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18.7.11

कहाँ गई शहर के वासियों की संवेदनशीलता

भ्रष्टाचार हटाने से ज्यादा जरूरी है देश वासियों कि संवेदनशीलता

    


आज में दिल्ली की एक मेट्रो में सवार था . 


एक महिला लेडीस सीट पर बैठी थी .


एक लड़के ने उस से बदतमीज लहजे में कहना शुरू किया कि वो वहाँ क्यों बैठी है जब लेडीज का डिब्बा अलग है.


वो ऊंट पटांग बोलता रहा , और सब लोग खड़े खड़े चुप-चाप सुनते रहे, जब तक कि मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ . 


और फिर सब शांत हो गया, मगर में अशांत हो गया. 


तब से ही में अपने आप से पूछ रहा हूं , क्या हो गया इस देश के वासियों  की संवेदनशीलता  को . 


जिस देश में किसी महिला को कोई छेड रहा हो तो उसकी यक़ीनन पिटायी होती थी . 


कोई तकलीफ में हो तो सैंकडों लोग सहायता के लिए दोड पड़ते थे, 


गांव में अब भी है , इन शहरों के पढ़ें-लिखे लोगों की संवेदनशीलता कहाँ चली गयी . 


ये देश के नागरिकों के चरित्र का हास कैसे हो गया. 


रामदेव , हजारे बिल भी बनवा देंगे, पर देश का चरित्र कहाँ से कौन लाएगा, 


यह सही है कि सरकार देश वासियों के प्रति जरा भी सम्वेदनशील नहीं है , पर उन  बहुमत  नागरिकों का क्या करें जो समाज के , देश के प्रति जरा भी सम्वेदनशील नहीं हैं. 


बिना चरित्र के तो सारे बिल , कानून फेल हो जायेंगे. 


है मेरे ब्लोगी भाइयों के पास कोई उपाय ......!


        

10 comments:

Shalini kaushik said...

बिलकुल सही कहा है आपने आज देश वासियों की संवेदनशीलता बिलकुल मर गयी है

https://worldisahome.blogspot.com said...

धन्यवाद शालिनी जी,
कुछ टिप्पणी जो मेरे ब्लॉग पर आई हैं , उन्हें यहाँ चिपका रहा हूं.
I and god said...
मेरा श्री शर्मा जी से पत्राचार :
guptaaji aapane sau fisadi sahi kaha ki charitr ke bina kuchh nahin ho sakata .aj charitr nirman ki jarurat hai
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Ashok Gupta to brij
show details 4:26 AM (15 minutes ago)
आदरणीय शर्मा जी ,

अनुमोदन के लिए धन्यवाद,

और चारित्र निर्माण कहाँ से होगा. हमारे बच्चे , जो कल I A S और बड़ी बड़ी पोस्ट पर आज हैं. उन्होंने तो यही सीखा है , जाना है , कि बेईमानी से ही बड़ा हुआ जाता है ,

जब तक वास्तविक धर्म की शिक्षा नहीं दी जाती तब तक चरित्र निर्माण कहाँ से होगा.

में ५७ साल का हूं , गीता , रामायण अब जाकर पढ़ रहा हूं. अब पता चल रहा है वास्तविक धर्म क्या है.

आप क्या कहते हैं.

दासानुदास
अशोक गुप्ता
दिल्ली

https://worldisahome.blogspot.com said...

हरीश सिंह said...
सच कहा आपने लोग संवेदनहीन हो गए है. पर ऐसा नहीं है की परिवर्तन नहीं आएगा. आप जैसे लोग यदि इसी तरह लोंगो को जागरूक करते रहे तो एक दिन वह वक्त जरुर आएगा.

JULY 18, 2011 12:05 PM

रविकर said...

महिलाओं का गर कहीं, होता है अपमान ,
सिखला दुष्टों को सबक, खींचों जमके कान |


खींचों जमके कान, नहीं महतारी खींची ,
बाढ़ा पेड़ बबूल, करे जो हरकत नीची ||


कृपा नहीं दायित्व, हमारा सबसे पहिला,
धात्री का हो मान, सुरक्षित होवे महिला ||

https://worldisahome.blogspot.com said...

dinesh gupta to me
show details 9:26 AM (36 minutes ago)
महिलाओं का गर कहीं, होता है अपमान ,
सिखला दुष्टों को सबक, खींचों जमके कान |


खींचों जमके कान, नहीं महतारी खींची ,
बाढ़ा पेड़ बबूल, करे जो हरकत नीची ||


कृपा नहीं दायित्व, हमारा सबसे पहिला,
धात्री का हो मान, सुरक्षित होवे महिला ||

kanu..... said...

