प्रकाश चण्डालिया
अज्ञात ठिकाने से किन्हीं पल्लवी अग्रवाल ने स्व.रामअवतार गुप्ता पर लिखे मेरे पोस्ट पर अपनी जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यह पोस्ट मीडिया जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग भड़ास.कॉम ने भी प्रकाशित किया था। मैं पल्लवी अग्रवाल से परिचित नहीं हू, फिर भी इस सम्बन्ध में सुधी पाठकों के बीच दो-तीन बातें जोडऩा जरूरी समझता हूं।
स्व.रामअवतार गुप्ता के बारे में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए हैं, बेशक उनके हैं और मेरे पास उसका विरोध करने का कोई तार्किक औचित्य भी नहीं है। पर उनका यह लिखना कि श्रद्धांजलि की आड़ में चापलूसी एवं ....(एक नया शब्द उन्होंने ईजाद किया है, जिसका अर्थ मेरी समझ से बाहर है) करना ठीक नहीं है। गुप्ताजी को उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता का शोषक और ताबूत में आखिरी कील ठोकने वाला आदि कहा है। मरणोपरान्त सम्मानित पेशे से जुड़े किसी सज्जन के प्रति ऐसी टिप्पणी से मेरी तरह औरों की आंखें भी पहली बार ही दो-चार हुई होंगी।
पल्लवी जी से कहना चाहूंगा कि मैंने सन्मार्ग में स्तंभ भी लिखा है और फ्रीलांसर के रूप में काफी समय तक मेरी रिपोर्टें भी छपीं हैं। यह 1987-91 के दौर की बात है। सन्मार्ग मुझे अवसर दे, इसके लिए मैंने कभी गुप्ताजी की न तो चिरौरी की, न चमचागिरि। सन्मार्ग में मैंने कभी काम नहीं किया जबकि फाकाकशी उन दिनों मुझ पर भारी पड़ रही थी। यदि चमचागिरि पर ही पत्रकारिता करनी होती तो 1989 में मैं कोलकाता से पत्रकारिता करने का सपना लेकर भोपाल नहीं जाता। वहां श्री स्वामी त्रिवेदी के स्वामित्व वाले मध्य भारत के लिए बाकायदा लिखित परीक्षा देकर उत्तीर्ण नहीं हुआ होता और रविवार जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक एवं आज तक के संस्थापक संपादक स्व. एस. पी.सिंह एवं टाइम्स ऑफ इंडिया के डा. अजय कुमार ने तुंरत ज्वाइन करने का ऑफर नहीं दिया होता। संडे मेल के कोलकाता संस्करण में 1990 में श्री उदय सिन्हा ने मेरा चयन नहीं किया होता।
यह अलग बात है कि 1991 में जनसत्ता ज्वाइन कर लेने के बाद गुप्ताजी ने कई अवसरों पर सन्मार्ग ज्वाइन करने का प्रस्ताव रखा था। मुझे नहीं समझ पड़ता कि आखिर मैंने किन अर्थों में गुप्ताजी की चापलूसी की? और आज उनके नहीं रहने पर चापलूसी करके मैं क्या हासिल कर लूंगा?
पल्वीजी, मैं आपकी बातों से आहत महसूस कर रहा हूं। मेरे 26 वर्ष के पत्रकारिता के कैरियर में किसी की चापलूसी लेने जैसी कोई घटना हुई हो तो अवश्य सार्वजनिक करें। मेरी भी तो आंख खुले। और हां, हिन्दी पत्रकारिता के ताबूत में कील ठोकने का मैंने जो काम किया है, कृपया उसकी भी पड़ताल करें। लोगों को बताएं।
हां, यह सही है कि और शहरों की तरह कलकत्ता में धनपशुओं की कमी नहीं है और मौके-बेमौके उन्हैं दूहने का काम जैसा दूसरी जगह होता है, यहां भी होता रहता है। पर मेरी जानिब से यदि किसी धनपशु के दोहन की कोई घटना हुई हो तो कृपया जरूर बतावें। आभारी रहूंगा।
राष्ट्रीय महानगर अपने पाठकों के बल पर 8 वर्षों से निकल रहा है। हजारों पाठकों को अपना साथी इसने बनाया है तो इसके पीछे अखबार के तेवर हैं। अगर धनपशुओं की तरह पैसे की हवस होती तो इस अखबार ने कब का डीएवीपी करा लिया होता।
स्वाभिमानी तेवरों के साथ अखबार निकलाने वालों पर ओछी टिप्पणियां करने से पहले थोड़ा आत्मसंयम रखना चाहिए। पल्लवीजी या इस नाम से जिस भली आत्मा ने भी अपने विचार लिखे हैं, जवाब देंगी, ऐसी अपेक्षा है।
28.9.08
पल्लवी अग्रवाल के ध्यानार्थ
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3 comments:
भई मै तो कहता हूं की कुछ लोग नैतिक साहस ही नही जुटा पाते की सामने आएं।अगर पल्ल्वी जी सही है तो उन्हे सच्चाई अपनी पहचान के साथ रखनी चाहिए।हम उन्के साथ होंगे।
भई मै तो कहता हूं की कुछ लोग नैतिक साहस ही नही जुटा पाते की सामने आएं।अगर पल्ल्वी जी सही है तो उन्हे सच्चाई अपनी पहचान के साथ रखनी चाहिए।हम उन्के साथ होंगे।
sachi baat batani chagiye sahi kiya
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