सारी दुनिया में फासीवादी संगठनों के वैचारिक अस्त्र एक जैसे हैं। फासीवादियों में विश्वव्यापी एकता वैसे ही है जैसे पूंजीपतियों में होती है। फासीवादी संगठनों का जनाधार विभिन्न अल्पसंख्यक जातीय समूहों के प्रति घृणा पैदा करके बढ़ता है। फासीवादी संगठनों की विचारधारा की धुरी है नस्लवाद।
संघ परिवार के अनुसार भारत में रहने वाले मुसलमान राष्ट्रद्रोही हैं। वह सभी गैर हिन्दुओं को विदेशी मानता है और उन्हें किसी भी तरह के मानवाधिकार देने के पक्ष में नहीं है। संघी उन देशभक्त मुस्लिम नेताओं को भी राष्ट्रद्रोही कहते हैं जिनकी कुर्बानियों के सामने संघ के किसी भी बड़े नेता ने कुर्बानी नहीं दी हैं।
गोलवलकर ने अपनी किताब ‘ हम अथवा हमारा राष्ट्रीयत्व परिभाषित’ में मुसलमानों के बारे में लिखा ‘ ऐसे पराए लोगों के लिए दो ही मार्ग खुले होते हैं। एक यह कि वे राष्ट्रीय संस्कृति को स्वीकार कर उसके साथ एकरूप हो जाएं और दूसरा यह कि वे राष्ट्र की अनुमति लेकर ही देश में रहें तथा जब राष्ट्र यह अनुमति वापस ले ले, तब देश को छोड़कर चले जाएं। अल्पसंख्यकों के प्रश्न के संबंध में यही उचित दृष्टिकोण है। इस प्रश्न का न्यायसंगत उत्तर भी यही है।’
समस्या यह है कि संघ परिवार अपनी अल्पसंख्यक विरोधी मुहिम कब तक चलाता रहेगा। हमारे अनुसार यह अभियान तब तक चलेगा जब तक पाकिस्तान समाप्त नहीं हो जाता और अखंड भारत नहीं बन जाता। इसका अर्थ यह भी है इस कल्पना का साकार होना असंभव है,असंभव और अवैज्ञानिक कल्पनाओं में अपने अनुयायियों को व्यस्त रखना संघ की फासिस्ट कला है।
संघ परिवार का मानना है कि भारत की संस्कृति,परंपरा आदि का उत्तराधिकारी सिर्फ हिन्दू ही हो सकता है,गैर हिन्दुओं को यह हक नहीं है। क्योंकि हिन्दू ही भारतीय है। गैर हिन्दुओं को संघ परिवार भारतीय नहीं मानता।
संघी प्रवक्ता के शब्दों में ‘ कोई भी सच्चा भारतीय,जो भारतवर्ष के वेदांग, उपनिषद, गीत, पुराण,दर्शन,संस्कृति और कला का उत्तराधिकारी है,हिन्दू है। केवल तभी जब हिन्दू परिवार में पैदा हुआ कोई व्यक्ति अपने सांस्कृतिक अतीत को अस्वीकार कर देता है या मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति ,अपनी राष्ट्रीय मूल जड़ों से अपने को अलग कर सिर्फ कुरान पर ही भरोसा करता है अथवा ईसाई परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति केवल पाश्चात्य साहबों और मेम साहबों की नकल करता है और जिसमें राष्ट्रीय आत्म-सम्मान नहीं होता तथा जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में गहराई में नहीं जातीं,वह भारतीय नहीं रह जाता और इस तरह मातृभूमि की सच्ची संतान नहीं रह जाता।’
क्या संघी नेता भूल गए हैं कि भारत का संविधान किसे भारतीय मानता है ? भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति भारतीय है चाहे उसका धर्म कोई भी हो। संविधान के अनुसार उसे सभी नागरिक हक प्राप्त हैं। संघ की यह धारणा गलत है कि सिर्फ हिन्दू ही देशप्रेमी हो सकता है। यह सोच भी गलत और असंवैधानिक है कि भारत में रहना है तो हिन्दू धर्म को मानना होगा। यह फासिस्ट सोच है।
