Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

31.8.09

प्रेमांचल: अदला-बदली

प्रेमांचल: अदला-बदली
अरे वाह....क्या बात है....इस प्रेमांचल में प्रेम का आँचल बड़ा ही दूर तक फैला हुआ है.....हा...हा....हा...हा..हा...शायर कहकर तो गया ही है....कि.....बच्चो के छोटे हाथों को चाँद-सितारे छूने दो.....चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे.....!!

चिराग तले अँधेरा !!!

सभी बुद्धिजीवियों को मेरा सदर प्रणाम !! इस लेख में मैं क्या लिखने जा रहा हु मुझे पता नही..लेकिन अगर इसमे लिखी बातों से आप के जज्बातों को ठेस पहुंचे तो मुझ नादान को माफ़ करियेगा॥!!!

अब बात उठी है चिराग तले अंधेरे की तो मैं उस बारे में भी बताऊंगा लेकिन उससे पहले एक बात मीडिया की ....

मीडिया हमारे भारत में ही नही वरन पुरी दुनिया में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में जाना जाता है...कहीं भी क्रांति की बात हो सबसे पहले नाम आता है पत्रकारों का...ऐसा मैं नही इतिहास कहता है...अब इतिहास कहता है तो सही कहता होगा....खैर जो भी हो ये तो मैं भी मानता हूँ की स्वतंत्रता की बात हो...क्रांति की बात हो, सम्मान की बात हो या लोकतंत्र की....हर जगह मीडिया की अहम् भूमिका है...हाँ भाई हो भी क्यूँ न आख़िर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जो है...मीडिया में वो ताकत है जो किसी को भी हिला कर रख दे...

यहाँ ये बता दूँ की मीडिया की ताकत मीडिया के कर्णधारों यानी की पत्रकारों से है...भाई !!! इन्हे भूलना मतलब पानी में रह कर मगर से बैर करने जैसा होगा...हाँ तो मैं बात कर रहा था..मीडिया पत्रकार और उनकी ताकत के बारे में ...हाँ तो अगर स्वतंत्रता की बात हो तो पत्रकारों के बारे में बात करना चाहिए...जहाँ कहीं भी दुःख हो दर्द हो...नियमों का उलंघन हो रहा हो ....वहां पुलिस से पहले पत्रकार पहुँच जाता है...ये मेरा नही दुनिया मानना है....ओह्ह्ह !!! बातों बातों में मैं तो ये भूल गया की मुझे चिराग तले अंधेरे के बारे में लिखना है...खैर कोई नही ...मैं उसी के बारे में लिख रहा हूँ जनाब॥!!!
अब मेरे भोले भले चेहरे पे मत जाइये ..मैं तब से कोई बकवास थोड़े ही कर रहा था ...मैं उसी बारे में लिखे रहा था ...हाँ ये बात जरुर है की अब तक बताया नही...लीजिये अब बता दूंगा...थोड़ा धीरज रखिये...पेट का सवाल है इसलिए थोड़ा सोच समझ के लिखना होगा इसलिए इतना घुमा रहा हूँ...सबके साथ ऐसा होता है.....जो जनाब !! आज से ठीक चार साल पहले मेरे पिताजी ने मुझसे कहा , "बेटा जा पत्रकार बन जा ," मैं भी मनमौजी कहा चलो आज तक कुछ नही कर पाया पत्रकार ही बन जाता हूँ कुछ न कुछ रोटी का जुगाड़ तो हो ही जाएगा और अपनी समाज सेवा भी होती रहेगी ..... खैर मैं पत्रकार तो बन गया रोटी का जुगाड़ भी हो गया बस एक बात नही हुई और वो ये की समाज सेवा बंद हो गई ....अरे भाई मैं समझता हूँ मैं समाज सेवक नही लेकिन मेरा परिवार तो समाज में ही आता है ..जब उसकी सेवा बंद हो गई तो समाज की सेवा बंद हो गई .....सही कहा न !!!??
सबकी आंखों को आशा की किरणे देने वाला ये पत्रकार !! सॉरी!!!! गरीब पत्रकार आज ख़ुद की आंखों से छिनते उस आशा की किरनो९न को नही रोक पा रहा .....ऐसा नही है की मैं निराशावादी हूँ और ये बात कह रहा हूँ ...भाई !!!!मैं भी एक आशावादी इंसान हूँ और आप सब लोगों ने एक ऐसी जगह बना दी है जहाँ कोई भी पत्रकार अपनी भड़ास निकाल सकता है इसलिए मैंने सोचा की मैं भी अपनी भडास निकाल लूँ....
हाँ तो असली बात ये है की आज हर गली मुहल्ल्ले में मीडिया और चैनल खुल रहे हैं....गरीबी के मारे मुझ जैसे गरीबों को कहीं नौकरी नही मिलती तो रोटी का जुगाड़ यहाँ हो जाता है लेकिन असल में हम यहाँ एक कैदी की तरह ही रहते हैं,....न कुछ कह सकते हैं न ही नौकरी छोड़ कर जा सकते हैं...अब मुझे ही लीजिये जहाँ काम कर रहा हु कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें काम धाम तो कुछ आता नही है हुक्म chalaana खूब आता है...मैं नाम नही लूँगा लेकिन एक दिन गरीब टाइप का चैनल खोल के इनको वहां झाडू लगाने के काम पे रखूँगा...swatantrata की बात करने waale इन chiragon तले इतना andhera hoga मैंने सोचा नही था...
khair !!! maza आ गया ..अपनी भडास निकाल के ...
चलिए आज इतना ही था !!!
अब agali बार जब gulami से fursat मिलेगी फिर aaunga तब तक के लिए gustakhi maaf।
आपका
pranay

मीडिया में शोषण के खिलाफ एक नया ब्लॉग.

आज जब मैं ब्लॉग सर्च कर रहा था, तो अचानक एक ब्लॉग पर नज़र पड़ी। नाम था http://www.daityaguru.blogspot.com/ . देखकर उत्सुकता हुई की आख़िर इस ब्लॉग में क्या है? सो मैंने इसपर क्लिक किया। उसके बाद मुझे जो दिखा वो मैं इस पोस्ट के साथ अटैच कर रहा हूँ।

नायक और खलनायक

रविवार, ३० अगस्त की जनसत्ता में अपने कालम कभी-कभार में अशोक वाजपेयी ने सवाल उठाया है की बरसों जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय में सेवारत नामवर सिंह भारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंत सिंह की पुस्तक समारोह में क्यों गए। इसे राजस्थान के पुराने सम्बन्ध , लोकतांत्रिकता आदि कह कर समझाया जा सकता है। लेकिन अभी कुछ दिन पहले वामपंथी लेखकों ने एकजुट हो कर उदय प्रकाश के विरूद्व अभियान छेडा था की वे एक ऐसे मंच पर गए , जहाँ भाजपा का सांसद मौजूद था। अब जसवंत सिंह न तो कोई सार्वजनिक बुद्धिजीवी है और न ही इतिहासकार या लेखक । उनकी बुनियादी छवि भाजपा नेता की थी जो अब भूतपूर्व हो गई है। नामवर जी के इस आचरण को ले कर चुप्पी क्यों है?
अशोक वाजपेयी का सवाल जायज है, यद्पी उदय प्रकाश के मामले में और इस मामले में अन्तर है। किंतु ये सवाल तो अपनी जगह है ही की नामवर सिंह जी एक भाजपा नेता की पुस्तक विमोचन समारोह में क्यों गए थे। अशोक वाजपेयी ने प्रगतिशीलों की इस चुप्पी परकई आरोप लगाये है । नामवर सिंह जी को इसका जवाब देना चाहिए।

