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29.7.11

घोटालों के निष्कि्रय संरक्षक

संवैधानिक दायित्व के पालन में लापरवाही को प्रधानमंत्री का मूल स्वभाव बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

संप्रग सरकार पर भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाने के आरोप थे ही, रही-सही कसर पूर्व संचारमंत्री ए राजा ने पूरी कर दी। राजा ने शीर्ष न्यायपीठ के सामने संचार घोटाले के मामले में प्रधानमंत्री को भी शामिल बताया है। गृहमंत्री पी चिदंबरम भी लपेटे में हैं। कांग्रेस ने इसे एक अभियुक्त के बचाव की बयानबाजी बताकर पल्ला झाड़ लिया है। सर्वोच्च न्यायपीठ के सामने प्रधानमंत्री को सहअभियुक्त जैसा प्रस्तुत किया गया है, बावजूद इसके प्रधानमंत्री चुप हैं। आखिरकार राजा के आरोपों पर प्रधानमंत्री का स्पष्टीकरण क्यों नहीं आया? प्रधानमंत्री के मौन का अर्थ स्वीकृति लगाया जा रहा है। ए राजा ने प्रधानमंत्री को साजिश व कर्तव्यपालन में लापरवाही का दोषी ठहराया है। कर्तव्यपालन में लापरवाही मनमोहन सिंह का मूल स्वभाव है। लेकिन प्रधानमंत्री के विरुद्ध साजिश का आरोप संगीन मामला है। राजा के तर्क में दम है। स्पेक्ट्रम आवंटन के पूरे मामले का परीक्षण करने के लिए प्रधानमंत्री ने मंत्रिसमूह का गठन क्यों नहीं किया? राजा के अनुसार प्रधानमंत्री ने ही मंत्रिसमूह गठित न करने का निर्णय लिया। कायदे से प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोड़कर सत्य का पर्दाफाश करना चाहिए। उन्हें अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही कानूनी कार्यवाही में सहयोग करना चाहिए। ए राजा साधारण अभियुक्त नहीं हैं। वह उनके विश्वासपात्र मंत्री रहे हैं। यह मुकदमा भी असाधारण प्रकृति का है। केंद्र सरकार सीधे भ्रष्टाचार के लपेटे में है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी इस कांड से बाहर नहीं दिखाई देते। राजा के वकील ने कोर्ट से गृहमंत्री को भी गवाह बनाने की मांग की है। पी चिदंबरम पहल करें, कोर्ट के सामने जाएं, न्यायिक कार्यवाहियों में उठे प्रश्नों का उत्तर दें। संविधान निर्माताओं ने ही सरकारी जवाबदेही को संसदीय जनतंत्र का मुख्य आदर्श बताया था। प्रधानमंत्री से कोई अपेक्षा करना बेकार है। वह प्रधानमंत्री पद के वास्तविक प्राधिकार से वंचित हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की तरह कभी कोई काम नहीं किया। राष्ट्रमंडल घोटाले से देश की अंतरराष्ट्रीय बदनामी हुई। भ्रष्टाचार और लूट के महोत्सव उनकी जानकारी में थे, लेकिन वह लाचार होकर टुकुर-टुकुर ताकते रहे। दूरसंचार घोटाले से वह अवगत थे। ए राजा का वक्तव्य पर्याप्त साक्ष्य है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति धांधली में वह शामिल थे। उन्होंने गलत काम को रोकने में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। कर्तव्यपालन में ऐसी लापरवाही किसी भी जनतांत्रिक देश के प्रमुख ने नहीं की। उन्होंने अपनी तरफ से भी कभी कोई सही काम नहीं किया। वास्तविक सत्ता सोनिया गांधी ने चलाई, जिम्मेदार वह बने। अच्छाई का श्रेय सोनिया, राहुल ले गए और सारे गलत कामों के जिम्मेदार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने सक्रिय, जिम्मेदार और जवाबदेह प्रधानमंत्री होने का कोई प्रयास नहीं किया। पूंजीवादी अर्थशास्त्र की विद्वता व्यावहारिक सत्ता संचालन में काम नहीं आती। वह हरेक मोर्चे पर विफल रहे और वीतरागी संन्यासी की तरह पद से हटने की प्रतीक्षा करते रहे। प्रधानमंत्री करें तो क्या करें? कांग्रेस 1947 से ही ऐसी है। पंडित नेहरू बेशक कामकाजी प्रधानमंत्री थे, लेकिन सत्ता में भ्रष्टाचार की शुरुआत उसी समय हुई। 