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30.9.09

अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी

-राजेश त्रिपाठी


पूछो न किस तरह से गुजारी है जिंदगी।
अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी।।
आंखें खुलीं तो सामने अंधियारा था घना।
असमानता अभाव का माहौल था तना।।
मतलब भरे जहान में असहाय हो गये।
दुख दर्द मुश्किलों का पर्याय हो गये।।
दुनिया के दांव पेच से हारी है जिंदगी। (अश्कों के फूल ...)
आहत हुईं भलाइयां, सतता हुई दफन।
युग आ गया फरेब का, क्या करें जतन।।
ऐसे बुरे हालात की मारी है जिंदगी (अश्कों के फूल ...)
चेहरे पे जहां चेहरा लगाये है आदमी।
ईमानो-वफा बेच कर खाये है आदमी।।
हर सिम्त नफरतों के खंजर तने जहां।
कैसे वजूद अपना बचायेगा आदमी।।
जीवन की धूपछांव से हारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)
सियासत की चालों का देखो असर।
आग हिंसा की फैली शहर दर शहर।।
आदमी आदमी का दुश्मन बना है।
हर तरफ नफरतों का अंधेरा घना है।।
इन मुश्किलों के बीच हमारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)

3 comments:

निर्मला कपिला said...

इस रचना को अभी अभी कहीं पढा था शायद इनके ब्लाग पर और टोप्पणी भी की थी बहुत सुन्दर रचना है बधाई

Dr Mandhata Singh said...

राजेशजी यह गजल तो हमारी कहानी है। इतनी सुंदर रचना के लिए बधाई। मान्धाता

Unknown said...

vakai jindagi ki rachana ap ne ki hakikat me jindgi ka sach yahi hea ap ko bahut bhut badhai