लो क सं घ र्ष !: जीवन है केवल छाया


जीवन सरिता का पानी ,
लहरों की आँख मिचौनी
मेघों का मतवालापन ,
बरखा की मौन कहानी

गल बाहीं डाले कलियाँ,
है लता कुंज में हँसती
चलना,जलना , जीवन है
आहात स्वर में हँस कहती

संसार समर में कोई,
अपना ही है पराया
सम्बन्ध ज्योति के छल में,
जीवन है केवल छाया

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

अब ये भी सुनो जनाब

प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक महिला पत्रकार के बैग में से सामान गायब हो गया। दो पत्रकारों ने एक दम्पती के बेडरूम की विडियो तैयार कर उसकी ख़बर बना टीवी पर चला दी। अब तीसरी बात हम बतातें हैं। श्रीगंगानगर के अनूप गढ़ कस्बे में एक पत्रकार के कारण हंगामा मच गया है। इस पत्रकार ने चिकित्सा विभाग को शिकायत की कि एक डॉक्टर ने लैब संचालक से मिलकर छः बच्चों को एच आई वी वाला रक्त चढा दिया। शिकायत ही ऐसी थी, हंगामा मचना था। मगर तुंरत हुई जाँच में पता लगा कि किसी को ना तो एच आई वी वाला रक्त चढाया गया ना किसी एच आई वी बीमारी वाले आदमी ने रक्त दिया। जाँच से पहले ही न्यूज़ चैनल वालों ने इसको लपक लिया। पता नहीं किस किस हैडिंग से ख़बर को चलाया गया। हमने चिकित्सा विभाग से जुड़े अधिकारियों से बात की। सभी ने कहा कि एच आई वी रक्त चढाने वाला मामला है ही नही। लेकिन अब क्या हो सकता था। पत्रकार अपना काम कर चुका था। टी वी न्यूज़ चैनल जबरदस्त तरीके से ख़बर दिखा और बता रहे थे। पुलिस ने लैब संचालक को हिरासत में ले लिया। डॉक्टर फरार हो गया। और वह करता भी क्या। जिस कस्बे की यह घटना है वहां ब्लड बैंक नहीं है। बतातें हैं कि जिस पत्रकार ने यह शिकायत की,उसके पीछे कुछ नेता भी हैं। मामला कुछ और है और इसको बना कुछ और दिया गया है। अब डॉक्टर के पक्ष में कस्बे के लोगों ने आवाज बुलंद की है। करते रहो, बेचारा डॉक्टर तो कहीं का नहीं रहा।
चलो, जो कागज चला है उसका पेट तो भरना ही होगा। मगर अब यह बहस तो होनी ही चाहिए कि किसी मरीज की जान बचाने के लिए उस वक्त मौके पर डॉक्टर को क्या करना चाहिए थे और उसने वह किया या नहीं। अगर उसने वह नहीं किया जो करना चाहिए था तो वह कसूरवार है। अगर किया तो फ़िर किस जुल्म की सजा। अगर डॉक्टर मरते मरीज को खून नहीं चढाता तो हल्ला मचता। रोगी के परिजन उसका हॉस्पिटल तोड़ देते। डॉक्टर अपनी जान बचाने के लिए रोगी को बड़े शहर के लिए रेफर कर देता तब भी ऐसा ही होना था। क्योंकि तब तक देर हो चुकी होती। डॉक्टर के लिए तो इधर कुआ उधार खाई होती।
यहाँ बात किसी का पक्ष करने की नहीं। न्याय की है। न्याय भी किसी एक को नहीं,सभी पक्षों को। एक सवाल यहाँ आप सभी से पूछना पड़ रहा है।
सवाल--एक मौके पर ऐसा हुआ कि पचास व्यक्तियों की जान बचाने के लिए एक आदमी को मरना/या मारना पड़ रहा था। आप बताओ, अब कोई क्या करेगा? जवाब का इंतजार रहेगा।

मेरे प्यारे-प्यारे-प्यारे-प्यारे और बेहद प्यारे दोस्तों.........!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
मेरे प्यारे-प्यारे-प्यारे-प्यारे और बेहद प्यारे दोस्तों.........
आप सबको इस भूतनाथ का बेहद ह्रदय भरा प्रेम.........दोस्तों पिछले समय में मुझे मिले कईयों आमंत्रणों में में मैंने कुछ आमंत्रणों को स्वीकार कर अनेक ब्लॉग में लिख रहा था.....बेशक एक ही आलेख हरेक ब्लॉग में होता था....आज अपनी एक ब्लागर मित्र की आज्ञा या यूँ कहूँ कि एक प्यारी-सी राय मान कर अपने को आज से सिर्फ़ एकाध ब्लाग में सीमित किए दे रहा हूँ...ये ब्लॉग कम्युनिटी ब्लोगों में "कबीरा खड़ा बाज़ार में","रांची-हल्ला" और मेरा ख़ुद का एक मात्र निजी ब्लॉग "बात पुरानी है" तक ही सीमित रहेंगे....!!
बाकी ब्लॉगों के सम्पादकों से मेरा अनुरोध हैं....कि मेरा यह अनुरोध शीघ्रता-पूर्वक स्वीकारते हुए मुझे तुंरत अपने ब्लॉगों से हटा दें.....इतनी जगहों पर एक आलेख भी चस्पां कर पाने में मैं ख़ुद को असमर्थ पाता हूँ....हाँ,इतने दिनों तक मुझे आदर और प्रेम देने के लिए मैं तमाम सम्पादकों का आभारी हूँ....आगे के लिए मुझे क्षमा किया जाए....भूतनाथ अब ख़ास तौर पर "बात पुरानी है !!" पर ही पाया जाएगा.....वैसे भी भूतों के लिए पुराना होकर "गया-बीता" हो जन ही उचित होता है.....तो दोस्तों आप सबको मेरे प्रेम के साथ ऊपर बताये गए ब्लॉगों से मेरी विदा.....एक स्नेहिल ह्रदय आत्मा........भूतनाथ
हरकीरत जी आपकी इस प्रेम भरी राय के लिए मैं आपका भी शुक्रिया अदा करता हूँ....दरअसल मैं ख़ुद भी यही करना चाह रहा था....मगर कुछ प्रेमियों के प्रेम के कारण ऐसा कर नहीं पा रहा था....आज आपकी आज्ञा से ये मैं कर रहा हूँ.....................आपको भी धन्यवाद......!!
एक बात आपसे और कहूँ....अभी मुझे भूतनाथ ही रहने दें.....इसके पीछे कोई बात है.....जो मैं बाद में सबको बता पाउँगा.....आज आखिरी बार मैं सभी ब्लॉगों पर दिखायी दूंगा.....!!कल से सिर्फ़ अपने ब्लाग एवं दो कम्युनिटी ब्लॉगों पर ही रहूंगा.....मुझसे कोई गलती हुई हो तो मैं तहे-दिल से खेद प्रकट करता हूँ....और सबसे क्षमा माँगता हूँ.....!!

धन्यवाद प्यारे दोस्तों......!!

