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13.11.21

मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं की ताकत का आख्यान

शैलेन्द्र चौहान-

गजानन माधव मुक्तिबोध उन गिने चुने कवियों में थे जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के आधुनिक तथा कलात्मक बिंब और भाव कविता में लिए। उनकी एक कविता 'मुझे मालूम नहीं' में मनुष्य की उस असहायता का चित्रण है जिसमें वह यथास्थिति तोड़ नहीं पाता। वह दूसरों के बने नियमों तथा संकेतों से चलता है। उसका स्वयं का सोच दूसरों के सोच पर आधारित होता है। दूसरों का सोच सत्ता के आसपास का चरित्र होता है। सत्ता अपने को स्थापित करने के लिए मनुष्य के सोच की स्थिरीकरण करती है। परन्तु मनुष्य की चेतना कभी कभी चिंगारी की भांति इस बात का अहसास कराती है कि वह जो सामने का सत्य है उससे आगे भी कुछ है। संवेदनहीन होते व्यक्ति की संवेदना को वह चिंगारी पल भर के लिए जागृत करती है।


कोई फिर कहता
कि देख लो-
देह में तुम्हारे
परमाणु केन्द्रों के आसपास
अपने गोलपथ पर
घूमते हैं अंगारे
घूमते हैं इलेक्ट्रॉन
निज रश्मि-रथ पर

बहुत खुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि सांचे में ढ़ली हुई मूर्ति में मजबूत
फिर भी हूँ देवदूत

इलेक्ट्रॉन - रश्मियों में बंधे हुए
अणुओं का पुंजीभूत
एक महाभूत में

ऋण एक राशि का वर्गमूल साक्षात्
ऋण धन तड़ित् की चिनगियों का
आत्मजात
प्रकाश हूँ निज शूल
गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागना
भयानक अनुभव

फिर भी मैं करता हूँ कोशिश
एक धन एक से
पुन: एक बनाने का यत्न है अविरत!

(संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ - ७४)

मुक्तिबोध गणित, भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान की बात करते करते क्रूर व्यंग्य करते हैं उन तथाकथित महापण्डितों पर जो अपने अहंकार के मद में रूढ़ियों में जकड़े पड़े हैं। इसी में उनका स्वार्थ पुष्पित पल्लवित होता है। उनका तेज उनका प्रभामण्डल चकाचौंध तो पैदा कर सकता है पर विकासमान नहीं है और जो अवधारणा विकासवान नहीं है वह कालान्तर में नष्ट हो जाती है। ऐसी अवधारणाएं, ऐसी मान्यताएं, ऐसी क्रियाएं जो रूढ़िग्रस्त हैं अवैज्ञानिक हैं। मुक्तिबोध न केवल विज्ञान तथा वैज्ञानिक शब्दावली का चमत्कृत कर देने की हद तक उपयोग करते हैं बल्कि वैज्ञानिक बिम्बों तथा प्रत्ययों के माध्यम से अवैज्ञानिक सोच की निडर होकर तीव्र भर्त्सना भी करते हैं। मनुष्यता की वकालत समाज की बुराइयों तथा सड़ांघ को मिटाने का आवाहन करते हुए वह कहते हैं :-

भागो लपको, पीटो-पीटो
कि पियो दुख का विष
उस मनुष्य-आमिष-आशी की
जिह्वा काटो
पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो
विश्व तराशो, देखो तो उस दिशा
बीच सड़क में बड़ा खुला है
एक अंधेरा छेद

एक अंधेरा गोल-गोल
वह निचला-निचला भेद,
जिसके गहरे-गहरे तल में
गहरा गन्दा कीच
उसमें फँसो मनुष्य

घूसो अंधेरे जल में
-गन्दे जल की गैल
स्याह भूत से बनो, सनो तुम
मैन-होल से मनों निकालो मैल
(भूरी भूरी खाक धूल, पृष्ठ-७५)