1949 में नेहरू के खास मंत्री कृष्णमेनन पर 216 करोड़ रुपये के जीप घोटाले का आरोप लगा। लोक लेखा समिति ने दोषी पाया। कुछ दिन बाद वह फिर से मंत्री बने। 1957 में मूंदडा कांड हुआ। फिरोज गांधी ने सवाल उठाया। वित्तमंत्री टीसी कृष्णमाचारी का त्यागपत्र हुआ। बवाल रुका, वह भी फिर से मंत्री हो गए। कांग्रेस की यही परंपरा आगे चली। इंदिरा गांधी के विरुद्ध नागरवाला कांड राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना। इंदिरा गांधी के शासन में ही भ्रष्टाचार को सार्वजनिक स्वीकृति मिली। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बोफोर्स ने घेरा। उन्हीं के कृपापात्र क्वात्रोचि का साथ वर्तमान केंद्रीय सत्ता ने भी दिया। प्रधानमंत्री नरसिंहा राव भी पीछे नहीं रहे। रिश्वत देकर संसद में वोट, लक्खूभाई पाठक कांड और हर्षद मेहता कांड सहित तमाम घोटालों के जरिए उन्होंने कांग्रेस की परंपरा को बढ़ाया, बखूबी सरकार भी चलाई। कांग्रेसी परंपरा के सभी पूर्व प्रधानमंत्री घपलो-घोटालों के सक्रिय संरक्षक थे। लेकिन मनमोहन सिंह ऐसे सभी मामलों के निष्कि्रय संरक्षक हैं। दरअसल निष्कि्रयता ही उनकी पूंजी है। सोनिया गांधी ने उन्हें निष्कि्रय रहने का ही काम सौंपा है। राजनीतिक सक्रियता उनका काम नहीं। चुनाव उन्हें लड़ना नहीं। चुनाव अभियान में उनका उपयोग नहीं। उनका कहीं कोई जनाधार भी नहीं। कांग्रेसी जीत का श्रेय उन्हें मिलना नहीं। हार की जिम्मेदारी के लिए उनसे अच्छा कोई दूसरा बलि का बकरा नहीं। वह सोनिया, राहुल और उनके सहयोगियों की अच्छी बुरी सक्रियता को निर्बाध चलाते रहने की जिम्मेदारी ही निभाते हैं। बेशक भ्रष्टाचार रोकना प्रधानमंत्री की ही जिम्मेदारी है। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, किसान उत्पीड़न आदि समस्याओं से निपटना भी उनका ही प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्य है। सारा देश उनसे सक्रियता की अपेक्षा करता है, उनकी ही ओर टकटकी लगाए रहता है, लेकिन वह सिर्फ एक ही परिवार के प्रति निष्ठावान हैं। वह खुश हैं कि वह परिवार उनसे खुश है। उनकी निष्कि्रयता ही उनकी विद्वता और विनम्रता है। संसदीय जनतंत्र का मुख्य गुण है-जवाबदेही। शीर्ष भ्रष्टाचार के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप में किसी मंत्री को नहीं हटाया। कोर्ट ने पहल की तभी कार्रवाई हुई। ए राजा ने सीधे उन पर, गृहमंत्री और सोलीसिटर जनरल पर उंगली उठाई है। बावजूद इसके वह चुप हैं। हाईकमान ने उन्हें चुप रहने को ही कहा है। जाहिर है, कांग्रेस और केंद्र सरकार जनता के प्रति जवाबदेही के संवैधानिक सिद्धांत को नहीं मानते। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/article/index.php?page=article&choice=print_article&location=8&category=&articleid=111717418674083552

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