मौजूदा कांग्रेसनीत सरकार पर विपक्षी दलों और टीम अन्ना के हमले लगातार जारी हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा हो, जब सरकार की कार्यशैली अथवा किसी कदम की आलोचना नहीं हुई हो। महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो चुके हैं कि पूरे देश में यह संदेश जा चुका है कि सरकार का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है और उसने लगभग हाथ खड़े कर दिए हैं। आम आदमी इतना त्रस्त है कि उसका व्यवस्था पर से विश्वास सा उठने लगा है। एक बारगी तो हालात अराजकता जैसे उत्पन्न हो गए और सरकार की चूलें पूरी तरह से हिल गईं। कोई और देश होता तो हिंसक क्रांति ही हो जाती। ऐसे में यह तय सा माना जा रहा है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के फिर से सरकार में आने की कोई संभावना नहीं है। मगर ऐसा नहीं है कि यह विपक्ष के ज्यादा सक्रिय होने के कारण हुआ है। असल में यह सब कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की करतूतों का ही परिणाम है। अधिकतर विवाद उनके खुद के ही पैदा किए हुए हैं, विपक्ष ने तो मात्र उनको भुनाने की कोशिश की है। ताजा स्थिति को इन शब्दों में पिरोया जाए कि खुद खिवैये ही डुबाने में जुटे हैं, केन्द्र सरकार की नाव को, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मौजूदा सरकार की कमजोरी का सबसे पुख्ता सबूत खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कह कर दे दिया है कि गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं। उनके इस कथन में सच्चाई है, मगर आम आदमी के यह तर्क गले नहीं उतर रहा। उसे तो राहत चाहिए, जो कि अब सपना ही बन रह गई है।
मौटे तौर पर देखा जाए तो मौजूदा गठबंधन सरकार के सामने आए दिन सहयोगी दलों ने संकट पैदा किए हैं। सहयागी दलों व खुद उसके ही मंत्रियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए चुनौतियां पैदा कर रखी हैं। इसका परिणाम ये है कि सरकार ठीक से काम ही नहीं कर पा रही और उसका अधिकांश वक्त विवादों को निपटाने में ही लग रहा है। हाल ही सरकार के दो प्रमुख स्तंभों प्रणव दा व चिदंबरम के बीच जो विवाद हुआ, उससे निपटने में तो मनमोहन सिंह को काफी जोर आया। कांग्रेस के लिए यह सुखद बात है कि उसके पास वीटो पावर वाली सोनिया गांधी हैं, वरना ये विवाद सरकार को ही ले बैठता। मंत्री तो मंत्री, खुद पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह रोजाना विपक्ष को कांग्रेस की फजीहत करने का मौका दिए जा रहे हैं। उनके बयानों से पता ही नहीं लगता कि वे पार्टी की ओर से बोल रहे हैं या फिर खुद जो मन में आए कह रहे हैं। कई बार पार्टी को यह कह कर पिंड छुड़ाना पड़ा है कि अमुक विचार दिग्विजय सिंह के निजी हैं।
गठबंधन सरकार के प्रमुख दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने भी हाल ही अपने एक बयान से संकट पैदा कर दिया। उन्होंने आर्थिक संपादकों के सम्मेलन में साफ कहा कि टूजी मामले में सरकार की ढ़ीला रुख उसकी कमजोरी का सबब बन गया। कांगे्रस के लिए इसका जवाब देते नहीं बन रहा। असल में ऐसा कह कर उन्होंने भाजपा के इस आरोप को बल दिया कि मौजूदा प्रधानमंत्री अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। पवार की यह हरकत जाहिर तौर पर गंभीर है, क्योंकि वे न केवल एक प्रमुख मंत्री हैं, अपितु सरकार के घटक दल के सर्वेसर्वा भी हैं। भाजपा ने तो पवार के रवैये को उनका घटक से हटने का संकेत तक मान लिया है। यह सही है कि बाद में पवार ने बयान से पलटा खाया, मगर इससे यह तो साबित हो ही गया कि मौजूदा गठबंधन भीतर ही भीतर सुलग रहा है।
इसका एक प्रमाण राष्ट्रीय जनता दल ने भी दिया। यह एक विरोधाभास ही है कि यह दल एक ओर तो सरकार को समर्थन दिए बैठा है तो दूसरी ओर उसकी राय ये है कि सरकार ज्वलंत मुद्दों से निपटने में नाकामयाब रही है। उसके प्रबंधक न तो सरकार के सहयोगी दलों के बीच ठीक से तालमेल बैठा पा रहे हैं और न ही आए दिन आने वाली समस्याओं को ठीक से निपटा पा रहे हैं।
मौजूदा गठबंधन कितना ढ़ीला है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेश दौरे पर जाने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में सांप्रदायिक दंगा विरोधी विधेयक से भी नाइत्तफाकी जाहिर कर साबित कर दिया कि सरकार को चलाने वाले घोड़े अलग-अलग दिशा में जाने को आतुर हैं। इसका एक प्रमाण ये भी है कि जिस टूजी मामले के कारण सरकार गहरे संकट में आ गई, उसके लिए मूलत: जिम्मेदार द्रमुक के नेता केन्द्र व राज्य में तो गठबंधन बनाए हुए हैं, मगर उन्होंने स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन से इंकार कर दिया। हालांकि इस तरह के विरोधाभास स्वार्थ की वजह से अब आम हो गए हैं, मगर गहराई से देखा जाए तो ये हैं काफी गंभीर। मनमोहन सिंह तो खुद की गठबंधन की मजबूरियों का रोना कई बार रो चुके हैं। और यही वजह है कि विपक्ष मध्यावधि चुनाव की राह जोह रहा है। उसकी आशा जायज ही प्रतीत होती है। कदाचित उसकी यह मनोकामना पूरी इस वजह से न हो पाए कि अनके विरोधाभासों के बावजूद स्वार्थ के कारण गठबंधन चलता रहे, मगर कम से कम आगामी चुनाव में तो तख्ता पलट की उम्मीद जगाता ही है।