मुझे इस ब्लॉग से हटा दिया जाए.....क्योकि ज्यादा ब्लोगों से जुड़े रहना मुझे गैर ज़रूरी लगने लगा है....अबतक मुझे अपना प्रेम देने के लिए आप सबका बहुत-बहुत-बहुत आभार....!!
धन्यवाद प्यारे दोस्तों......!!
आपका भूतनाथ

30.8.09

अर्थात: अब नज़र खुदरा बाज़ार पर

अर्थात: अब नज़र खुदरा बाज़ार पर

खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मामला एक बार फिर से सुर्खियों में है। जहाँ एक तरफ अप्रत्याशित रूप से जीत कर आई कांग्रेस सरकार ने आरंभ से ही इस क्षेत्र में 26 से 49 फ़ीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के पर्याप्त संकेत दिये हैं , वहीं इस विषय पर गठित एक संसदीय समिति ने किराने के सामान, फल और सब्ज़ियों के खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी ही नहीं अपितु बडे़ देशी कारपोरेट पूंजीपतियों के प्रवेश को पूरी तरह प्रतिबंधित किये जाने की अनुशंसा की है। यही नहीं, मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में गठित इस 31 सदस्यीय समिति ने एक कदम आगे बढ़कर देश में पूंजीपतियों द्वारा खोले जा रहे दीर्घाकार ‘माॅलों’ में उपभोक्ता वस्तुएं बेचे जाने पर भी अंकुश लगाये जाने की भी ज़ोरदार वक़ालत की है। पिछले दरवाज़े से फ्रेंचाइजी के सहारे खुदरा बाज़ार में प्रवेश पर निगरानी रखने के लिए ‘कैश एण्ड कैरी’ लाइसेंसों पर भी नज़र रखने की बात की गयी है, हालांकि इन बंद दरवाज़ों के बीच एक खिड़की खुली रखी गयी है- कमेटी का प्रस्ताव है कि ‘ खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लागू करने से पहले सरकार को अपने क़ानूनी तथा नियामक ढांचे को दुरुस्त कर लेना चाहिये’। जानने वाले इन खिड़कियों की हक़ीक़त ख़ूब जानते हैं! आईये सबसे पहले देखते हैं कि मामला क्या है।
नब्बे के दशक में नई आर्थिक नीतियों के बेहद आरम्भिक दौर में ही जब विदेशी पूंजी निवेश के लिए रास्ते खोले गये तो कृषि के बाद देश के इस दूसरे सबसे बड़े असंगठित क्षेत्र पर भी देशी- विदेशी पूंजीपतियों की गिद्धदृष्टि पड़ गई थी। फलस्वरूप 1993 में ही तत्कालीन विŸामंत्री मनमोहन सिंह ने इस क्षेत्र में क़ानूनों में आवश्यक फेरबदल किये थे। इसी दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘डेरी फार्म ’ ने सबसे पहले भारतीय बाज़ार में प्रवेश किया लेकिन नरसिम्हाराव की सरकार के पतन के बाद सŸाा में आई संयुक्त मोर्चा सरकार के दौर में वामपंथी दलों के दबाव में तत्कालीन विŸामंत्री पी। चिदंबरम को 1996 में क़ानूनों में फिर से फेरबदल कर खुदरा बाज़ार क्षेत्र में विदेशी निवेश पर रोक लगानी पड़ी। नवउदारवाद की प्रचंड समर्थक भारतीय जनता पार्टी आरंभ से ही इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर उतनी मुखर नहीं रही है। छोटे दुकानदारों के अपने पुराने वोट बैंक को देखते हुए पार्टी का यह स्टैंड कोई भी समझ सकता है। लेकिन यह समझ लेना नादानी होगी कि दक्षिणपंथ और वामपंथ का यह विरोध यकसां है। अपने शासनकाल में अनेकों बार एनडीए के मंत्रियों ने इसे लागू करने के संकेत दिये। इस मामले पर भाजपा का पूरा दृष्टिकोण विŸामंत्री के पूर्व सलाहकार रहे और संघ के भीतर स्वदेशी लाबी के आलोचक रहे मोहन गुरुस्वामी के इस संदर्भ में लिखित एक शोधपत्र ‘ एफ डी आई इन इण्डियाज़ रिटेल सेक्टर: मोर बैड दैन गुड’ (देखें सेंटर फार पालिसी आल्टरनेटिव की वेबसाईट) की अनुशंसाओं से स्पष्ट हो जाता है। यहां वह खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के तमाम कुप्रभावों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘ भारतीय खुदरा क्षेत्र की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाना चाहिए ताकि यह ऐसी नीतियां बना सके जो उन्हें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से निपटने में सक्षम बना सके - जब कभी वे आयेंगे... (.यानि आना तो तय हैं!) ’ साथ ही वह चाहते हैं कि ‘विदेशी कंपनियों की प्रवेश प्रक्रिया धीमी होनी चाहिए और सामाजिक सुरक्षात्मक उपायों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। शुरूआती दौर में उन्हें केवल मेट्रो शहरों में सुपरमार्केट खोले जाने की इजाज़त दी जानी चाहिए।’ संघ की दूसरी लाईन के प्रवक्ता और स्वदेशी जागरण मंच के नेता गुरूमूर्ति , जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तीव्र विरोध के लिए जाने जाते हैं ने 26 जनवरी 1998 में ए. एस. पनीरसेल्वन को दिये गये एक साक्षात्कार में ‘ भाजपा की आर्थिक प्राथमिकतायें गिनाते हुए विदेशी निवेश के बारे में कहा कि -‘उपभोक्ता क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं होना चाहिये। बहरहाल इसके लिए अपने आर्थिक हितों के प्रति पूर्वाग्रहित हुए बिना रास्ते निकाले जा सकते हैं। 1970 के राष्ट्रीयकरण के दौर में जिस तरह यूनिलीवर को आने की अनुमति दी गयी वही माडल अपनाया जाना चाहिये। उनका दुख है कि हममें मोलभाव करने की दक्षता की कमी है।’ साफ़ है कि ये सारी खिड़कियां विरोध के पूरे ‘आख्यान’ का प्रतिआख्यान रचती हैं और यही उस सच का असली सच है। यही नहीं यह जो विरोध है वह भी केवल विदेशी पूंजी का है। देशी पूंजीपतियों के इस बाज़ार पर कब्ज़े को लेकर कहीं कोई संशय नही है मानो इस क्षेत्र पर उनके कब्ज़े से खुदरा बाज़ार में लगे पांच करोड़ से अधिक लोगों के रोज़गार और शहरों के पारिस्थितिक संतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
दरअसल स्वदेशी जागरण मंच का यह पूरा ‘विरोध’ इसी मोलभाव को बढ़ाने और इसके हितों को भारतीय पूंजीपतियों के हितों में मोड़ने का आयोजन है जिसमें आमजन के लिए कोई जगह नहीं इसीलिए तो बंेगलूर में ज़र्मन रिटेलर मेट्रो एजी के आने पर उसके विरोध में लिखे हुए लेख (जो उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध है) में बड़ा हिस्सा बजाज और दूसरे देशी पूंजीपतियों के प्रति उनकी वफ़ादारी और उनके हितों के लिए गुरूमूर्ति द्वारा निभाई गई बिचैलिये की भूमिका के महिमामण्डन को समर्पित है।
