अर्न्तद्वन्द
र्दद से मेरा रिश्ता
बहुत पुराना है
उतना ही
जितना शरीर का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
सुबह का शाम से
और दिन का रात्रि से
बहुत चाहता हूं
इसे छिपा दूं
कुछ इस तरह
जैसे था ही नहीं
और है भी तो अपना नहीं
यह उसी का है जिसका
अब सिर्फ एहसास है
नश्वर स्थूल है
सूक्ष्म नहीं
शरीर है आत्मा नहीं
फिर, एहसास!
विस्मरण का
स्मरण है
अन्त का आदि और
अनादि का स्थाईभाव
मैं कौन हूं
नहीं जानता
शायद तुम भी नही
और अन्य कोई भी नहीं
पर जानना तो होगा
अपने को
अपने अस्तित्व को
अपनी इयत्ता को
यह एक जटिल
अर्न्तद्वन्द है
तन का, मन का
और अह्म का।।
मन कभी-कभी अनचाहे अंतर्द्वंद में उलझ जाता है। जहाँ जेहन काफी मजबूर हो जाता है अंतर्द्वंद करने पर...
खुद से, दिल से या फिर अनन्त से। क्या किया जाये... आखिर मन ही तो है। उलझता-सुलझता, डूबता-उतरह, हँसता-रोता चला जाता है अंतर्द्वंद में।
दुआओं में ज़रूर याद रक्खें....
एम अफसर खान सागर
09889807838
4 comments:
गहरा चिन्तन। सुन्दर पोस्ट के लिये आभार।
bhavnatmak abhivyakti..
bhut acha likhi hai kavita . thanks to share with us.
http://www.greenwoodhigh.edu.in/news_view.php?newsid=44
अच्छी रचना के लिए बधाई ।
rastogi.jagranjunction.com
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