा, कुंठा,अवसाद, दुख,सफलता आौ आत्मनिर्भरता आदि के प्राइवेट ब्यौरे अंतत: किसी भी चीज को प्राइवेट नहीं रहने देते। आप इन्हें प्राइवेट ब्यौरे मानकर पढ़ भी नहीं सकते। ये ऐसे प्राइवेट ब्यौरे हैं जो सामाजिक ब्यौरों को हजम कर रहे हैं।
प्रभा का आत्मकथा में पब्लिक और प्राइवेट का कहानी के रूप में सतह पर विभाजन मिलेगा, किंतु वास्तव में ये दोनों ही एक-दूसरे की जगह लेते नजर आते हैं। मसलन् डा. सर्राफ का चुम्बन लेना प्राइवेट क्रिया है किंतु चुम्बन लेते ही यह प्राइवेट नहीं रह जाता बल्कि सार्वजनिक संकट को पैदा करता है। प्रभा को यह क्षण बदल देता है। उसकी सामाजिक और मानसिक अवस्था को गुणात्मक तौर पर बदल देता है। प्रेम एक निजी अथवा प्राइवेट कार्य व्यापार है, किंतु जब आप एक बार इस प्राइवेट क्षेत्र में दाखिल हो जाते हैं तो वह सार्वजनिक का स्थान ग्रहण कर लेता है। मर्द मीमांसा ने प्राइवेट और पब्लिक में भेद करके रखा है, वे प्राइवेट को प्राइवेट और सार्वजनिक को सार्वजनिक ही बनाए रखना चाहते हैं, इसी रूप में साहित्य की आलोचना भी लिखी जाती रही है। किंतु स्त्री के दाखिल होते है सबवर्सिव क्रिया शुरू हो जाती है। प्राइवेट प्राइवेट नहीं रहता, सार्वजनिक सार्वजनिक नहीं रहता, इस संदर्भ में पुराना विभाजन खत्म हो जाता है। स्त्री जो जैसा है उसे वैसा नहीं रहने देती, इसी अर्थ में 'अन्या से अनन्या' में सबवर्जन चलता रहता है। पूरी आत्मकथा सबवर्सिव भाव की अभिव्यक्ति है, ,इसमें तिथियों और विचारों का महत्व नहीं है, बल्कि रवैयये और एटीटयूट को ज्यादा तवज्जह दी गयी है। मर्द की आदतों को निशाना बनाया गया है।
मर्द की आदतों की हमने कभी समीक्षा नहीं की, हमारे माक्र्सवादियों के लिए साहित्य में मूल्य महत्वपूर्ण रहा है, स्त्रीवादी विचारकों को साहित्य को मूल्य के रूप में देखने वाली दृष्टि स्वीकार नहीं है उनके लिए साहित्य अनुभूति और स्त्री का द्वंद्व है, कभी इन दोनों में विभाजन भी नजर आता है। 'अन्या से अनन्या' में प्रभा का गुस्सा केन्द्र में नहीं है बल्कि प्रेम केन्द्र में है, अंत तक प्रेम की चाह और सिर्फ चाह ही इसकी केन्द्रीय धुरी है। यह प्रेम के प्रति न्याय की तलाश में लिखी गयी आत्मकथा है। 'अनन्या से अनन्या' के जगत का अनुभव पाठ में नहीं है बल्कि पाठ के बाहर है। इस किताब को पाठात्मक अनुभव के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। ये साठ साल की औरत के अनुभवों का एक हिस्सा है, इसे प्रभा के साठ साल का समग्र समझने की भूल भी नहीं करनी चाहिए।
यह ऐसी आत्मकथा है जिसमें हिन्दी जाति की पहचान भी निहित है। इस आत्मकथा में लेखिका ने चिर-परिचित सांस्कृतिक -राजनीतिक संदर्भों का इस्तेमाल किया है इसे आप सहज रूप में पढ़ सकते है, इसे प्रामाणिक मान सकते हैं। चिर-परिचित संदर्भ ही हैं जो इसे प्रामाणिक बनाते हैं। 'अन्या से अनन्या' की एक विशेषता यह है कि इसमें संवाद की शैली का इस्तेमाल किया गया है। लेखिका संवाद करती हुई मिलती है। वह डा.