खैर, इन सबके बीच भारतीय मध्यवर्ग का बड़ा आकार रिटेल चेन चलाने वाले वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्का जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों को हमेशा से आकर्षित करता रहा और भारतीय सरकार पर भीतर और बाहर दोनों तरफ से दबाव बनाये जाते रहे। यह दबाव विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र के दौरान अपने चरम पर पहुंच गया जब भारत को सीधे-सीधे धमकी दी गयी कि यदि खुदरा क्षेत्र में पूंजी निवेश पर रोक नहीं लगायी गई तो उसे गैट के तहत दी जा रही मदद रोक दी जायेगी और उसके खि़लाफ़ प्रतिबंधात्मक कार्यवाही भी की जायेगी। यह दबाव कारगर साबित हुआ और दसवीं पंचवर्षीय योजना की मध्यावधि समीक्षा में सरकार ने इस क्षेत्र को आंशिक रूप से खोलने की घोषणा की। वामपंथियों तथा कुछ अन्य समर्थक दलों की आपŸिायों को नज़रअंदाज करते हुए सरकार ने 10 फरवरी 2006 को ज़ारी प्रेस नोट के द्वारा कुछ शर्तों के साथ ‘एकल’ ब्राण्ड के उत्पादकों को 51 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दे दी। इसके बाद थोक व्यापार तथा गोदामों में भंडारण के क्षेत्र में भी शतप्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दे दी गई। इससे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिये पिछले दरवाज़े खुल गये। इस सीमित, परंतु महत्वपूर्ण सफलता से उत्साहित वालमार्ट ने सुनील मिŸाल की भारती इंटरप्राईजेज के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत वालमार्ट बैकएण्ड( यानि वस्तुओं की आपूर्ति) संभालेगा और भारती फ्रंटएण्ड (यानि वितरण की व्यवस्था)। लेकिन यह सीमित छूट लूट की उनकी महात्वाकांक्षा को पूरा नहीं कर सकती तो और छूट के लिये दबाव बनाने की प्रक्रिया ज़ारी है। विदेशी कंपनियों की इस सक्रियता के बरअक्स भारतीय उद्योग घरानों ने भी इस क्षेत्र में पूरी तैयारी के साथ प्रवेश किया। गोयनका के आरपीजी ग्रुप, किशोर बियानी के यूचर ग्रुप, वाडिया ग्रुप, रहेजा ग्रुप और आदित्य बिड़ला ग्रुप के अलावा इस क्षेत्र में सबसे बड़ा नाम है मुकेश अंबानी के रिलायंस का जिसने देश में 25 हज़ार करोड़ से ज़्यादा का निवेश कर डेढ़ हज़ार शहरों में एक हज़ार हाईपर मार्केट, तीन हज़ार सुपर मार्केट और पांच सौ से अधिक स्पेशियालिटी स्टोर खोलने की योजना को मूर्त रूप देना शुरू कर दिया है। रिलायंस की विशिष्टता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि दूसरों की तुलना में काफ़ी पहले ही उसने इस क्षेत्र के सबसे लाभकारी क्षेत्र खाद्यान्न, फल और सब्ज़ी व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश के लिए पूर्ति की पूरी तैयारी कर ली थी। वायदा बाज़ार के जरिए इसने देश भर से भारी मात्रा में इन उत्पादों की ख़रीदारी की है। इनकी कार्यपद्धति वालमार्ट की ही तरह सीधे-सीधे पूर्ति और वितरण दोनो क्षेत्रों पर पूर्ण नियंत्रण कर लेने की है। पिछली सरकार के दौरान कृषि उत्पाद विपणन समिति क़ानूनो (एपीएमसी) में हुए सुधारों तथा ठेके पर कृषि व्यवस्था के पर्याप्त प्रोत्साहन ने इनका काम और आसान कर दिया है। फलस्वरूप प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बिना भी भारतीय खुदरा बाज़ार में संस्थागत क्षेत्र की भागीदारी तेज़ी से बढ़ रही है। 1999 में कारपोरेट जगत की इस क्षेत्र में कुल भागीदारी थी पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये जो 2005 में बढ़कर पैंतीस हज़ार करोड़ हो गई और अब भी यह 40 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार संगठित क्षेत्र 2003 के दो प्रतिशत से बढ़कर 2008 तक पांच प्रतिशत खुदरा व्यापार पर कब्ज़ा जमा चुका है। इस वृद्धि का सीधा अर्थ है 42 मिलियन छोटे दुकानदारों का लगातार खेल से बाहर होता जाना। इस तथ्य की तस्दीक तो अपनी हालिया किताब ‘’द वल्र्ड इज़ लैट’ में थामस एल फ्रीडमैन भी करते हैं। देश में कुल रोज़गार का सात फ़ीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने वाले इस क्षेत्र की तबाही का असर पहले ही रोज़गारविहीन विकास और मंदी की मार से जूझ रहे इस देश पर क्या होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इसके अन्य कुप्रभावों पर पहले भी विस्तार से लिखा जा चुका है जिसके चलते न सिर्फ भविष्य में एकाधिकार जमाकर ये कंपनियां मनमानी लूट मचायेंगी बल्कि पहले से बदहाल आम आदमी के लिए रोटी दाल को और अधिक मुश्किल बना देंगी।
इस पूरी अवधारणा तथा निगमों की कार्यपद्धति को समझने के लिए रिलायंस के अनुभव को देखा जा सकता है। रिलायंस के काम करने का तरीका बिल्कुल साफ है - वह उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की पूरी कड़ी (आढ़तिये, कमीशन एजेण्ट,थोक व्यापारियों और खुदरा व्यापारी) पर कब्ज़ा जमा लेना चाहता है। इस प्रक्रिया में दावा किया जाता है कि ‘कुटिल दलालों’ से यह मुक्ति एक तरफ़ किसानों को सही दाम दिलायेगी तो दूसरी तरफ़ उपभोक्ता को भी उचित क़ीमत पर सामान उपलब्ध करायेगी। लेकिन हक़ीक़त इसके उलट है- रिलायंस ने अब तक जो भी अनाज़, फल और सब्ज़ियां खरीदे हैं वे किसानों से न ख़रीद कर मण्डियों से ही ख़रीदे हैं, वह भी दलालों के माध्यम से। ऐसे में उसने सिर्फ़ थोक और खुदरा व्यापारियों की भूमिका ही समाप्त की है जिससे किसानों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। उपभोक्ता के लिए जो क़ीमत है वह थोक और खुदरा क़ीमतों के बीच की ही है और अगर कहीं इससे कम है तो वह कृत्रिम रूप से रखी गयी है जिसका उद्देश्य छोटे व्यापारियों की प्रतिस्पद्र्धा को पूरी तरह नष्ट करना है जिससे भविष्य में बाज़ार पर पूरी तरह कब्ज़ा जमाकर मनमानी लूट की जा सके। थोक और खुदरा क़ीमतों के बीच का यह मामूली अंतर भी बड़े स्टोरों के रखरखाव के भारी ख़र्च के कारण लंबे समय तक बनाये रख पाना संभव नहीं होगा। दूसरे अगर यह मान भी लिया जाये कि भविष्य में रिलायंस किसानों से सीधे अनाज़ ख़रीद सकेगा तो भी किसानों की स्थिति कतई बेहतर होने की उम्मीद नहीं है। अपनी विशाल मोलभाव क्षमता और बाज़ार पर एकाधिकार के चलते रिलायंस (या कुछ अन्य कंपनियांे के साथ बना उसका कार्टेल) किसानों से मनचाही कीमतों पर अनाज़ खरीदने में आढ़तियों से ज्यादा कारगर होगा और मुनाफ़े की अंधी भूख के कारण यही अनाज़ ऊंची क़ीमतों पर वातानूकूलित दुकानों में बिकेगा। दूसरे तरीके ठेके की खेती के बारे में तो अब हम सब जानते हैं। इस बारे में वालमार्ट के बारे में अमेरिका में किये गये एक सर्वे की रिपोर्ट हमारे लिए आंख खोलने वाली हो सकती है जिसमें कहा गया कि ‘अमरिका के जिन क्षेत्रों में वालमार्ट स्टोर खोले गये वहां के किसान तुलनात्मक रूप से अधिक ग़रीब हो गये।’
