यह नहीं कि वाशिंगटन पोस्ट या टाइम गलत हैं या सही हैं। बस सवाल सिर्फ इतना है कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं वह उनकी खबर क्यों है? व्यावसायिक परिदृश्य में देखें तो मीडिया के नाम पर विदेशी मीडिया की मनमानी कतई लोक की आवाज नहीं है। यह नितांत विदेशी कूटनीति का हिस्सा है। इसलिए दुनिया के मंच पर जब देश के संदर्भ में कोई बात की जाए, तो सावधानी रखना जरूरी हो जाता है। कायदा ए कायनात में भी इंसान को अपनी आवाज पेश करने की इजाजत हक के बतौर बख्सी गई है। यह अच्छी बात भी है। आदिकाल से इंसानी बिरादरी को अनुशासित और गवर्न करने के लिए बनाई गईं व्यवस्थाएं सबसे ज्यादा डरती भी इसी से हैं। आवाजों को अपने-अपने कालखंडों में मुख्य बादशाही ताकतों ने कुचलने की कोशिश की है। कभी कुचली भी गई हंै, तो कभी सालों कैदखानों में बंद भी कर दी गईं हैं। किंतु फिर अचानक अगर कैद करने वाली बादशाही ताकत को किसीने उखाड़ा भी, तो वह यही कैदखानों में बंद आवाजें थीं। लोकतंत्र में इसका अपना राज और काज है। काज इसलिए कि यह अपनी स्वछंदता और स्वतंत्रता के बीच के फर्क से परे प्रचलन में रहती है। और असल में गलती इस आवाजभर की भी नहीं है, दरअसल आवाज को नियंत्रित करने वाले भी इसे गवर्न के नाम पर दबोच देना चाहते हैं, तो आवाजें बुलंद करने वाले आजादी के नाम पर अतिरेक कर डालते हैं। ऐसे में न तो आवाज की ककर्शता ही खत्म हो पाती है और न ही इसकी ईमानदारी ही बच पाती है। कहने का कुल जमा मायना इतना है कि माध्यमों की सक्रियता के चलते होने वाली उथल-पुथल और अर्थ स्वार्थ पर चिंता की जानी चाहिए। साथ ही यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि वह आखिरकार कहीं कैद न होकर रह जाए। मौजूदा सिनेरियो में आवाज को बकौल टीवी, प्रिंट और वेब मीडिया देखा जाना चाहिए। हर देशकाल में यह तो माना गया कि आवाज महत्वपूर्ण है। और यह भी जान लिया गया कि यह सर्वशक्तिमान से कुछ ही कम है। किंतु कहीं कोई मुक्कमल योजना नहीं बनाई जाती कि इसका इस्तेमाल कैसे करें। हर उभरते हुए लोक राष्ट्र में आवाजें भी समानांतर उभरती हैं। सरकारी व्यवस्थाएं भी सक्रिय होती हैं। किंतु दोनों ही एक खिंचाव के साथ आगे बढ़ती हैं। आवाजें उठती और बैठती रहती हैं। परंतु व्यवस्थाओं का एक ही मान रहता है कि वह इन जोर-जोर से सुनाई दे रहीं लोक ध्वनियों को सुनकर मान्यता नहीं देंगे। और यही दोनों की जिद अंतिम रूप में अतिरेक में बदल जाती है। आवाजें अपनी राह लाभ, हानि के विश्लेषण से परे होकर नापती रहती हैं, तो व्यवस्थाएं लोक सेवक का लड्डू हाथ में लिए निर्धुंध कानों में रूई ठूंसे हुई जो बन पड़ता है अच्छा बुरा काम किए जाती हैं। आवाजों का शोर और आवाजों की उपेक्षा दोनों ही इस काल में अपने चरम पर हैं। समूची दुनिया से नितनई सनसनीखेज बातें होती रहती हैं। एक माध्यम ने तो लीबिया के गद्दाफी को ही