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29.7.11

है कोई निर्माता ! या सब अपने आप .......जादू से !....कहाँ है ! ...कौन है वो जादूगर.....


इस फूल को किसने बनाया ! who made this flower !






यह एक सुंदर फूल है न . 


कभी सोचा इसे किसने बनाया !


क्या बेवकूफी भरा सवाल है !


अरे किसी ने भी बनाया हमें क्या लेना देना .


हाँ ! यह प्रश्न सबके लिए नहीं है .  केवल उस विचारक के लिए, जिसके पास इन चीजों के लिए , दिमाग , वक्त व जरुरत है . 


बिना जरूररत तो मनुष्य करवट भी नहीं बदलता . 


अब मुझे क्या जरुरत आन पड़ी .  


बस आन पड़ी . और आज सुबह सैर करते हुए यह प्रश्न आ गया कि इतना सुंदर फूल कैसे बन गया , 


बराबर में साथ सैर कर रहे गोयल साहेब से मन का प्रश्न कह दिया , 


उन्होंने वही घिसा-पिटा  उत्तर दे दिया -    "भगवान ने".    


पर मैं तो विज्ञानं का विद्यार्थी रहा हूं. (विद्यार्थी = जो विद्या की अर्थी निकाल दे ) , मैंने कहा , विज्ञानं वाले तो कहते हैं , जीवन , अपने आप बन गया . 


दादा डार्विन का तो यही सिद्धांत , हमने स्कूल की पुस्तकों में पढ़आ है , कि अपने आप कुछ कैमिकल इकठ्ठे हुए , बिजली चमकी , बादल गरजे , और जीवन बन गया . और वह जीवाणु इतना होशियार था कि बनते ही उसने विकास का मन बना लिया, और अपने आप को मछली , मेंढक , जानवर, पक्षी , बन्दर व मानव में विकसित कर लिया.  


ऊँचे वृक्षों के पत्ते खाने से घोड़ा , जिराफ बन गया. बच्चे को दूध चाहिए था तो अपने आप माता के स्तनों में दूध बन गया . बच्चे का इतना विकास हो चूका था कि पैदा होते ही उसने दूध पीना भी आ गया. 


गोयल साहिब हँसने लगे, कि गुप्ता जी, जब बच्चे थे तो विज्ञानं के इतिहास में आपने ये सब बातें पढ़ लीं , पर अब तो तुम बड़े हो गए हो , जरा फिर अपने आप से ही पूछो , ये चंदू खाने की कहानि तुमको खुद भी सच लगती है क्या. 


मिटटी, पानी ,  चाक , डंडा यदि करोड़ साल भी पड़े रहें तो एक बर्तन नहीं बन सकता, और आपने बिना किसी चीज के इतना विकसित जीवन बना दिया , जो इस फूल में रंग भर गया, दूसरे फूल में दूसरा , पहले कली , फिर फूल , फिर फल .....फिर .....  सब अपने आप .........


इस बेवकूफी की बात को मानने से तो अच्छा है आप दूसरी भी बेवकूफी की बात मान लें , कि एक अनजानी, अद्रश्य शक्ति ने इस विश्व का, इस फूल का निर्माण कर दिया. 


और आप उस शक्ति को मान कर अपने को दकियानूसी समझ रहे हैं. तो एक इससे अच्छी कल्पना ले आओ , मगर ये बन्दर से आदमी की बात तो इंडिया के अलावा , कहीं भी नहीं मानी गई , विज्ञान में भी , न तब , न अब , पर पश्चिम की , की हुई उल्टी भी हमें स्वाद ले कर खाने की आदत सी हो गई है , तो सारे तर्क बेकार हैं. 


मैंने आते समय उनका धन्यवाद किया , और सोचा कि अपने ब्लॉग मित्रों से भी राय ले लूँ. 


जय सच्चिदानंद 
          

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