लेकिन यह भी तस्वीर का एक पहलू ही है। यदि इस प्रक्रिया के व्यापक सामाजार्थिक प्रभावों की विवेचना करें तो कई दूसरे भयावह तथ्य सामने आते हैं। सामान्यतः ये स्टोर नगरीय क्षेत्रों के उच्च तथा उच्चमध्यवर्गीय रिहाइशी इलाकों में ही खोले जा रहे हैं। छोटी दुकानों के उलट यहां एक साथ बड़ी मात्रा में ख़रीदारी को प्रोत्साहन दिया जाता है। स्पष्ट है कि निम्नमध्यवर्गीय तथा ग़रीब उपभोक्ता अब भी छोटी दुकानों से ही सामान ख़रीदेगा। इन कंपनियों द्वारा भारी मात्रा में बेहतर गुणवŸाा के सामान ख़रीद लिये जाने का अर्थ होगा बाज़ार में ऐसे सामानों की कमी और कम गुणवŸाा वाले सामानों की मांग तथा क़ीमतों में बढ़ोŸारी। अतः जहां उच्च तथा उच्चमध्यवर्गीय वर्ग बेहतर गुणवŸाा के सामान, कम से कम आरंभिक दौर में, सस्ती कीमतों पर खरीद सकेगा वहीं निम्नमध्यवर्गीय तथा ग़रीब उपभोक्ता घटिया उत्पाद बढ़ी क़ीमतों पर ख़रीदने पर बाध्य होगा जिससे पहले से व्याप्त आर्थिक विषमता के आधारों में और वृद्धि होगी। जालंधर में रिलायंस ने यही किया है। यहां वह पहले भारी मात्रा में आढ़तियों से फल और सब्ज़ियां ख़रीदता है फिर उनमें से अच्छे-अच्छों को छांट कर बाकी को उसी दाम पर पुनः आढ़तियों को बेच दिया जाता है जिसे छोटे व्यापारी ऊंची कीमतों पर ख़रीदने के लिये बाध्य होते हैं (देखें फ्रंटलाईन, 13 जुलाई,2007)
मुनाफ़े की यह अपार संभावना ही निगमों के इस आकर्षण का कारण हैं। 27 जून 2008 को प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 तक भारत में खुदरा क्षेत्र मे संगठित व्यापार का परिमाण 50 बिलियन अमेरिकी डाॅलर के बराबर हो जायेगा। 2007 से 2015 के बीच मॅालों की संख्या में वृद्धि की दर 18।9 प्रतिशत रहेगी और ग्रामीण बाज़ारों का परिमाण बढ़कर कुल बाज़ार का आधा हो जायेगा। रिपोर्ट के अनुसार इस वृद्धि में सबसे बड़ा हिस्सा होगा खाद्य पदार्थो और किराना संबधित वस्तुओं का। इसी आधार पर भारत को रिटेल व्यापारियों केे लिये सबसे आकर्षक गंतव्य के रूप में चिन्हित किया गया है। और भारत को जारी यह इकलौता सर्टिफिकेट नहीं है- हाल ही में अमेरिका स्थित वैश्विक प्रबंध सलाहकार फर्म एटी कैयर्नी द्वारा ज़ारी एक रिपोर्ट में यही सब दोहराया गया हैं। इसके अनुसार विश्व की 30 उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में रिटेल क्षेत्र में निवेश के लिए भारत सबसे आर्कषक स्थान है। कैयर्नी द्वारा निर्मित भूमण्डलीय रिटेल विकास सूचकांक में भारत को रूस, चीन, यूएई और सऊदी अरब से ऊपर रखा गया है। पिछले वर्ष जारी कैयर्नी के रिर्पोट में भारत का स्थान दूसरा था। प्रतिवर्ष जारी होने वाली इस रिपोर्ट के पिछले पांच में से चार बार भारत को पहले स्थान पर रखा गया है। इस रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जारी की गयी है कि जल्दी ही इस क्षेत्र की बची-खुची बाधायें दूर कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की राह आसान कर दी जायेगी जिससे दुनिया के बड़े रिटेल चेन चलाने वाले निगमों को यहां प्रवेश का मौका मिलेगा।
सरकार भी इन निगमों को उपकृत करने के लिये बेहद उत्सुक है। वैसे भी कांग्रेस के मन में 1993 से ही इसे लेकर कोई विशेष दुविधा नहीं रही है। यूपीए के पिछले कार्यकाल में भी इसके लिए काफी प्रयास किये गये लेकिन वामदलों के कड़े रूख के कारण यह संभव नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री की उत्सुकता 29/06/2005 को नये मंत्रियों के शपथग्रहण समारोह के बाद पत्रकारों के सवालों के जवाब में झलकती है जब उन्होंने कहा था कि ‘हम अपने वामपंथी साथियों को खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए मना लेंगे...मुझे उनकी राष्ट्रभक्ति पर पूरा विश्वास है’ और अब जबकि वामपंथियों का दबाव भी नहीं है तो मनमोहन सिंह अपनी ‘राष्ट्रभक्ति’ का अचूक प्रदर्शन कर सकते हैं। पिछली फरवरी में ही इसमें कुछ परिवर्तन किये गये और अब गत दो जून को दिये गये एक बयान में वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने सरकार की प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर दिया। इस बात की पूरी उम्मीद की जा रही है कि आगामी बजट में खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 26 से 49 फ़ीसदी छूट दे दी जायेगी और बहुराष्ट्रीय निगम पूरे धज के साथ मुख्यद्वार से प्रवेश कर सकेंगे।
ऐसे में यह मुश्किल ही लगता है कि यह रिपोर्ट सरकार के निश्चय पर कोई प्रभाव डाल पायेगी। संसद में अपनी बेहद कमज़ोर स्थिति और बंगाल से लेकर केरल तक अपने ही दल के भीतर मचे घमासान से परेशान सीपीएम के नेतृत्व में संसदीय वाम इस मसले पर रस्मी विरोध से आगे बढ़ पायेगा, ऐसा मानने का कोई आधार नज़र नहीं आता। रहा सवाल भाजपा का तो अमेरिका के सबसे विश्वस्त चाकर से ऐसी उम्मीद की ही नहीं जा सकती। संसद के बाहर और भीतर भले ही यह अपने परंपरागत वोटबैंक को बचाने के लिए संघर्ष की मुद्रा में नज़र आये लेकिन वह किसी बड़ी लड़ाई में तब्दील नहीं हो पायेगी। महिला आरक्षण के मुद्दे पर ज़हर खाने को तैयार समाजवादी ऐसे मौकों पर कुछ बेहतर खाना पसंद करते हैं तो बात-बात पर तोड़-फोड़ मचाने वाले संघ के ‘राष्ट्रभक्त‘ पतली गली से निकलना। ज़ाहिर है कि कांग्रेस की इस सरकार के दौर में नवउदारवाद के घोड़े को सरपट दौड़ना है। पर यह भी तय है कि देर-सबेर जनता का आक्रोश विभिन्न रूपों में दिखाई देगा ही। देखना यह है कि ख़ुद को जनपक्षधर कहने वाली ताक़तें उसे कितने सकारात्मक रूप में प्रयोग कर पाती हैं।(यह आलेख समयांतर के पिछले अंक में छपा था)