बस यही है वेदना
मर गई संवेदना
मर रहे है लोग लेकिन आँख में आसू नहीं
हो रहे है जुल्म लेकिन दिलों में दर्द नहीं
लगता है अत्याचारियों से डर गई संवेदना
मर गई संवेदना

महिलाएं हो या वृद्ध हो
किसी के लिए अब जगती नहीं
शहर के छोटे घरों में कही छुप गई संवेदना
अब जगा लो, बाहर निकालो इसे
हो अगर मनुज तो अपने दिलों में ढूंढ लो संवेदना
बस यही है वेदना
मर गई संवेदना

https://worldisahome.blogspot.com said...

देश में संवेदना जागे या न जागे, पर इतनी संवेदनशील टिप्पणियों से मैं बहुत अभिभूत हो गया हूं. खास तौर पर दिनेश जी व कनु जी के मुक्तकों से .

पर ब्लोगी भाइयो , देश की भावनाओं को जगाने का कोई उपाय भी सुझाओ प्लीज .

अंकित कुमार पाण्डेय said...

पता नहीं कैसा संयोग है की मेरी आप से सहमति नहीं बन पा रही है |मुझे नहीं पता वो लड़का कैसा था या कौन था परन्तु मेरी दृष्टि में वो साधुवाद का पात्र है और अगर मैं उसके स्थान पर होता और यदि साहस का स्तर बना रह पता तो मैं कहता , जहाँ तक भाषा की बात है तो ये देश काल पर निर्भर करती है मैं जिस स्थान से हूँ और जिस परिवार से उसके प्रभाव के कारण मेरी भाषा अवश्य किसी दिल्ली के लडके से अधिक भद्र रही होती परन्तु उसने जो बात कही उसका मैं समर्थन करता हूँ | मुझे रो मेट्रो में ४० मिनट गुजरने पड़ते हैं और मैंने कई बार देखा है की जब कोई लड़की (22 या २३ वर्ष की भी) किसी ६० वर्ष के व्यक्ति को उठा देती है सीट से और ऐसा भी कई बार देखा है की महिलाओं वाले डिब्बे में आधी से अधिक सीटें खाली होने के बावजूद लड़कियां साधारण डिब्बे में किसी को उठा कर बैठती हैं यह अवैधानिक भले ना हो परन्तु अनैतिक अवश्य है |

हमें पता है की हमें बैठने के लिए सीट उनको देनी चाहिए जिनको अधिक आवश्यकता है परन्तु नैतिकता दिखने की जिम्मेदारी काम से काम मेट्रो के अन्दर केवल लडके ही निभाते हैं , जब भी कोई वृद्ध या विकलांग मेट्रो में प्रवेश करता है तो कोई लड़का या कई बार कोई वृद्ध ही उनके बैठने के लिए सीट छोड़ता है , यद्यपि मैं दिल्ली की सभी लड़कियों के बार में नहीं कह हरा हूँ और मुझे नहीं लगता है की लड़का या लड़की जैसे रूप में सामान्यीकरण किया जा सकता है , परन्तु मैंने केवल अपवादस्वरूप (१० या १५ बार)ही किसी लडकी को मानवता और नैतिकता के आधार पर सीट छोड़ते हुए देखा है |

मेट्रो में १ डिब्बा महिलाओं एक लिए अरक्षित करना विशुद्ध राजनैतिक निर्णय है परन्तु हमें नैतिकता का भी ध्यान रखना चाहिए आप जिस महिला की बात कर रहे हैं उसने यह कर कर के कई लोगों के मान में "लड़कियों की समस्याओं के प्रति सहानुभूति "समाप्त कर दी होगी और कई लोग अब ये भी कहेंगे की "लड़कियां होती ही ऐसी हैं " , और यह होगा ही अगर केवल अधिकार याद रखे जायेंगे ना की नैतिकता और मानवता और इसके दूरगामी परिणाम बहुत भयानक हो सकते हैं |

https://worldisahome.blogspot.com said...

प्रिय अंकित भाई,

आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद ,

सहमति न बनना कोई बड़ी बात नहीं. कम से कम हम एक मुद्दे पर विचार तो कर रहे हैं.

रामायण में भी लछमन कि कई बार श्री राम से सहमति नहीं बनी, यथा :
मन्त्र न यह लछमन मन भावा

पर आपके हमारे उद्देश्य तो एक हैं.

मुझे आपसे बात करके खुशी होगी.

क्योंकि लिखना मेरे लिए बहुत बड़ी व्यायाम है .

विनीत
अशोक गुप्ता
दिल्ली

https://worldisahome.blogspot.com said...

तीसरी आंख said...
आपने बिलकुल ठीक लिखा है, असल में संवेदनहीनता की वजह से ही हमारा नैतिक पतन हुआ है और जब आदमी का नैतिक पतन हो जाए तो उसे कानून क्या सुधार कर लेगा

JULY 19, 2011 6:40 AM
धन्यावाद तेजवानी जी ,

इस पतन के सुधार का कोई उपाय है क्या !