मुक्तिबोध की कविता 'भविष्यधारा' की इन पंक्तियों में एक बड़े सीवर का चित्र है। मनुष्यता, मानवीय गुण, परोपकार की भावना, सामाजिक सरोकार लगता है जैसे एक बड़ी सीवर लाइन की तलहटी में समा गये हैं। मूल्यहीन समाज, चारों तरफ फैला गहन अंधकार, अनाचार यह सब कैसे साफ होगा इसके लिए ' मैन होल' से सीवर लाइन में घुसना होगा, भूत की तरह बनना और सनना होगा कीचड़ में तभी मनों मैल निकल पायेगा।

समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को आसानी से तो कदापि नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए तो बहुत बड़े प्रयत्न की आवश्यकता है, लगन की आवश्यकता है, इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। महज रोते रहने से ही तो समाज में व्याप्त असमानता और असहजता दूर नहीं हो सकती। उसके लिए पौरूष, सामर्थ्य और मनोबल वांछित है तभी मैल निकाला जा सकता है। यह कार्य इतना आसान नहीं है इसमें बहुत लोगों को लगना होगा।

उनकी कविताओं में सूक्ष्म और स्थूल वैज्ञानिकता और रूमानीपन साथ-साथ मिलते हैं। कहीं-कहीं कविताएं साधारण सी जिज्ञासा से प्रारंभ होकर गहन रहस्य की सृष्टि भी कर जाती हैं।कहा जा सकता है ये कविताएं निराला की संवेदनशीलता और कबीर के अक्खड़पन का अद्भुत सम्मिश्रण हैं।

मुक्तिबोध की रचनाएं सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भांति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरों के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यु की तरह अकेले ही जूझते हैं अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है; जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है - ''वे आते होंगे लोग.../ अरे जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे/ ये मौन उपेक्षित रत्न/ मात्र तब तक/ केवल तब तक/ तुम छिपा चलो धुरिमान उन्हें तम गुहा तले/ ओ संवेदन मय ज्ञान नाग/ कुन्डली मार तुम दबा रखो/ फूटती रश्मियां।''
''वे आते ही होंगे लोग/ जिन्हें तुम दोगे देना ही होगा पूरा हिसाब/ अपना सबका, मन का, जन का।''

सुविधापरक लोगों ने जिन मूल्यों को फेंक दिया है उसे वे ढूंढना चाहते हैं ताकि व्यवस्था में परिवर्तन हो सके। वे रागात्मक कविताओं का आह्वान करते हैं ताकि जानबूझकर फेंके गए रत्नों को ढूंढा जा सके- ''लहराओ लहराओ रागात्मक कविताओं/ झाड़ियों छिपो/ उन श्याम झुरमुटों तले कई/ मिल जाएं कहीं/ फेंके गए रत्न ऐसे/ जो बहुत असुविधा कारक थे/ इसलिए कि उनके किरण सूत्र से होता था/ पट-परिवर्तन, यवनिका पतन/ मन में जग में।''

वे समाज के ब्रह्मदेवों का पर्दाफाश करना चाहते हैं, उनका असली चेहरा दिखाना चाहते हैं। उन नीतियों को बदल देना चाहते हैं, जिनके चलते अमीरों के मुख दीप्त और गरीबों के मुख श्रीहीन नजर आते हैं। जिनकी वासना और लिप्सा विक्षिप्त युवतियों को भी नहीं बख्शती और वे उनकी लिजलिजी वासना को ढोने को विवश हो जाती हैं-

''वह पागल युवती सोयी है/ मैली दरिद्र स्त्री अस्त-व्यस्त/ उसके बिखरे हैं बाल व स्तन है लटका सा/ अनगिनत वासना ग्रस्तों का मन अटका था/ उनमें जो उच्छृंखल विश्रृंखल भी था/ उसने काले पल में इस स्त्री को गर्भ दिया।''

मुक्तिबोध एक समाज चेता रचनाकार हैं। वे अंधेरों से मुंह नहीं फेरते बल्कि अंधेरे की ओर उंगली उठाने का साहस रखते हैं। उसका दुष्परिणाम भी वे जानते हैं क्योंकि अंधेरे के साथी सभी प्रभावशाली लोग हैं फिर भी वे अंधेरे को उजागर करते हैं-

''विचित्र प्रोसेशन/ गंभीर क्वीक मार्च कलाखतू वाला जरीदार ड्रेस पहने चमकदार बैंड दल/ बैंड के लोगों के चेहरे/ मिलते हैं मेरे देखे हुओं से/ लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार/ इसी नगर के/ बड़े-बड़े नाम अरे/ कैसे शामिल हो गए इस बैंड दल में।

भई वाह!

उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण। मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान। यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमा जी उस्ताद।

यह है हमारा, हमारी नैतिकता का असली चेहरा बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साहित्यकार, पत्रकार अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हत्यारों के साथ हो लेते हैं।

मुक्तिबोध प्रश्न करते हैं अपने आपसे और अपने बहाने समाज से, हम सबसे। हम सब जो अपनी-अपनी खोल में सिमटे हुए हैं, सबके सब दोषी हैं। मुक्तिबोध की ये पंक्तियां आत्मालोचन करती हैं-''अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। बताओ तो किस किसके लिए तुम दौड़ गए। करूणा के दृश्यों से हाथ मुंह मोड़ गए। बन गए पत्थर। बहुत बहुत लिया। दिया बहुत कम। मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम।'' और आलोचना के इन्हीं क्षणों में उन्हें महसूस होता है कि कोई है जो उनसे उम्मीदें रखता है। वह अपना अनुभव शिशु उनके सुरक्षित हाथों में सौंपना चाहता है- ''एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर/ मूर्ति की ठठरी/ नाक पर चश्मा हाथ में डंडा/ कंधे पर बोरा, बांह में बच्चा/ आश्चर्य अद्भुद यह शिशु कैसे/ मुस्करा उस द्युति पुरुष ने कहा, तब/ मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था/ संभालना इसको, सुरक्षित रखना।''

और उन्हें लगता है कि अब खतरे उठाने का समय आ गया है। वे संकल्प चाहते हैं देश से, समाज से, खासकर अपने आपको देश और समाज का प्रवक्ता कहने वाले लोगों से- ''अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़/ पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/ तब कहीं देखने मिलेगी बांहें/ जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता अरूण कमल एक।'' वे शोषण मुक्त अन्याय रहित समाज चाहते हैं। तमाम अंधेरों को भेदकर एक किरण उतारना चाहते हैं, जो खिला सके उम्मीदों का अरूण कमल। मगर अफसोस तो यह है कि कोई साथ नहीं है। सब रक्तपायी व्यवस्था के साथ नाभिनाल आबद्ध हैं-''सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक। चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं। उनके खयाल से यह सब गप है मात्र किवदन्ती। रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल बध्द ये सब लोग नपुंसक भोग शिरा जालों में उलझे।''

मुक्तिबोध और लम्बी कविता हिन्दी में एक तरह में समानार्थी शब्द बन गए । अपनी डायरी में उन्होंने लिखा भी है कि यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं और पूरा यथार्थ गतिशील, इसलिए जब तक पूरे का पूरा यथार्थ अभिव्यक्त न हो जाये कविता अधूरी ही रहती है। ऐसी अधूरी कविताओं से उनका बस्ता भर पड़ा था जिन्हें पूरी करने का वक्त वे नहीं निकाल पाये। अधूरी होने के बावजूद मुक्तिबोध के मन में इनके प्रति बड़ा मोह था और वे चाहते थे कि उनके पहले संग्रह में भी इनमें से कुछ जरूर ही प्रकाशित करा दी जायें। अपनी छोटी कविताओं को भी मुक्तिबोध अधूरी ही मानते थे। मेरे खयाल से उनकी सभी छोटी कविताएं अधूरी लम्बी कविताएं नहीं हैं। उनकी भावावेशमूलक रचनाएं अपने आप में सम्पूर्ण हैं जिनमें से कई इस संग्रह की शोभा हैं जैसे ‘साँझ और पुराना मैं’ या ‘साँझ उतरी रंग लेकर’, उदासी का शीर्षक रचनाएं। भूरी भूरी खाक धूल में संग्रहीत लम्बी कविताएं चाँद का मुंह टेढ़ा है की तुलना में कमजोर, शिथिल और बिखरी-बिखरी सी जान पड़ती है। कारण स्पष्ट है। कवि के जीवन के उत्तर-काल की होने के कारण चाँद का मुंह टेढ़ा है की लम्बी कविताएं फिनिश्ड रचनाएं हैं और खाट पकडऩे के पहले कवि ने उनका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया था। शेष कविताओं पर काम करने का वक्त उन्हें नहीं मिल पाया।