सर्राफ से संवाद करती है, बहन गीता से संवाद करती है, दाई से संवाद करती है, मॉ से संवाद करती है,अमेरिकी,जर्मन लोगों (स्त्री-पुरूष दोनों) से संवाद करती है,अपनी सहेलियों और पुरूष मित्रों से संवाद करती है, यही संवाद है जो इस आत्मकथा को संप्रेषणीय और पाठक को शिरकत करने के लिए मजबूर करता है। संवाद के कारण ही पाठक तनाव,आनंद, गुस्सा ,और घृणा का आनंद लेता है। इसके अलावा 'अन्या से अनन्या' में प्रभा की कहानी से पाठक का पूरी तरह जुड़ता है, प्रभा की कहानी के साथ अपने को जोड़ता भी है। यह टोटल आइडेंटीफिकेशन ही इस आत्मकथा के शिल्प की विशेषता है। आरंभ में यह एक प्रेम कहानी लगती है किंतु बहुत ही जल्दी प्रेम कहानी को फ्रस्टेशन अथवा कुंठा आकर घेर लेती है,कुंठा को परिवार का ढांचा घेर लेता है और अंत में इन सबका अतिक्रमण करते हुए कहानी में प्रभा की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। प्रभा का सशक्त रूप उभरकर सामने आता है,पता ही नहीं चलता कि कुंठा,निराशा,दुख,परिवार और प्रेम कहां गायब हो गए। यही वह बिंदु है जहां स्त्री आत्मकथा अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती है, स्त्री की पहचान,उसका सशक्तिकरण ही उसका प्रधान लक्ष्य होता है।
स्त्री आत्मकथा में द्वैत का होना अनिवार्य है और वह यहां भी है। एक वह इमेज है जिसे स्त्री स्वयं देख रही है, दूसरी वह इमेज है जिसे अन्य देख रहे हैं। स्त्री का स्वयं को देखना 'मैं' को देखना है, जो उसका आदर्श है, स्त्री का 'आत्म' के रूप में देखना और कालान्तर में आत्म का 'आत्मनिर्भर' में रूपान्तरण हो जाना, उसके वर्चस्व की स्थापना का संकेत है। स्त्री आत्मकथा में 'स्व' और 'अन्य' एक ही साथ होते हैं। इसी अर्थ में इस किताब में जो 'स्व' है वह 'अन्या' में तब्दील हो जाता है। 'स्व' का 'अन्या' में रूपान्तरण धीरे-धीरे होता है ,कहानी का ज्यों-ज्यों विकास होता जाता है,'स्व' का लोप हो जाता है और उसकी जगह 'अन्या' ले लेती है। यही लाकां यहां '' मिरर स्टेज'' है। इस लाकांनियन पध्दति का लेखिका ने बडे ही कौशल के साथ इस्तेमाल किया है।
प्रभा खेतान ने वर्जीनिया वुल्फ की लेखन शैली का इस्तेमाल करते हुए अवचेतन के रूपों को भी सामने रखा है। बाल यौन शोषण और जवानी के यौन कष्टों को अवचेतन के हिस्सों के रूप में पढ़ा जाना चाहिए, इसमें वह बार-बार स्त्री की नियति और परंपरागत अवस्था पर लेखिका ध्यान खींचती है। 'स्त्रीत्व' की चर्चा करते हुए वह 'अन्या' में तब्दील हो जाती है।अपने आख्यान में उन तमाम चीजों को लाना चाहती है जो उसकी भूमिका और नजरिए से जुड़े हैं। पश्चिम बंगाल से लेकर अमेरिका तक के व्यापक दायरे के विस्तृत ब्यौरे किताब में उपलब्ध हैं। इसके अलावा 'फ्रेगमेंटेड स्मृति' का रूप कृति में हावी दिखाई देता है, किताब दूसरे पैराग्राफ से अमेरिका से शुरू होती है फिर अचानक कलकत्ताा चली आती है काफी समय पाठक कलकत्ताा में विचरण करता है फिर हठात पाता है कि वह वापस अमेरिका लौट जाता है। लेखिका की स्मृति में जो बातें आती रही हैं उन्हें उसी क्रम में पेश कर दिया गया है। इसमें क्रमश: चीजें पेश करने की पध्दति का निषेध अभिव्यक्त हुआ है। परंपरागत आत्मकथा के तमाम तत्वों को एकसिरे से त्याग दिया गया है। कुछ लोगों को 'अन्या से अनन्या' में आत्मस्वीकृति (कनफेशन्स) का भाव दिखाई दे सकता है,सतह पर लेखिका ऐसा आभास भी देती है, जबकि वास्तविकता यह है कि 'अन्या से अनन्या' आत्मस्वीकृति नहीं स्वयं के खिलाफ दी गयी गवाही है,यही इसकी आयरनी है। लेखिका बार-बार इस तथ्य की तरफ ध्यान खींचती है कि हमारे समस्त कार्यकलाप संस्थान निर्भर हैं। लेखिका जब अपने खिलाफ गवाही दे रही होती है तो वे हिस्से ऐसे हैं जिनकी अनेक तरह से व्याख्या संभव है। ये हिस्से व्याख्या के लिए खुले हैं। ये हिस्से अनेक किस्म