राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
जैसा नाम ही है, धर्मशाला। देखिए, इस लिहाज से मानव धर्म का कुछ तो काम होगा ही। अब यहां राजनीतिक गोटी बिछने वाली धर्मशाला की बात कर लें, क्योंकि इन दिनों देश में धर्मशाला की नई वेरायटी पर बहस शुरू हो गई है और ‘राजनीतिक धर्मशाला’ की खासियत मुझे पता नहीं है, क्योंकि कभी मेरा पाला नहीं पड़ा है। वैसे भी इस धर्मशाला में हर समय जिस तरह से हुज्जतबाजी मची रहती है, उसके बाद मेरा मन नहीं कहता कि चले जाओ और अपने को कोसने के काबिल बनाओ।
पिछले दिनों जिन्न की बोतल से ‘राजनीतिक धर्मशाला’ सामने आई। एक धर्मशाला के पुराने सिपहसालार ने ‘धर्मशाला’ को एक तरकश बताया और कहा कि इस धर्मशाला में जो जब चाहे जा सकता है और जब मन गुलाटी मारते फुदकने लगे, फिर वापस आया जा सकता है। एक बात तो है, धर्मशाला में जमावड़ा होता है, ये अलग बात है कि उसकी केटेगरी बदल जाती है। गांवों की धर्मशालाओं में दो जून की रोटी के लिए मशक्कत करने वाले महागरीब दर्शन देते हैं और वहां अपनी शोभा बढ़ाते हैं, वहीं राजनीतिक धर्मशाला में ऐसे खास चेहरों को जगह मिलती है। जिनकी अपनी शाख होती है, पैसा होता है, पॉवर होता है। गरीब को कोई न तो जिंदा रहते कभी पूछता है और न ही मरने के बाद। गरीबी में मर-मरकर किसान अन्न उपजाता है और देश के करोड़ों पेट भरने में योगदान देता है, मगर वह खास किस्म की धर्मशाला में एंट्री करने मरते दम तक काबिल नहीं हो पाता। दूसरी ओर जिसके पास दमखम है, जो तंत्र का पाचनतंत्र बिगाड़ सकता है, हुकूमत से दो-दो हाथ कर सकता है, कुछ ऐसे किस्मों के लिए ‘राजनीतिक धर्मशाला’ पनाहगाह बनती है।
मैं ये तो कहूंगा कि हमारे जिस राजनीतिक बुजुर्ग ने अपनी जुबान से ‘अथ धर्मशाला कथा’ सुनाई है, निश्चित ही उन्होंने बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है। कहने का मतलब यह है कि उन्होंने इससे पहले कई बार अपनी जुबान से अपनी ‘धर्मशाला’ की अलग-अलग कथा का आलिंगन किया है, मगर धर्मशाला कथा और उसकी तरकश की कहानी कभी नहीं सुनाई। उन्होंने देश की जनता को धन्य कर दिया है, क्योंकि वे जिस धर्मशाला में रहते आए हैं, उसके मुकाबले ये धर्मशाला में रहने व जाने वाले, ज्यादा पॉवरफुल होते हैं। कुछ तो किसी को धूल चटाने को आतुर नजर आते हैं और कुछ किसी की परछाई बर्दास्त नहीं करते, ये अलग बात है, वे रहते एक ही धर्मशाला में रहकर राजनीतिक तीन-पांच करते हैं। मजेदार बात यही है, बात बिगड़ जाती है तो वे चले जाते हैं और फिर धीरे से लगता है कि एक तीर से कोई निशाना नहीं लगने वाला है तो वे चले आते हैं, फिर उसी तरकश में, जहां उसने कुछ बरस बिताए या फिर पूरा जीवन दे दिया। उसे धर्मशाला भी पूरी तन्मयता से अपनाता है, भले ही उसने पहले उसकी कैसी भी तस्वीर बनाई हो, या कहें कि तस्वीर उधेड़ी हो।
राजनीतिक धर्मशाला में रहने के लिए, जैसा नाम है और जितना बड़ा पद है, उसके हिसाब से अर्थतंत्र को मजबूत करना पड़ता है। वे यह भी जानते हैं कि इस धर्मशाला में रहो या फिर न रहो, जो दिया वह वापस आने वाला नहीं है। खैर, ये तो सभी जानते हैं, एक बार देने के बाद कोई वापस करने के मूड में नहीं होता। धर्मशाला में कुछ तो धर्म-कर्म करने पड़ते हैं। अब तो समझ में आ गया होगा, अफसाना धर्मशाला का, जहां किसी भी उम्र में आया जा सकता है। इसकी पूरी छूट है, जब तक मन न भरे, तब तक धर्मशाला की खिदमतगारी ली जा सकती है। कईयों की जिंदगी धर्मशाला के नाम लिखी नजर आती है। हालांकि, जिस दिन मन भौखलाया, उस दिन फिर काहे की धर्मशाला, किसकी धर्मशाला... हैं न।
27.7.11
व्यंग्य - आओ धर्मशाला में उम्र गुजारें !
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