लम्बी कविता को साधने के लिए मुक्तिबोध नाटकीयता के अलावा अपनी सेंसुअसनेस का भी भरपूर उपयोग करते हैं। इस कला में महारज उन्हें अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में ही हासिल हुई। परवर्ती लम्बी कविताओं में उनकी लिरिकल प्रवृत्ति एकदम घुल-मिल गयी है। शायद इसीलिए अपने अन्तिम वर्षों में उन्हें शुद्ध लिरिकल रचनाएं लिखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इसके विपरीत भूरी भूरी खाक धूल में प्रगीतात्मक रचनाओं के अलावा विशिष्ट मन:स्थितियों के भी अनेक चित्र मिल जाएंगे जिनका होना, संभव है कुछ लोगों को चौंकाये लेकिन इनका होना अकारण नहीं है।

मुक्तिबोध के लेखन का बहुत थोड़ा हिस्सा उनके जीवन-काल में प्रकाशित हो सका था। जब उनकी कविता की पहली किताब छपी तब वे होश-हवास खो चुके थे। एक तरह से उनका सारे का सारा रचनात्मक लेखन उनके मरने के बाद ही सामने आया। आता जा रहा है। मरणोत्तर प्रकाशन के बारे में जाहिर है हम जितनी भी एहतियात बरतें, थोड़ी होगी क्योंकि हमारे पास जानने का साधन नहीं होता कि जीवित रहता तो कवि अपने लिखे का कितना हिस्सा किस रूप में प्रकाशित कराने का फैसला करता। खासतौर से मुक्तिबोध जैसे कवि के बारे में तो हम अपने को हमेशा ही संशय और दुविधा की स्थिति में पाते हैं। वे दूसरों को लेकर जितने उदार थे खुद को लेकर उतने ही निर्मम और निर्मोही। जो लोग उनकी रचना-प्रक्रिया से परिचित हैं, जानते हैं कि अपनी हर रचना वे कई-कई बार लिखते थे। कविता ही नहीं गद्य भी।

‘कामायनी एक पुनर्विचार’ किताब-रूप में उन्होंने सन् 50 के आसपास ही लिख डाली थी और वह मुद्रित भी हो चुकी थी। लेकिन किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो सकी। कोई दस बरस बाद जब उसके प्रकाशन का डौल जमा तो मुक्तिबोध ने संशोधन के लिए एक महीने का समय मांग कर पूरी की पूरी किताब नये सिरे से लिखी। ‘वसुधा’ में प्रकाशित डायरी-अंशों और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रारूपों को आमने-सामने रखकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। कविता के मामले में तो वे और भी सतर्क और चौकस थे। जब तक पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएं कि उनका अभिप्राय शब्द के खांचे में एकदम ठीक-ठीक बैठ गया है, वे अपनी रचना को अधूरी या ‘अन्डर रिपेयर’ कहते थे। दोबारा-तिबारा लिखी जाने पर उनकी मूल रचना सर्वथा नया रूपाकार पा पाती। मुक्तिबोध की पांडुलिपियों को खंगालते हुए किसी भी दूसरे आदमी के लिए तय करना सचमुच बहुत मुश्किल है कि उनकी रचना का कौन-सा प्रारूप अंतिम है। जीवित होते तो शायद उनके लिए भी यह तय करना बहुत आसान न होता।

संपर्क:34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो. 7838897877

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