की व्याख्याओं को जन्म देते हैं। अनेक किस्म की व्याख्याएं ही हैं जो स्त्रीवादी साहित्य की संपदा हैं। स्त्री साहित्य को एक व्याख्या की नहीं अनेक व्याख्याओं की जरूरत है। स्त्रीवादी नजरिए व्याख्या में बहुलतावाद को जन्म देता है, उसका संरक्षण करता है। इसे 'अवचेतन व्यक्तिवाद' कहते हैं। इसमें 'स्व' पर फोकस रहता है। इसका अंतर्निहित संदेश है , तुम समाज को नहीं बदल सकते। तुम सिर्फ स्वयं को बदल सकते हो। इसमें व्यक्तिगत निष्क्रियता का भाव सक्रिय रहता है, इस तरह की प्रस्तुतियां राजनीतिक एक्शन और सामाजिक परिवर्तन के लिए उदबुध्द नहीं करतीं।
'अन्या से अनन्या' का मूल स्वर स्त्रीवादी है। स्त्रीवाद का लक्ष्य आत्मसंतोष या आनंद देना नहीं है बल्कि उसका लक्ष्य है न्याय। प्रभा की आत्मकथा इसी अर्थ में न्याय की तलाश में किया गया एक प्रयास है। इस किताब में अन्याय के कई रूप हैं, अनेक चरित्र हैं जो अन्याय से पीड़ित हैं, मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय जीवन के स्त्री अन्तर्विरोध हैं, उसके पाखण्ड हैं,संकेतों के जरिए यह भी बताया गया है कि हमारे आप्रवासी भारतीय किस तरह अमानवीय व्यवहार करते हैं। स्त्री के हम एक ही रूप से परिचित हैं, किंतु आत्मकथा में स्त्री के कई रूप सामने आते हैं, स्त्री की अनेक किस्म की चालाकियां अथवा रणनीतियां सामने आती हैं, इस आत्मकथा की सारी औरतें समझदार और चालाक हैं। मूर्ख स्त्री इनमें कोई नहीं है। कम से कम एक मिथ तो टूटा कि औरत मूर्ख नहीं होती।
आत्मकथा में सटीक ढ़ंग से रेखांकित किया गया है कि जिस परिवार नामक संस्था को हम महान मानते हैं, पति-पत्नी के संबंध को उच्चकोटि का मानते हैं, वह संबंध किस कदर खोखला हो चुका है और अंदर से सड़ रहा है। किस तरह स्वार्थों के कारण यह संबंध महान है और किस तरह और कब इस संबंध के बाहर बनाए संबंध ,जिसे सारा समाज अस्वीकार कर रहा था, किसी हद तक स्वीकार करने लगता है। सबसे रोचक पक्ष यह है कि परंपरागत परिवार का सारा ताना-बाना आर्थिक सुरक्षा के आधार पर बुना गया है। स्त्री से सब लोग पाना चाहते हैं, उसे कोई देना नहीं चाहता। स्त्री के व्यवहार और रूख पर आलोचनात्मक नजरें टिकी होती हैं जबकि पुरूष के व्यवहार को कभी आलोचनात्मक नजरिए से देखा नहीं जाता, उसके रवैयये को स्वाभाविक मान लिया जाता है। यानी मर्द जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बदलने के चांस नहीं हैं। बदलना है तो औरत बदले। डा. सर्राफ का रवैयया नहीं बदलता वे चाहते हैं कि प्रभा बदले। सारी गतिविधियों में प्रभा को ही आलोचना के केन्द्र में रखा जाता है, कहीं न कहीं इस मानसिकता का स्वयं लेखिका के नजरिए पर भी असर है।
लेखिका की प्रेम में न्याय की तलाश डा. सर्राफ को आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखती। मसलन् डा.सर्राफ के पास प्रभा के लिए मूल समस्या से ध्यान हटाने के अनेक सुझाव रहते थे, जबकि प्रभा के लिए मूल समस्या थी प्रेम और न्याय। प्रभा आत्मनिर्भर बनने के लिए डा. सर्राफ से नहीं मिली थी, बल्कि प्रेम में उसकी मुलाकात हुई थी, डा. सर्राफ ने प्रेम को गौड़ और कैरियर को प्रमुख बनाने की ही सारी रणनीतियां सुझायीं, प्रेम उनके यहां प्रकारान्तर से व्यक्त होता था। प्रेम की पीड़ा का सघन अहसास जिस तरह प्रभा के अंदर व्यक्त हुआ है वह डा. सर्राफ में कहीं पर भी नजर नहीं आता। प्रेम के बारे में डा. सर्राफ जब भी व्यक्त करते हैं तो सिर्फ आशा बंधाने के लिए। डा. सर्राफ के लिए प्रेम भविष्य की चीज था, जबकि प्रभा के लिए वर्तमान था। त्रासदी यह थी कि भविष्य दोनों के हाथ से खिसक गया था। प्रभा को आरंभ में ही अहसास हो गया कि डा. सर्राफ से किया गया प्रेम तकलीफदेह है। डा. सर्राफ के लिए जीवन के उद्देश्यों में प्रेम का कहीं कोई स्थान नहीं था, जबकि प्रभा के लिए जीवन में प्रेम का केन्द्रीय स्थान था। 