अरुण श्रीवास्तव-
है तो यह एक मुंबइया फिल्म का डायलाग लेकिन मजीठिया वेजबोर्ड पर काफी हद तक लागू होता है। आखिर अब तक हर किसी को तारीख ही मिली। किसी को श्रम विभाग से मिल रही है तो किसी को श्रम न्यायालय से। शायद वो खुशकिस्मत होंगे जिन्हें हाई कोर्ट से तारीख मिल रही है। वो भी तब जब बामुश्किल तीन सेपांच फीसद लोगों ने साहस दिखाया और कोर्ट के सुझाए रास्ते को अपनाते हुए वेजबोर्ड की रिपोर्ट की संस्तुतियों के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ मांगा लेकिन 10 साल बाद उन्हें मिला क्या ... ?
11 नवम्बर 2021 को मजीठिया वेजबोर्ड को लागू हुई पूरे दस साल हो गए। मतलब यह कि, 11-11-12011 को लंबी, झेलाऊ और उबाऊ लड़ाई लड़ने के बाद पत्रकारों/गैर पत्रकारोंके लिए गठित वेज बोर्ड ने कानूनी जामा पहना। इसके पहले के सभी के सभी (पालेकर, बछावत, मणिशाना सहित अन्य) की संस्तुतियों को रद्दी की टोकरी में जाने को विवश कर दिया गया। अब मजीठिया वेजबोर्ड की ही बात करें तो कम 'पापड़ नहीं बेलने' पड़े इसे कानूनी रूप हासिल करने में। चुनाव सिर पर होने के कारण मनमोहन सरकार ने समय से पहले वेज़ बोर्ड का गठन कर दिया। अर्से बाद रिपोर्ट सौंपी गई तो हीला-हीवाली के बाद यह सदन के पटल पर रखी गई।
लोकसभा-राज्यसभा से पारित होने के बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हुए और बन गया कानून। इसी बीच मालिकान सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये। याद रहे पत्रकार से लेकर संपादक तक श्रमजीवी पत्रकार हैं इनके लिए श्रम न्यायालय है ये भी सीधे श्रम न्यायालय, उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकते। उक्त न्यायालय याचिका खारिज कर देंगे। पर मालिकान सीधे उच्चतम न्यायालय चले गए और याचिका भी खारिज नहीं हुई। नौकरी से निकाले जाने पर मेरी याचिका 480/16 लंबित है। मुझे दंडित करने की बात कही गयी और याचिका पांच साल से अधर में है।
बहरहाल वेजबोर्ड के खिलाफ़ मालिकों की न ही मंजूर हुई हर बार मुंह की खाने के बाद तमाम अधिकारों के रास्ते जैसे आदेश को चुनौती, पुनरीक्षण, बड़ी बेंच की शरण में जाना तथा अवमानना के दायरे से गुजरी। थक-हार कर सर्वोच्च न्यायालय ने वेजबोर्ड को लागू करने की जिम्मेदारी विभिन्न विभागों के श्रम विभाग को सौंप दी।
यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन अब श्रम विभाग कराएगा। जो श्रम विभाग अपने नाम पर बने श्रम कानूनों का पालन नहीं करा पा रहा है, श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 (काम के घंटे, काम का प्रकार) नहीं लागू करा पा रहा है अब वह वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू कराएगा। जून 2016 में मैंने श्रम आयुक्त उत्तराखंड को वेज़ बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए आवेदन किया। सरकारी रीति के अनुसार श्रम आयुक्त ने इसे विभाग के उप श्रम आयुक्त के पाले में कर दिया। उप श्रम आयुक्त ने अपने सामने की इमारत में काम करने वाले सहायक श्रम आयुक्त के पाले में मेरा आवेदन पत्र सरका दिया। यह तो गनीमत थी कि उनके नीचे इस तरह का कोई अन्य अधिकारी नहीं था नहीं तो वे उसके पाले में धकेल देते। यहां यह बताना जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों के श्रम सचिवों को जिम्मेदारी सौंपी थी। श्रम सचिव ने अपने विभागीय अधिकारियों (श्रम आयुक्त, उप श्रम आयुक्त और सहायक श्रम आयुक्त को पाॅवर दे दी। आम बोलचाल की भाषा में अपना दायित्व उन्हें सौंप दिया। अब इसे दरियादिली कहें या कुछ और यह मैं भी आप पर छोड़ देता हूँ।
अब शुरू होती है श्रम विभाग की कार्यशैली-कार्यप्रणाली। अव्वल तो विभाग के अधिकतर अधिकारियों को पता ही नहीं कि मजीठिया वेजबोर्ड है क्या बला। साल दो साल यहां भी चलता है सुनवाई का नाटक। अंत में विभाग भी इसे औद्योगिक विवाद मान मामले को श्रम न्यायालय के हवाले कर अपने कर्तव्य की "इतिश्री" कर लेता है। मेरा खुद का मामला (01/2016) महीनों श्रम विभाग में चला। बाद में औद्योगिक विवाद मान कर लेबर कोर्ट को सुपुर्द कर दिया गया। जब वेजबोर्ड की सिफारिशें तमाम दलीलों को खारिज कर कानून का रूप धारण कर लिया तो औद्योगिक विवाद कहां से हो गया। श्रम विभाग को ही सीधे RC जारी करनी चाहिए।