दुनिया

आरती "आस्था "
कानपुर
दुनिया मेरी
छोटी सी है
कई मायनों में
फिर भी
लोगों से बड़ी ........
नहीं निर्धारित होती
अपनों की सीमा
यहाँ रिश्तों से
वह हर कोई
अपना है यहाँ
नहीं लगता जो पराया
खुश रहने के मौके
अपेक्षाकृत ज्यादा है यहाँ
खुशियों के मायने
निहित जो रहते हैं
अपनी हार
और दूसरों की जीत में ।
नहीं झरते
आंसू यहाँ
ख़ुद के दर्द से
बहती रहती है
अश्रुओं की अविरल धारा
देखकर मायूसी
औरों की आंखों की
नहीं होता जीवन का
कोई एक ध्येय यहाँ
पूरा होने पर
एक के
शुरू हो जाती है जद्दोजहद
दूसरे के लिए
इसलिए छोटा होकर भी
बड़ा लगता है
जीवन यहाँ .......

जिन्ना साहब की शख्सियत इतनी बेमीशल बन गई

जिन्ना साहब की शख्सियत इतनी बेमीशल बन गई
की भाजपाई गलियारे की फिजा बदल गई
जसवंत साहब ने किताब का ग़दर क्या मचाया
पहले तो खुद को (जसवंत जी )
अब अडवानी जी को भी फसाया
जिन्ना साहब की ...................................
अंदरूनी उठापटक मैं सब शरिख हो गए
देखो भाजपा के मुर्दों मैं भी जान ड़ल गई
मीडिया को भी कुछ नया कम मिल गया
ब्रेकिंग न्यूज़ का खजाना एक बार फिर खुल गया
जिन्ना साहब की ....................................
बापू ये सब देखकर हेरान हो रहे
किस किस को चुप कराये अब तो सब रो रहे
कांग्रसियों ने जरुर अनुशसासन दिखया
संघ अभी तक बिच मैं नहीं आया
जिन्ना साहब की ...................................
वास्तविक इंडिया के आगामी अंक मई मेरी और से प्रकाशित

भगवान को डेढ लाख की पोशाक




तेज़ी के साथ बढ़ता जिम का कारोबार





ये क्या हो रहा है

एक बार फ़िर तार तार हुई महिला की इज्जत
पहले गमला देवी को बाल काट कर गाव से निकल दिया
अब बुधिया को पंचायत ने बदचलन बना कर उसके मुख में कालिख पोत कर गाव में घुमाया।
कहा, क्यो हो रहा है देखने के लिए क्लिक करे http://uplivenews.blogspot.com/

लो क सं घ र्ष !: यूं नियति नटी नर्तित हो....


यूं नियति नटी नर्तित हो,
श्रंखला तोड़ जाती है
सम्बन्धों की मृदु छाया ,
आभास करा जाती है

ईश्वरता और अमरता ,
कुछ माया की सुन्दरता
शिव सत्य स्वयं बन जाए,
जीवन की गुण ग्राहकता

जग में पलकों का खुलना,
फिर सपनो की परछाई
आसक्त-व्यथा का क्रंदन,
कहता जीवन पहुनाई

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

वो किन्नर है!!!

वो गालियाँ देते हैं, आम लोगों को डराते धमकाते हैं, किसी को कुछ भी बोल देते हैं, ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं की कान मैं पिघलता हुआ शीशा उडेल दिया हो, वो किन्नर हैं. चमकते हुए कपडे कड़ी धुप मैं बेहद डार्क मकेउप के साथ बस स्टैंड पर खड़ी रहती हैं, चेहरा धुप से सूर्ख हो रहा है या लाली से मालूम नहीं. लोग कहते हैं की किन्नर गुंडा गर्दी करते हैं, बदतमीजी पर उतर आते हैं, लोगों के डर का फ़ायदा उठाते हैं. पर वो इस हाल में क्यूँ हैं यह कोई सोचना नहीं चाहता, हमारे समाज मैं जानवरों के भी रक्षक हैं, बड़ी बड़ी हस्तियाँ जानवरों पर हो रहे ज़ुल्म के लिए आवाज़ उठाती हैं और चंदे के नाम पर पैसा भी बटोरती हैं. पर किन्नरों का समुदाये आज भी अपने अधिकारों के लिए एक मुश्किल लडाई लड़ रहा है. जन्म के वक़्त ही माँ बाप छोड़ देते हैं और अगर ना भी छोड़ना चाहें तो समाज छुड़वा देता है. उन बच्चो को अपनाया नहीं जाता और फिर शुरू होता है है उनकी ज़िन्दगी का सफ़र जहाँ वो दुसरे किन्नरों के यहाँ ही पलते है बड़े होते है, ना पढाई ना लिखाई. ना मुस्तकबिल की बातें ना माजी की सुनहरी यादें...अब ऐसे मैं बड़ा होकर अगर वो लोगों से पैसा ना वसूले तो क्या करे क्यूंकि यही तरीका उन्होंने सीखा है...
हम प्रजातंत्र की बातें करते हैं, समान अधिकार के लिए debates करते हैं मगर ये समान अधिकार औरत मर्द के अधिकारों तक ही सीमित रहता है...समाज मैं तीसरा सेक्स भी है ये क्यूँ याद नहीं रहता? असल मैं हम बेहद मतलबी और दकियानूसी हैं, हमे क्या फर्क पड़ता है ? अपनी सोच के साथ चलते हुए दुनिया जहां पर राय देते हैं पर किन्नरों के पक्ष मैं एक लफ्ज़ बोलने से भी कतराते हैं. आज हमारे मुल्क में किन्नरों के पास वोट करने का अधिकार ना के बराबर है क्यूंकि वोटर आईडी के लिए जिन documents की ज़रुरत होती है वो उनके पास होते ही नहीं हैं. पब्लिक places पर मेल और फेमल के लिए सुलभ शौचालये की बहस होती है पर किन्नरों के लिए अलग से सुलभ शौचालयों के बारे में बात ही नहीं उठती. समाज ने उनके साथ जो किया किन्नर आज वही समाज को लौटा रहे हैं.
एक जगह सुना था की जब किसी किन्नर की मौत होती है तो उसकी मईयत रात के अँधेरे मैं लेकर जाते हैं, साथ ही उसकी लाश को जूतों से पीटा जाता है और कहा जाता है की फिर इस दुनिया मैं मत आना...

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मीडिया मालिकों का आतंकवाद

छोटा मुंह बड़ी बात : मीडिया मालिकों का आतंकवाद

* मोहम्मद मोईन

सहारा समय न्यूज़ चैनल से दर्जनों पत्रकारों को एक साथ हटाए जाने की घटना बेहद चौंकाने वाली रही... खुद सहारा के पत्रकारों के लिए और मीडिया से जुड़े दूसरे लोगों के लिए भी... सहारा के साथियों ने तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ कभी ऐसा सलूक भी हो सकता है... इन मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाए जाने का फैसला जितना अटपटा लगा, उससे ज्यादा हैरत उन्हें हटाये जाने की वजह और उसके तौर-तरीके पर हुई... अपने संस्थान के मीडियाकर्मियों को बलि का बकरा बनाने से पहले सहारा प्रबंधन ने उनसे बात करने और विश्वास में लेने की भी ज़रुरत नहीं समझी... बरसों के रिश्ते तोड़ने में पल भर भी नहीं लगाए... एक झटके में बोल दिया तलाक-तलाक-तलाक... इस्तीफे का ऐसा तालिबानी फरमान जारी किया, जिसमे न कसूर पूछने की छूट और न ही सफाई व माफी की गुंजाइश... अड़ियल रुख अपनाकर मीडियाकर्मियों को आतंकित करने का यह कदम बेहद शर्मनाक रहा... सहारा में हुए इस तमाशे ने कई नए सवाल खड़े किये हैं, जिन पर बहस अब वक्त की ज़रुरत बन चुकी है... ज़रूरी इसलिए भी, क्योंकि सहारा प्रबंधन ने मीडियाकर्मियों को जिस तरह रुसवा कर सरेआम उनके स्वाभिमान और विश्वास का चीरहरण किया, मीडिया की मंडी में वह एक ऐसी नजीर बन चुका है, जिसका खामियाजा लोग बरसों तक भुगतेंगे... आगे चलकर सहारा के इसी नक्शे-कदम पर दूसरे कई संस्थानों के कलमकारों व कैमरामैनो को उनके प्रबंधन द्बारा आतंकित किया जाना करीब तय हो चुका है... इशारा साफ़ है कि पूँजी का आतंक चौथे स्तम्भ को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर लोकतंत्र को दांव पर लगाने की तैयारी में है...

