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30.9.08

ख़राब होती व्यंगात्मक भाषा

आज के दौर मैं लेखकों के साथ विचारकों , बड़े आधिकारिओं एवं कुछ न्यूज़ चैनलों की भाषा ख़राब होती जा रही है आज के दौर मैं लोग कुछ ज्यादा ही रस लेकर दूसरों के दोष गिनाने चल पड़ते है जिस भाषा का विकास हमारे प्रसिद्ध लेखकों ने किया, उसका कम अब केवल खिल्ली उडाना ही रह गया हैं आज वे लेखक नहीं हैं जो अपनी बात समझाकर तर्कों से रखते थे ये बड़े जोर से दावा करते हैं की ये लोगों को सच्चाई बता रहें हैं, लोगों को गुमराह होने से बचा रहें हैं आदि पर इनके लेखन में अधिकतर दूसरों की खिल्ली ज्यादा और काम की बात कम होती हैं इस लोकतंत्र में अलग-अलग विचारधारा हैं अतः दूसरों को ग़लत कहकर या अपनी बात से तुलना कराकर बहुत से लेखक अपने विचारों को जनता पर थोप देते हैं मेरे विचार से आज की जनता पर विचार थोपना अपने आत्मविश्वास पर भरोसा न करने के बराबर हैं जनता जो हर पल प्रत्यक्ष को देखती है, सामाजिक व्यवहार को पहचानती है, उसे अज्ञानी समझाना और अपने को ज्ञानी मानना हास्यास्पद ही है अगर आपको अपने पर पूरा भरोसा है तो इस बात से मत घबराइए की लोग आपकी बात मानेंगे या नहीं, आप निरंतर प्रयास कीजिये लोगों पर छोड़ दीजिये की वे किस विचारधारा को मानना चाहते हैं केवल बढ़िया तर्क और ज्ञान की बातें हमें अपने लेखों में रखनी चाहिए, फिर देखिये लोगो को कट्टरता छोड़ कर आपकी बात समझनी ही पड़ेगी कुछ मीडिया सनसनी खबरें छापने के लिए ग़लत भाषा काम प्रयोग करते हैं, मेरे विचार में यह सही नहीं हैं
रबिन्द्र नाथ टेगोर ने भी कहा है की "अंध" नामक शब्द से दूर रहो इससे दूर रहो "मै सहीं हूँ और मैं ही सहीं हूँ "