हाँ, हाँ मैंने वक्त बदलते देखा है.......
दुनिया के दस्तूर बदलते देखे हैं,
मैंने, मैंने, रिश्ते और रिश्तेदार बदलते देखे हैं
मैंने, अपनो को बैगाना होते देखा है,
हाँ, हाँ, मैंने वक्त बदलते देखा है......
मैंने लोगो की मधु-मुस्कान में स्वार्थी बदबू को आते देखा है...
कथनी और करनी में अंतर को देखा है....
मैंने, मैंने, रंग बदलते इंसानी गिरगिट देखे हैं,
मैंने अपनेपन की केचुली पहने इंसानों को देखा है
हाँ, हाँ मैंने वक्त बदलते देखा है....
मैंने अपने लियें सजी 'अपनो' की महफ़िल भी देखी है
मैंने गैरों की गैरत को देखा है, और 'अपनो' के 'अपनेपन' पन को भी देखा है,
मैंने, हाँ, हाँ, मैंने इस 'अपनो की दुनिया ' में अपने को अकेला भी देखा है.
हाँ, हाँ मैंने वक्त बदलते देखा है.......
- पंकज व्यास, रतलाम
1 comment:
आपकी ये अनमोल रचना इतनी अच्छी लगी कि मैंने कोपी कर ली है।
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