सहारा के प्रबंधन ने अपने लोगों को किस बात की सज़ा दी, यह किसी को नहीं पता, खुद उन्हें भी नहीं, जिन्हें बलि का बकरा बनाया गया... कल तक आँखों के तारे रहे लोग अचानक किरकिरी बन उन्ही आँखों में कैसे चुभने लगे, इसका खुलासा होना बाकी है... बेसहारा किये गए लोगों को सिर्फ यह पता चल सका कि मंदी के दौर में संस्थान पर कुछ आर्थिक संकट आ खडा हुआ है... अगर पल भर को इस पर यकीन भी कर लिया जाय, तो इसमें निकाले गए मीडिया कर्मियों का क्या कसूर... सहारा के चैनल तो अच्छे भले चल रहे थे, ठीक-ठाक टी।आर।पी। भी आ रही थी, यानी संस्थान के मीडियाकर्मी अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम दे रहे थे... इसके बावजूद अगर संस्थान पर आर्थिक संकट आया भी तो उसके लिए दोषी कौन, यह मीडियाकर्मी या फिर सहारा का प्रबंधन... मीडियाकर्मी तो पूंजी जुटाते नहीं, वह अपनी ख़बरों और स्टोरीज़ के ज़रिये चैनल को पैसे व संसाधन जुटाने का माध्यम देते हैं, टी।आर।पी। के ज़रिये एक प्लेटफार्म देते हैं... वैसे सहारा के पत्रकार तो अरसे से विज्ञापन जुटाकर अपने संस्थान को मजबूती भी देते रहे हैं, फिर वह दोषी कैसे हुए... कसूर तो सहारा के प्रबंधन का है, जो बाज़ार की नब्ज़ को समझ नहीं सका... मंदी से निपटने की कोई रणनीति नहीं बनाई... विज्ञापन बढाने के लिए मार्केटिंग विंग से सही काम नहीं ले सका... अपने ऐशो-आराम व उलूल-जुलूल खर्चों में कोई कटौती नहीं की... यानी करे कोई और भरे कोई... प्रबंधन खुद नाकारा साबित हुआ, लेकिन अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए मीडियाकर्मियों को बलि का बकरा बना डाला...

सहारा ग्रुप के चेयरमैन सुब्रत राय जी का मैं बचपन से फैन रहा हूँ... तमाम अखबारों में मैंने उनके दर्जनों इंटरव्यूज़ पढ़े हैं... टी।वी। चैनलों पर चहक- चहककर शून्य से शिखर तक पहुँचने की दास्ताँ खुद उन्ही के मुंह तमाम बार सुनी कि कैसे गोरखपुर की गलियों का एक अदना सा शख्स अपनी मेहनत,लगन व कुशल प्रबन्धन के ज़रिये देखते-देखते कामयाबी के उस एवरेस्ट पर काबिज़ हो गया, जिसके सपने देखना भी सबके बूते की बात नहीं... सुब्रत राय जी हर इन्टरव्यू में सीना फुलाकर अपनी गौरव गाथा को खुद महिमा मंडित किया करते थे.... खैर ! इसका उन्हें हक़ भी था... चंद सालों में एक आम आदमी से देश के बड़े पूंजीपतियों में शुमार होना कोई हंसी खेल नहीं... निश्चित तौर पर यह उनके कौशल व कुशल प्रबंधन का ही कमाल रहा होगा, जिसने उन्हें इतराने का मौका दिया... लेकिन, शून्य से शिखर तक का सफ़र अगर उनकी उपलब्धि है, उनके कुशल प्रबंधन व कौशल का कमाल है, तो फिर हवा के एक छोटे से झोंके की तरह आयी मंदी के सामने घुटने टेकना और टूटकर बिखर जाना क्या है?... यकीनन! कामयाबी की वह गाथा अगर इतराने लायक है, तो यह नाकामी ?, आखिर यह भी तो कुछ होगी ही, और इसकी जिम्मेदारी भी उसी को लेनी चाहिए जो अपनी उपलब्धियों पर इतराता रहा हो...


कामयाबी और नाकामी की इस बहस से बाहर निकलकर अगर यह मान भी लिया जाय, कि मंदी के दौर में चैनल पर आया कथित आर्थिक संकट सिर्फ हालात का ताकाज़ा और परिस्थितियों की देन था, लेकिन बाहर का रास्ता दिखाते समय मीडियाकर्मियों के साथ जो रवैया अपनाया गया, वह तो कतई जायज़ नहीं था... इस्तीफे के लिए मीडियाकर्मियों पर बेवजह दबाव बनाना, उन्हें डराना-धमकाना और तुगलकी फरमान जारी करते ही परदेश से आये कलम और कैमरे के सिपाहियों को मिनटों में गेस्ट हाउस से बाहर निकाल सड़क पर फेंक देना, आखिर क्या साबित करता है... यह सब आखिर क्यों... क्या इस तरह आतंकित किये बिना काम नहीं चलने वाला था या इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था... तमाम दूसरे संस्थानों से भी लोग हटाए जाते हैं, वहाँ भी छटनी होती है, लेकिन विदाई की बेला में उनसे इस तरह दुश्मनों से भी बदतर सलूक तो नहीं किया जाता... हाँ, संवेदनाएं ज़रूर जताई जाती हैं और झूठी ही सही, पर दिलासा दी जाती है और जिंदगी के सफ़र में फिर कभी साथ काम करने का आश्वासन भी...


इस घटना से तमाम सवाल उठ खड़े हुए हैं... जिनके जवाब तो आसान हैं, पर उन पर यकीन करना बेहद मुश्किल... दरअसल पिछले एक दशक में मीडिया, खासकर न्यूज़ चैनलों की चकाचौंध ने तमाम पूंजीपतियों को अपने ग्लैमर के जाल में जकडा... इस हरजाई ने बहुतों को अपना दीवाना बनाया, उन्हें सपने दिखाए... बिल्डर से लेकर चूरन बेचने वाले तक, हर किसी को इसमें अपना भविष्य नज़र आने लगा... यानी कलम और कैमरे की आड़, तमाम सही-गलत धंधों को बेरोक-टोक चलाने का हथियार बन गयी... सियासत के सर्कस में वाह-वाही लूटने का इससे आसान और कारगर तरीका दूसरा कोई नहीं रहा... नतीजतन हर महीने, हर हफ्ते नए मीडिया संस्थान खुलने लगे, लेकिन समाजसेवा के मिशन के दफ्तर के रूप में नहीं, बल्कि दुकान की तरह, जहां नज़र ध्येय पर नहीं, बल्कि धंधे पर अटकी रही... मानवीय मूल्य, नैतिकता, संवेदनाएं, सरोकार,परम्पराएं और कर्तव्यबोध जैसे शब्द इन दुकानों में बेमोल और अर्थहीन साबित हुए... ज़ाहिर है दुकान है तो वहाँ बातें सिर्फ नफे और नुकसान की ही होंगी, बाकी का कोई मतलब भी नहीं... बिल्डर और चूरन वालों ने भी यही किया, पत्रकारिता की दुकानें सजाईं, कलम और कैमरे को मोहरा बनाया और जुट गए अपने ख़ास मिशन में... किसी ने दूसरे धंधे चमकाए तो किसी ने राजनीति... पर अगर अपने अनाडीपन से अगर कहीं कोई नुकसान उठाया तो उसका ठीकरा मीडिया के सर फोड़ने में देरी भी नहीं लगाई... घाटा दूसरे धंधे में हुआ, तो मंदी का बहाना बताकर गाज मीडिया विंग पर गिरा दी... यानी पहले मीडिया की आड़ में चलने वाले धंधे अब उसी के बजट से चलाने की योजना तैयार हुई...