-tejwanig@gmail.com
मौजूदा सरकार की कमजोरी का सबसे पुख्ता सबूत खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कह कर दे दिया है कि गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं। उनके इस कथन में सच्चाई है, मगर आम आदमी के यह तर्क गले नहीं उतर रहा। उसे तो राहत चाहिए, जो कि अब सपना ही बन रह गई है।
मौटे तौर पर देखा जाए तो मौजूदा गठबंधन सरकार के सामने आए दिन सहयोगी दलों ने संकट पैदा किए हैं। सहयागी दलों व खुद उसके ही मंत्रियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए चुनौतियां पैदा कर रखी हैं। इसका परिणाम ये है कि सरकार ठीक से काम ही नहीं कर पा रही और उसका अधिकांश वक्त विवादों को निपटाने में ही लग रहा है। हाल ही सरकार के दो प्रमुख स्तंभों प्रणव दा व चिदंबरम के बीच जो विवाद हुआ, उससे निपटने में तो मनमोहन सिंह को काफी जोर आया। कांग्रेस के लिए यह सुखद बात है कि उसके पास वीटो पावर वाली सोनिया गांधी हैं, वरना ये विवाद सरकार को ही ले बैठता। मंत्री तो मंत्री, खुद पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह रोजाना विपक्ष को कांग्रेस की फजीहत करने का मौका दिए जा रहे हैं। उनके बयानों से पता ही नहीं लगता कि वे पार्टी की ओर से बोल रहे हैं या फिर खुद जो मन में आए कह रहे हैं। कई बार पार्टी को यह कह कर पिंड छुड़ाना पड़ा है कि अमुक विचार दिग्विजय सिंह के निजी हैं।
गठबंधन सरकार के प्रमुख दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने भी हाल ही अपने एक बयान से संकट पैदा कर दिया। उन्होंने आर्थिक संपादकों के सम्मेलन में साफ कहा कि टूजी मामले में सरकार की ढ़ीला रुख उसकी कमजोरी का सबब बन गया। कांगे्रस के लिए इसका जवाब देते नहीं बन रहा। असल में ऐसा कह कर उन्होंने भाजपा के इस आरोप को बल दिया कि मौजूदा प्रधानमंत्री अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। पवार की यह हरकत जाहिर तौर पर गंभीर है, क्योंकि वे न केवल एक प्रमुख मंत्री हैं, अपितु सरकार के घटक दल के सर्वेसर्वा भी हैं। भाजपा ने तो पवार के रवैये को उनका घटक से हटने का संकेत तक मान लिया है। यह सही है कि बाद में पवार ने बयान से पलटा खाया, मगर इससे यह तो साबित हो ही गया कि मौजूदा गठबंधन भीतर ही भीतर सुलग रहा है।
इसका एक प्रमाण राष्ट्रीय जनता दल ने भी दिया। यह एक विरोधाभास ही है कि यह दल एक ओर तो सरकार को समर्थन दिए बैठा है तो दूसरी ओर उसकी राय ये है कि सरकार ज्वलंत मुद्दों से निपटने में नाकामयाब रही है। उसके प्रबंधक न तो सरकार के सहयोगी दलों के बीच ठीक से तालमेल बैठा पा रहे हैं और न ही आए दिन आने वाली समस्याओं को ठीक से निपटा पा रहे हैं।
मौजूदा गठबंधन कितना ढ़ीला है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेश दौरे पर जाने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में सांप्रदायिक दंगा विरोधी विधेयक से भी नाइत्तफाकी जाहिर कर साबित कर दिया कि सरकार को चलाने वाले घोड़े अलग-अलग दिशा में जाने को आतुर हैं। इसका एक प्रमाण ये भी है कि जिस टूजी मामले के कारण सरकार गहरे संकट में आ गई, उसके लिए मूलत: जिम्मेदार द्रमुक के नेता केन्द्र व राज्य में तो गठबंधन बनाए हुए हैं, मगर उन्होंने स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन से इंकार कर दिया। हालांकि इस तरह के विरोधाभास स्वार्थ की वजह से अब आम हो गए हैं, मगर गहराई से देखा जाए तो ये हैं काफी गंभीर। मनमोहन सिंह तो खुद की गठबंधन की मजबूरियों का रोना कई बार रो चुके हैं। और यही वजह है कि विपक्ष मध्यावधि चुनाव की राह जोह रहा है। उसकी आशा जायज ही प्रतीत होती है। कदाचित उसकी यह मनोकामना पूरी इस वजह से न हो पाए कि अनके विरोधाभासों के बावजूद स्वार्थ के कारण गठबंधन चलता रहे, मगर कम से कम आगामी चुनाव में तो तख्ता पलट की उम्मीद जगाता ही है।
-tejwanig@gmail.com
2 comments:
Aakalan to theek hi hai , par gathbandhan ki majbooriyon ka nidan kya ho ? priyasampadak@gmail.com
इसका एक मात्र उपाय है दो दलीय व्यवस्था अथवा छोटे मोटे दलों का पंजीयन समाप्त करना, जो केवल क्षेत्रीय हितों के लिए बने हुए हैं, वे अपने अपने राज्यों में भले ही राजनीति करें, मगर केन्द्र में नहीं
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