प्रसंगवश एक मामला दैनिक जागरण का। इसके सभी कर्मचारी न जाने कैसे किसी कानून जैसे श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 या श्रम कानून की धारा 20-J की चपेट में आ गए। एक कर्मचारी साहस कर मजीठिया वेतन बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए आवेदन किया। श्रम विभाग ने उसके मामले को खारिज कर दिया। वह हाई कोर्ट गया। हाई कोर्ट ने उसके मामले को श्रम सचिव उत्तराखंड को भेज दिया। किसी ने सच दुनिया गोल है। जहां से मामला चला था वहीं आ गया। उत्तर प्रदेश में एक कहावत है,' ढाक के तीन पात'। सुप्रीम कोर्ट ने वेजबोर्ड को लागू करने की जिम्मेदारी विभिन्न विभागों के श्रम सचिव को सौंपी। मामला हाई कोर्ट पहुंचा, हाई कोर्ट ने श्रम सचिव को सुनकर हल करने को कहा।
ऐसे ही राष्ट्रीय सहारा के तीन कर्मचारियों को नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा श्रम विभाग से श्रम न्यायालय पहुंचा। कर्मचारियों की जीत हुई। अंतिम तारीख के कुछ दिन पहले प्रबंधन उनमें से एक कर्मचारी के वाद पर श्रम न्यायालय के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा। हाईकोर्ट ने उक्त मामले को श्रम विभाग के हवाले कर दिया। दो तीन साल से यह मामला श्रम विभाग में है।
अब जब श्रम विभाग ने अब गेंद न्यायपालिका के हवाले कर दिया तो तारीखों के मकड़जाल में इसे भी उलझना था। तारीखों के बीच पदनाम का पेंच फंस गया। न सुलझने पर वाद दूसरी बार दायर करना पडा। दूसरा वाद 05/2018 मई 21 में लेबर कोर्ट पहुंचा। अगली तारीख 22 नवम्बर है।
बहरहाल... अब देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले की समीक्षा जिला स्तर की अदालतें करेंगी। यानी साल-छह महीने मामला श्रम न्यायालय में चलेगा, फैसला आएगा, उस फैसले के खिलाफ अंतिम तिथि पर नियोक्ता हाईकोर्ट जाएंगे। हो सकता है कि दो-तीन साल वहां लग जाए और जब फैसला आये तो नियोक्ता उस फैसले के खिलाफ तय अवधि बीतने की अंतिम तारीख में डबल बेंच में चला जाए। मामला हाई कोर्ट की हद से निकले तो कोई भी एक पक्ष जो समझे कि मेरे साथ अन्याय हुआ है वह तय तारीख के अंतिम तारीख पर सुप्रीम कोर्ट चला जाए तो... यानि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट।
यहाँ यह भी बताना मौजू है कि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना का मामला सुप्रीम कोर्ट में लगभग दो साल तक चला था।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून।
8218070103
2 comments:
धन्यवाद भड़ास के टीम को यशवंत सर
आप ने ये जानकारी पब्लिश किया बहुत बहुत धन्यवाद।
प्रणाम
हमारे प्रेरक माननीय सदस्यगण,
हम सभी सदस्योंको मिलकर न्यूजपेपर ट्रैड यूनियन औफ इंप्लाय नाम देकर एक लीगल बौडी फ्रें करना होगा । लीगल बौडी होने से प्रतिनिधियोका बात सभी माननीय सदस्योंका बात माना जाएगा । हमारा 33 c -1 फौरमैट भी हमें वही सुरक्षा प्रदान करता है । माननीय न्यायालय का स्पष्ट कहना है कि मजीठियासे संबंधित शिकायतों हेतु कोर्टमें आनेसे परहेज करे. अथवा करनी चाहिए अथवा बचें अथवा बचना चाहिए तो हमारी भी कोशीश यही होनी चाहिए कि माननीय न्यायालय के आदेसों का अक्षरशः पालन करने हेतु सभी प्रयत्न करने चाहिए जो किए जा सके ।
और्डर औफ ए कोर्ट टूबी इँप्लीमेंटेड ऐट एनी कौस्ट एक तरफ यह एक बात है और दूसरी तरफ 33 c -1 ऐप्लीकेशनकी लाखोंकी संख्या है अब देखना ये है कि रिकवरी होगी कैसे ।
क्योंकी ईँडस्ट्रीयल डिस्प्यूट्स ऐक्ट 1947 को म्यूटैटिस म्यूटैंडिस रूप मे वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट 1955 45 औफ 1955 पर लागू होना कईबार माननीय उच्च एवं हमारे देशके माननीय सर्वोच्च न्यायालय के जजमेंटोमें कहा गया है ।
33 c -1 एप्लीकेशनकी वही वैधता वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट 1955 की धारा 17 (1) के समान है। लेबर कमीश्नर्श औफिस दोनो ऐक्टमें समानरूपसे ही रिकवरी करते हैं ।
मजीठिया एवार्ड अपने-आप मे ही एक अवार्ड है तो क्या अवार्डके उपर माननीय ट्रायल कोर्ट फिरसे अवार्ड जारी करेंगे ।
मजीठिया एवार्डकी अब रीट्रायल कैसे हो सकती...
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