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30.9.08

आ गइल 'महतारी'

अपनी लोगन के बिछड़ला के केतना दुख होला सबके पता बा। दुख वो समय अउरी बढ़ जाला, जब अपनी 'महतारी' के लोग भुला जाला, अपनी भाषा के बिसरा देला, सांस्कृति से दूर हो जाला, अपनी माटी के महक से अंजान हो जाला। अपनी देश में भी करोड़ों लोग एइसन बाड़ें जे ये तरह के गलती करत बाडऩ। कहे के मतलब बा कि सात समंदर पार रही के भी जनम धरती और भाषा के नाहीं भुलाए के चाहीं। काहें कि इहे आपन जीवन ह, महतारी है। एही लोगन के सजग करे के खातिर हम 'महतारी' ब्लाग लेके आइल बानी। 'महतारी' मतलब अपनी भाषा में आपन बात। 'महतारी' में भोजपुरी से जुड़ल सब जानकारी देवे के कोशिश कइले बानी। उम्मीद बा कि अउरा सभे के 'महतारी' पसंद आई। सुझाव के इंतजार रही।

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पहिला रचना पेश बा-------

कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया
मंतोष सिंह

जात रहनी बहरा, रुआंसु भइल अंखिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
माई छुटली, बाप अउरी घरवा दुअरिया
जिनगी अंहार भइल, गइल अंजोरिया
जिया में डसेला, परदेस वाली रतिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
गंउवा के खेतवा में, बइठे ना कोयलिया
सरसो ना जौ, गेंहू, लौउके ना बलिया
चारू ओर पसरल बा, दिन में अंहरिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
शादी-बियाह में लौउके नाहीं डोली
छठ, जिऊतिया, तीज होखे नाहीं होली
फुरसत ना बा इंहा, बाटे ना बटोहिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।
मन नाहीं लागताअ, लिखतानी पतिया
हमके भेजा दअ यार, गंवई से गडिय़ा
अब ना सहाताअ, परदेस में दरदिया
कइसे रहबअ, तोर बिन संघतिया।।