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28.9.08

सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे

मुझे इस बात का गर्व है कि मैं भारत का एक मतदाता हूं और साथ ही इस बात का अफसोस भी कि सिर्फ एक मतदाता ही हूं। मुझे इस बात का कोई अधिकार नहीं कि देश में हो रही किसी भी गड़बड़ी के लिए सरकार से जवाब मांग सकूं। मैं मतदाता तब से हंू, जब अटल बिहारी जी की सरकार बनी थी। उनका एजेंडा था- राम मंदिर। प्योर साम्प्रदायिक। चूंकि मैं भी राम को ही मानने वाला किन्तु अल्लाह का विरोधी नहीं। किसी मस्जिद को तोड़ना मेरा ध्येय नहीं, किन्तु राम मंदिर हर हिन्दू की तरह मेरा भी स्वाभिमान। मेरे बालिग किन्तु बालमन ने भी कहा- सरकार तो वही बने, जो राम का मंदिर बनाए। लहर थी राम नाम की। भाजपा ने एनडीए बनाई और सत्ता में आई। किन्तु राम मंदिर जो वह सत्ता में आने के तीन माह में बनाने वाली थी, बनाना तो दूर, चार साल बाद तक उस बारे में जुबान भी नहीं खोली। मालूम था, इस बार तो किसी तरह राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं ने जिताया, परन्तु मुçस्लम तुष्टिकरण के बिना अगली बार सत्ता में आना असंभव। एक आम मतदाता उस समय भाजपा से नहीं पूछ सका कि उसके एजेंडे का क्या हुआ। पाकिस्तान में तख्ता-पलट के समय जब पूरे विश्व में मुशरüफ की थू-थू हो रही थी, तो सबसे पहले हमारे ही प्रधानमंत्री ने उन्हें राष्ट्रपति महोदय कहकर समझौता वार्ता के लिए निमंत्रण भेजा।

अगले चुनावों के वक्त मैं भाजपा का पक्षधर बिल्कुल भी नहीं था, परन्तु पारिवारिक माहौल भाजपा का रहने के कारण मतदान जरूर उसके पक्ष में किया। लेकिन हृदय से सदैव कांगे्रस के लिए ही दुआ निकली। लगता था भाजपा के बूढ़े तो अपनी ही राजनीति में लड़ मरेंगे, लेकिन कांगे्रस में अभी भी कुछ युवा हैं। यूपीए की सरकार बनी तो मन को सुकून मिला। लेकिन वह भी मुçस्लम तुष्टिकरण के साथ रही। देश की संसद पर हमले का आरोपी फांसी की सजा पा चुका। उसने तो राष्ट्रपति से क्षमा माफी अपील तक करने से मना कर दिया और हमले को सही करार दिया। पर हमारी सरकार के ही कुछ प्रतिनिधियों ने उसकी क्षमा माफी याचिका राष्ट्रपति के पास भिजवाई और आज तक उसका पता नहीं है। वह शख्स , जिसे पकड़ते ही गोली मार दी जानी चाहिए थी, आज भी जिंदा है। कौन कह सकता है कि वह जेल में है। जनता को भ्रमित करने के लिए जरूर जेल में है, परन्तु ऐशो-आराम वही हैं। पैसा सब कर देता है। संसद से मुझे कोई लेना-देना नहीं होता, अगर वह भारत में नहीं होती। अबु सलेम चुनाव लड़ने की तैयारी तक कर चुका। एक आम मतदाता उससे भी नहीं पूछ सका कि देशद्रोहियों को क्यों बख्शा जा रहा है।

देश में धड़ाधड़ बम ब्लास्ट हो रहे हैं। सरकार क्या सोई हुई है। हमारी सरकार मात्र कुछ लाख रुपए मृतकों को देकर ही इतिश्री कर लेती है। पुलिस का काम है अपराधियों को पकड़ना। लेकिन सजा दिलाना भी तो किसी का धर्म है। पुलिस अगर किसी को एनकाउंटर करती है, तो उसे फर्जी करार देकर पुलिस को ही बदनाम किया जाता है और यदि सबूत के साथ पकड़ भी ले, तो भी सबूत सही नहीं कहकर न्यायालय से फटकार खानी पड़ती है। न्यायालय में यदि सही सबूत भी हुए और सजा भी हुई, तो भी क्या वे सजा पा जाते हैं, सोचनीय विषय है।

भारत के ही कुछ लोग भारत में ही रहकर भारत के ही खिलाफ बोलते हैं। जयपुर धमाकों में पकड़े गए आतंकवादी के पक्ष में जामा मस्जिद का इमाम आंदोलन की धमकी देता है। कहता है उसे रिहा नहीं किया, तो देश में दंगा हो जाएगा। सरकार क्यों ऐसे लोगों के खिलाफ कुछ नहीं कर पाती। कश्मीर में पाकिस्तान के पक्ष में आंदोलन हो रहे हैं, परन्तु वोट के लालच में सत्ताधीश अंधे-बहरे और गूंगे तक हो गए हैं।
कई बार मैं सोचता हूं कि आम मतदाता की पदवी को अपने नाम से ही हटा दूं, परन्तु यदि ऐसा करता हूं तो भी मेरा वोट रद्द हो जाएगा और मैं शायद भारत का नागरिक ही ना रहूं। तो कहीं तो मेरा अस्तित्व रहे, इसलिए मुझे वोट देना पड़ता है। उम्मीदवारों में एक हत्या का आरोपी है तो दूसरा बलात्कार का। तीसरा बलवा का, तो चौथा भूमाफिया है। पांचवा नशेड़ी और जुएबाज है, तो छठा लठैत है। किसी एक को तो मत देना ही पड़ेगा। किसे दूं भारत के संविधान से यह पूछने का अधिकार भी नहीं है मुझे।

1 comment:

Asha Joglekar said...

सही है दर्द ही दर्द है ।