'अन्या से अनन्या' से एक बात यह भी निकलती है कि स्त्री-पुरूष के प्रेम में वस्तुत: प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग करता है। पुरुष में देने का भाव नहीं होता। वह सिर्फ स्त्री से पाना चाहता है। प्रेम के इस लेने ,देने वाले भाव में स्त्री का अस्तित्व दांव पर लगा है। वह अपना दांव पर सब कुछ लगा देती है और सतह पर हारती नजर आती है किंतु वास्तविकता यह है कि जीवन में जीतती स्त्री ही है पुरुष नहीं। प्रेम में आप जिसे चाहते हैं उसके प्रति यदि देने का भाव है तो यह तय है कि जो देगा उसका प्रेम गाढ़ा होगा, जो निवेश नहीं करेगा उसका प्रेम खोखला होगा। प्रेम में भावों, संवेदनाओं,सांसों का निवेश जरूरी है। डा. सर्राफ की मुश्किल यहीं पर है वे प्रेम चाहते हैं किंतु निवेश किए बिना।
प्रेम का मतलब कैरियर बना देना, रोजगार दिला देना,व्यापार करा देना नहीं है। बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं,प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं। प्रेम गहना,कैरियर ,आत्मनिर्भरता आदि नहीं है। प्रेम सहयोग भी नहीं है। प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए। प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है। प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व है। इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है,एकाकी नहीं होता। सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता। प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है। प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है। प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराईयों में जाकर ही शांति मिलती है, प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य -व्यापार टिका है। प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें। प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता। प्रेम में स्टैंण्ड लेना जरूरी है। डा. सर्राफ की मुश्किलें यहीं पर है। वे प्रेम नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि प्रभा उनसे प्रेम करे। प्रभा उन्हें त्याग न दे। प्रभा का त्याग उन्हें अपने जीवन की संभवत: सबसे बड़ी पराजय लगता है ,यही वजह है के कई बार इस बात को कहते हैं कि तुम मुझे छोड़ मत देना। यानी डा. सर्राफ को प्रभा से मानसिक सुरक्षा मिल रही थी, प्रेम को उन्होंने अपनी दवा बना लिया, जबकि प्रभा के लिए प्रेम का अर्थ यह नहीं था, प्रभा ने डा. सर्राफ से प्यार अपनी सुरक्षा के लिए नहीं किया था, इसके विपरीत प्रभा को प्रेम का संदर्भ बार-बार असहाय बना जाता था। अकेला कर देता था। प्रभा के लिए डा. सर्राफ के साथ प्रेम अस्तित्व की समस्या थी, जबकि डा. सर्राफ के लिए यह मानसिक सुरक्षा, पुंसवादी संतुष्टि का प्रतीक था। जिसमें वह सभी किस्म के दायित्वबोध से मुक्त था।