भारत में सैंकडों सालों से आस्तिक और नास्तिकों की परंपरा रही है। भारत के श्रेष्ठतम ज्ञानसर्जक नास्तिक और अनीश्वरवादी थे। गैर-हिन्दू परंपराओं और संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गहरा असर रहा है। भारत का सामाजिक,धार्मिक और सास्कृतिक तानाबाना सिर्फ हिन्दुओं और हिन्दूधर्म ने नहीं रचा है। इसमें गैर हिन्दुओं की हमेशा से बड़ी भूमिका रही है। भारत कभी सिर्फ हिन्दुओं का देश नहीं रहा बल्कि सदियों से गैर हिन्दू यहां निवास करते आ रहे हैं। ये वे लोग हैं जो मुसलमान कौम के उदय के पहले से भारत में रह रहे हैं।
भारतीय समाज में गैरहिन्दुओं के प्रति गैर बराबरी की परंपरा क्षीण रही है। बल्कि इसके विपरीत गैर हिन्दुओं से सीखने,ज्ञान ,संगीत ,स्थापत्य ,ज्योतिष, साहित्य की धारणाएं लेने की परंपरा ज्यादा प्रबल रही है। हिन्दुओं ने अन्यों को जितना दिया है उससे ज्यादा लिया है। इस प्रक्रिया में भारत का मिश्रित समाज बना है। मिश्रित संस्कृति बनी है। भारत कभी भी शुद्ध हिन्दू समाज नहीं था। भारत में कभी शुद्ध हिन्दू संस्कृति नहीं रही है। संस्कृति कभी शुद्ध एक समुदाय द्वारा नहीं बनती बल्कि उसमें समूचे समाज की भूमिका रहती है। शुद्ध हिन्दू समाज की खोज संघ के सरसंघचालकों की फासिस्ट कल्पना की सृष्टि है।
वे इसके लिए कुतर्क गढ़ते रहे हैं और गैर हिन्दुओं को समय-समय पर हिंसाचार का शिकार बनाते रहे हैं। यदि संघ अपनी इस फासिस्ट कल्पना को त्याग दे तो देश में शांति और सदभाव स्थापित हो जाए।
3 comments:
"…यह अभियान तब तक चलेगा जब तक पाकिस्तान समाप्त नहीं हो जाता और अखंड भारत नहीं बन जाता। इसका अर्थ यह भी है इस कल्पना का साकार होना असंभव है,असंभव और अवैज्ञानिक कल्पनाओं में अपने अनुयायियों को व्यस्त रखना संघ की फासिस्ट कला है…"
यहूदियों का अपना एक देश होगा… इस कल्पना को भी सैकड़ों साल तक "असम्भव" और "अवैज्ञानिक" ही माना गया था… आज वही यहूदी पूरे विश्व में अपना डंका बजा रहे हैं। "हिन्दू" को भी हम यहूदी की तरह ही मजबूत देखना चाहते हैं, लेकिन पहले "गुलाम मानसिकता" वाली शिक्षा व्यवस्था को बदलना और "विदेशी कम्युनिस्ट लेखकों को पढ़ करे बड़े हुए" लोगों को यह समझाना जरूरी है…
सुरेश जी से पूर्णतया सहमत. लेखक जी शतुरमुर्ग मत बनो, आँखे खोल के देखो और समस्या की गंभीरता को समझो. आर एस एस को कोसने से समस्या का समाधान संभव नहीं है. क्या फासिस्ट वो नहीं है है जो अमरनाथ यात्रा को ही रोकने पर तुले हुए है?
donon hi tarah ke atiwad khatarnak hain.chahe bahusankhyakwad ho ya alpsankhyakwad donon hi desh ko nuksan pahuncha rahe hain.lekhak ki sonch ektarafa hai.
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