उखाड़ फेंका, तो असांज ने मुखौटे पहने हुए लोगों के गंदे चेहरे सबके सामने रखे। आवाजें अपना काम कर रही हैं। लेकिन यह इसलिए और ज्यादा कर रही हैं, कि इनकी ताकत को बादशाही शक्तियां या तो पहचानती नहीं है या फिर पहचानकर मान्यता देने के मूड में नहीं हैं। भारत में भी स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सियासी दलों के नेता बेनकाब होते रहे हैं और कालांतर में हाफ शर्ट पहनकर नीति, रीति और व्यवस्था को कब्जाए बैठे नौकरशाह भी चाल, चरित्र में बेढंगेपन के साथ सबके सामने आए। यह कारनामा किया इन्हीं आवाजों ने। राजतंत्र में आवाजों को नहीं आने दिया जाता था। और अगर किसी तरह से कहीं से आ भी गई तो कुचलने की ऐसी वीभत्स प्रक्रिया अपनाई जाती थी, कि लोगों की रूह कांप जाए। मगर जब दुनिया को लोकतंत्र की नेमत मिली तो व्यवस्थाओं के सामने खूबसूरत विकल्प था। एक ऐसा तंत्र ऐसी व्यवस्था, जिसे लोक ही चलाएगा, लोक ही बनाएगा और लोक के लिए ही यह बनी रहेगी। किंतु लोकतंत्र, जिसे भारी खून खराबे के जरिए बरास्ता यूरोप इंसानों ने पाया उसके मूल में आखिर यही आवाज व्यवस्था की नाक में दम करने फिर हाजिर थी। और इस बार यह आवाज कुछ ऐसी है कि इसे छाना नहीं जा सकता। बादशाही ताकतों को इसे अपने कानों में बिना किसी फिल्ट्रेशन के ही सुनना पड़ेगा। कर्कशता, गालियां, मनमानापन, बेझिझकी, बेसबूतियापन और सच्चाई, शांति, समझदारी से मिश्रित रहेगी। वाशिंगटन पोस्ट ने हमारे पीएम के बारे में जो भी लिखा, टाइम ने जो भी संज्ञा दी थी। यह सब कुछ इसी आवाज से निकलने वाली कर्कश ध्वनियां हैं। इन्हें रोका नहीं जा सकता है, किंतु उपेक्षित किया जा सकता है। संसार में सबसे बड़ी ताकत या तो दमन है या उपेक्षा। दमन जब नहीं किया जा सकता तो उपेक्षा कर देनी चाहिए। यह नहीं कि वाशिंगटन पोस्ट या टाइम गलत हैं या सही हैं। बस सवाल सिर्फ इतना है कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं वह उनकी खबर क्यों है? व्यावसायिक परिदृश्य में देखें तो मीडिया के नाम पर विदेशी मीडिया की मनमानी कतई लोक की आवाज नहीं है। यह नितांत विदेशी कूटनीति का हिस्सा है। इसलिए दुनिया के मंच पर जब देश के संदर्भ में कोई बात की जाए, तो सावधानी रखना जरूरी हो जाता है। वक्त आ गया है कि इन आवाजों को बादशाही ताकतें मान्यता दें। वक्त आ गया है कि आवाजों को नीति, रीति और योजनाओं में शामिल किया जाए। मुमकिन है फिर वाशिंगटन पोस्ट का कमेंट किसी देश के पीएम के लिए पूरी जिम्मेदारी के साथ आएगा और उसपर प्रतिक्रिया भी राष्ट्रीय सीमाओं की गरिमा के अनुकूल होगी। यह नहीं कि अपने शत्रु पड़ोसी की बुराई दूसरे मुहल्ले वाले करें तो हम भी दुंधभियां बजा-बजाकर करने लग जाएं। वरुण के सखाजी चीफ रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, रायपुर
6.9.12
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