'अन्या से अनन्या' में प्रभा ने अपने को आलोचनात्मक रूप में देखा है, बार-बार अपने व्यक्तित्व की कमजोरियों को पेश किया है। स्वयं की कमजोरियों को बताते समय लेखिका इस तथ्य पर जोर देना चाहती है कि इन कमजोरियों से मुक्त हुआ जा सकता है। स्त्री की ये कमजोरियां स्थायी चीज नहीं हैं। ये कमजोरियां स्त्री की नियति भी नहीं हैं। कमजोरियां शाश्वत नहीं होतीं। अपनी कमजोरियों को बताने का अर्थ यह नहीं है कि लेखिका अपने लिए पाठकों की सहानुभूति चाहती है। किंतु दिक्कत तब होती है जब कमजोरियों को समस्त सामाजिक प्रक्रिया से अलग करके देखती है। स्त्री की जिन कमजोरियों का जिक्र लेखिका ने स्वयं के बहाने किया है वे एक खास किस्म की सामाजिक प्रक्रिया में ही पैदा होती हैं। स्त्री ज्यों -ज्यों इस प्रक्रिया के बाहर चली जाती है कमजोरियां खत्म हो जाती हैं। प्रभा की कमजोरियां असल में उसकी निजी कमजोरियां नहीं हैं बल्कि ये औरत जाति की कमजोरियां हैं। इन्हें व्यक्तिगत समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
मजेदार बात यह है कि प्रभा ने बार-बार जिस भाषा में और जिन बातों को डा. सर्राफ के सामने उठाया है वे सारी बातें परंपरागत औरत की बातें हैं और परंपरागत भाषा में ही व्यक्त हुई हैं। किंतु सामाजिक प्रक्रिया प्रभा को परंपरागत रहने नहीं देती, प्रभा के एक्शन परंपरागत नहीं हैं। प्रभा के एक्शन परंपरा का विरोध करते हैं, प्रभा की मांगें और भाषा परंपरागत को पेश करते हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हमें स्त्री के कथन पर नहीं कर्म पर ध्यान देना चाहिए। औरत कहती क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह करती क्या है। प्रभा का कर्म परंपरागत कर्म नहीं है। वह वे सारे काम करती है जो भारतीय औरत ने कभी नहीं किए। वह उन बातों को बोलती है जो आम साधारण औरत बोलती हैं। इस अर्थ में प्रभा की बातें,मांगें,तर्क ,भाषा आदि साधारण औरत की परंपरागत भावना को व्यक्त करते हैं। किंतु उसका कर्म असाधारण है। औरत के अंदर चल रहे साधारण और असाधारण के इस द्वंद्व को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।
शादीशुदा मर्द,बाल-बच्चेदार मर्द से प्रेम भारतीय परंपरा में नयी बात नहीं है, इस प्रेम की मांगे भी नई नहीं हैं,ये भी पुरानी हैं,इस तरह के आख्यान भरे पड़े हैं। सवाल यह है कि प्रेमीयुगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है। प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है। प्रेम में जिसका जितना सामाजिक उत्पादन बढ़ा होगा उसका ही वर्चस्व होगा। प्रेम करने वालों को सामाजिक तौर पर सक्षम,सक्रिय,उत्पादक होना चाहिए। प्रभा का प्रेम इस अर्थ में बड़ा है कि वह सामाजिक तौर पर उत्पादक है। इससे प्रेम परंपरागत दायरों को तोड़कर आगे चला जाता है। पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास। प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। संवेदना और भावों के स्तर पर प्रेम में निवेश तब ही गाढ़ा बनता है जब आप सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से उत्पादक की भूमिका अदा करें ।
प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है। समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है। प्रभा अपने एक्शन के जरिए इसी शोषित रूप से लड़ती है। चाहती है शोषित होना किंतु एक्शन उसे शोषण के बाहर ले जाते हैं। ऐसा क्यों होता है यही वह बिंदु है जहां आपको थ्योरी की जरूरत पड़ती है। स्त्रीवादी थ्योरी की प्रासंगिकता नजर आती है। स्त्रीवादी थ्योरी के बिना 'अन्या से अनन्या' को समझना संभव नहीं है। क्योंकि इस किताब में औरत,परिवार,राजनीति,व्यापार आदि की संस्थान के रूप में मौजूदगी को पढ़ने के लिए सिर्फ थ्योरी ही आपकी मदद कर सकती है अत: थ्योरी के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से हमें मुक्त होना होगा। अराजक ढ़ंग से, मर्दवादी ढ़ंग से पढ़ने की पध्दति से मुक्त करना होगा।
'अन्या से अनन्या' में 'परिस्थिति-परिप्रेक्ष्य' की पध्दति का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसी के आधार पर हमें प्रभा के प्रेम का ज्ञान होता है। यह ज्ञान ही हमें और भी ज्यादा मानवीय और समानतापंथी बनाता है। स्त्री आत्मकथा पहले उपलब्ध नहीं थी,अब लिखी जा रही है, आज इसे साहित्य की अकादमिक दुनिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। साहित्यिक आलोचना का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। अभी तक हम जिस भाषा के अभ्यस्त रहे हैं वह मर्द भाषा रही है। इसमें पाठक और विषय के बीच अंतराल रहा है। विषय और 'स्व' के बीच अंतराल रहा है। मर्द भाषा में बोलने,लिखने और सोचने की हमारी आदत सैंकड़ों साल पुरानी है। मर्द भाषा वह है जो हमारे ऊपर से गुजर जाती है। यह इकतरफा भाषा है, इस भाषा में बोलने वाले उत्तार की प्रतीक्षा नहीं करते और न यही महसूस करते हैं कि उनकी बात सुनी जा रही है या नहीं। जबकि स्त्री भाषा की विशेषता है कि उसे उत्तार चाहिए। यह संवाद है। इसकी जड़ों में शब्द हैं जो एक साथ ही करवट बदलते हैं। स्त्री भाषा संप्रेषण नहीं है बल्कि संबंध है। संबंध ही है जो जोड़ता है। इसकी शक्ति बांटने वाली नहीं है बल्कि बांधने वाली है। इस भाषा को आप हृदय से महसूस कर सकते हैं।
स्त्री भाषा के लक्षणों को आप 'अन्या से अनन्या' में सहज ही देख सकते हैं। इस किताब के भाषिक सौंदर्य का यह परम तत्व है कि लेखिका बिना किसी संकोच और दुविधा के एक विषय से दूसरे विषय,एक शहर से दूसरे शहर की ओर अपने आख्यान को खोलती रहती है। यहां उत्तार आधुनिक रपटन को सहज ही देखा जा सकता है। इस भाषा में रपटन है। गतिशीलता है। लोच है। इसी अर्थ में यह किताब व्यक्तिगत होते हुए भी राजनीतिक है। भाषा में फिसलन ही इसकी शक्ति है। इस भाषा में जब आप फिसलते हैं तो गिरते हैं,फिर उठते हैं,संभलते हैं,फिर चलते हैं और फिर रपटते हैं। रपटन में चलना,गिरना और संभलना यहीं पर इसका स्त्री भाषिक सौंदर्य है। मजेदार बात यह है कि प्रभा अपनी छाया (डा.सर्राफ से प्रेम)का पीछा करती है और ज्योंही छाया को पकड़ने की कोशिश करती है,छाया गायब हो जाती है। छाया के पीछे भागना और उसका गायब हो जाना ही इसके सौंदर्य का आधार है। प्रभा ने प्रेम का पीछा करना शुरू किया, डा. सर्राफ को पकड़ने की कोशिश की और यह कोशिश वह जितनी बार करती है छाया उसके हाथ से निकल जाती है। वह छाया के पीछे भागते -भागते अंत में डा. सर्राफ को खो देती है और डा. सर्राफ की मौत हो जाती है। डा.सर्राफ की मौत प्रभा का पुनर्जन्म है। मुक्ति है।
प्रेम
2 comments:
jankari damdar.narayan narayan
"anya se annya " maine hans nam ki patrika me padi thi. apki vhyakha se prabha ji ka sangrsh ka sahi aarth samajh aa gya.dhanavad
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