मंदी की मार से भारतीय मीडिया कितना प्रभावित हुआ है इसका अंदाजा न्यूज़ चैनलों और अखबारों के विज्ञापनों को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है... यानी भेडिए का पता नहीं और शहर भर में शोर... सौ फीसदी हकीकत है कि भारतीय मीडिया पर मंदी का कोई ख़ास असर नहीं हुआ... जो शोर मचाया गया वह बेमतलब था... जिस चैनल, स्टार न्यूज़ में मैं काम करता हूँ, वहाँ तो आज तक मंदी के नाम पर न तो खबरें कम की गईं और न ही पैसे, बल्कि मुझ पर तो ज्यादा से ज्यादा अच्छी स्टोरीज़ करने का दबाव अब भी पहले की तरह ही रहता है... मंदी ने हमारे संस्थान में आर्थिक संकट क्यों नहीं पैदा किया, शायद इसलिए कि यहाँ की पूंजी, चैनल के कर्ता-धर्ताओं के दम तोड़ते दूसरे धंधों में ट्रांसफर नहीं की गई...


सहारा में आई सुनामी भविष्य के खतरे का संकेत है... ख़तरा इस बात का भी है कि अगर चौथा स्तम्भ इसी तरह पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया तो देश के लोकतंत्र का क्या होगा... जिस दौर में कार्यपालिका और विधायिका से लोगों का भरोसा उठ चुका हो, न्यायपालिका खुद कटघरे में हो, ऐसे नाजुक दौर में चौथे स्तम्भ का कमज़ोर होना, लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं... चौथे स्तम्भ को कमज़ोर करने और इसके खेवनहारों को आतंकित कर लोकतंत्र के लिए ख़तरा पैदा करने वालों का जुर्म किसी आतंकवाद से कम नहीं... क्योंकि पत्रकार जिस दिन खुद को असुरक्षित और कमज़ोर महसूस करेगा, उस दिन से आम आदमी की आवाज़ दबने लगेगी और लोकतंत्र बेमानी हो जाएगा... सवाल सिर्फ सहारा का नही बल्कि पूंजी के उस आतंकवाद का है, जिसके हाथ में चौथे स्तम्भ का रिमोट चला गया है... अगर यही हाल रहा तो क्या आने वाले दिनों में मीडिया की भी वही दुर्दशा नहीं होगी जो आज राजनीति की हो चुकी है.... राजनीति कभी समाजसेवा का प्लेटफार्म होती थी लेकिन आज... आज तो नेता शब्द किसी गाली से कम नहीं चुभता है...
इस बारे में मंत्रालय और सरकार की चुप्पी भी बेहद खतरनाक है... सरकार न सिर्फ आँखों पर पट्टी बाँध धृतराष्ट्र की तरह चुपचाप चौथे स्तम्भ के चीरहरण का तमाशा देख रही है, बल्कि नित नए दुशासन भी पैदा कर रही है... कलम और कैमरे के सिपाही सरेआम रुसवा हों, चौथे स्तम्भ का चीरहरण हो, यह सब होता रहे अपनी बला से... सत्ता पर काबिज़ और उसकी दौड़ में लगे नेताओं के लिए तो यह सुकून की बात है... आखिर पेट और परिवार की खातिर नौकरी बचाने के लिए पत्रकार जब नेताओं व प्रभावशाली लोगों की परिक्रमा करने को मजबूर होगा, उनके रहमो-करम पर निर्भर होगा, तो उनकी कारगुजारियों की खबर क्या ख़ाक बनाएगा... उसकी हालत तो महाभारत की उस गांधारी जैसे होगी, जिसे सही-गलत की पहचान होती है, अच्छे-बुरे का एहसास होता है, अनर्थ होता देख मन तड़पता है, दिल रोता है, लेकिन सब कुछ जानने अरु समझने के बावजूद उसकी अनदेखी करने और उसे बर्दाश्त करने की विवशता होती है... चुपचाप तमाशा देखना उसकी नियति बन जाती है.... ऐसे में कथित मीडिया मालिकों के पूंजी के आतंकवाद के खिलाफ सरकार से कोई उम्मीद बेमानी है, इस बारे में कोई पहल तो खुद मीडिया से जुड़े वरिष्ठ लोगों को ही करनी होगी, और ऐसा करना उनकी व हम सब की नैतिक ज़िम्मेदारी भी है, वरना इतिहास देश के लोकतांत्रिक ढाँचे के बिखरने या कमज़ोर होने का दोष हम सब पर मढ़ने में देर नहीं लगाएगा....


NOTE : यदि आप इस लेख पर कोई कमेंट्स देना चाहते हों तो इस ब्लॉग पर लिखने के साथ ही मेरे ईमेल
moinallahabad@gmail.com पर भी भेज सकते हैं...

29.8.09

मक्खी ऐसे भिनक रही है पकी-पकाई खीर के पास


खीर के पास
मक्खी ऐसे भिनक रही है पकी-पकाई खीर के पास
जैसे हों आंतकी जत्थे सीमा पर कश्मीर के पास
भागा भैंसा संग भैंस के चर के सब फोकट की घास
सुबक रहे हैं ताऊ बैठे खूंटे और जंजीर के पास
भागी उसके साथ हंसीना जिस खूंसट की उम्र थी साठ
घर दीमक ने खूब बनाया घुने हुए शहतीर के पास
काले बुर्के से झांकेगा एक गुलाबी लालीपाप
बैठा च्युंगम चबा रहा हूं मैं उसकी तस्वीर के पास
नई शायरा के शेरों से बूढ़े शायर छेड़ करें
रोते-रोते पहुंची ग़ज़लें नब्ज दिखाने मीर के पास
नीरव की तकदीर से कुछ कुदरत ने ऐसा किया मज़ाक
दारू का ठेका खुलवाया पुरखों की जागीर के पास।

पं. सुरेश नीरव

ब्यूटी सेलून के नाम पर संचालित अय्याशी का अड्डा


मेट्रो सिटी में जहाँ लोग अपने सोंदर्य के लेकर काफी

सचेत हुए वही कुछ अमानवीय लोगो ने उनकी इस

सचेतना को अपने नापाक मनसूबे को पूरा करने का

जरिया बना लिया पहले इन लोगो ने निशाना बनाया

ब्यूटी सेलून को और अब फिटनेस सेंटर तक आ पहुचे

धीरे धीरे ये कुकुरमुते की तरह पूरे शहर में फ़ैल गए |

इनकी पहुँच तो इस बात से ही पता चलती हे की पुलिस थाने से महज ५०० मीटर की दुरी पर ये अपना अड्डा संचलित कर रहे हैं मैंने आपनी प्रारंभिक जाँच में पाया की प्रशासन को भी इसकी भनक है पर हिंदी चीनी भाई भाई के नारे को प्रैक्टिकल करते हुए ये लोग अपना मिशन पूरा करने में लगे हुए हैं |

मेरी आगामी एक्सक्लूसिव स्टोरी में आप नाम पता और वो सब कुछ आप जान जाएँगे जहा ये अड्डे संचालित हो रहे हैं और कैसे ये हमारी युवा पीढी और किशोरों को आपने इस शर्मसार करने वाले कृत्य में शामिल होने पर विवश कर रहे हैं |

बाढ़ि के हाल मे सुधार नहि...

http://ping.fm/txJpW

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एनसीसी कैडेट्स या वेटर ?

श्रीगंगानगर में आज हुए एक प्रोग्राम में एनसीसी कैडेट्स की वेटर के रूप में सेवा ली गई। इन कैडेट्स से चाय और कोल्ड ड्रिंक बंटवाया गया। जबरदस्त गर्मी में पसीने से लात पथ ये कैडेट्स वेटर की भांति प्रोग्राम में आए लोगों को चाय ठंडा बांटते रहे। किसी ने भी इनको इस काम से नहीं रोका। मेरे अपनी राय में एनसीसी कैडेट्स का काम कम से कम चाय ठंडा सर्व करना तो नहीं हो सकता। अगर इस प्रकार के संगठन से जुड़े युवकों से यह काम करवाया जाएगा तो आ गई उनमे देश प्रेम की भावना। ठीक है भारत में सेवा करने से मेवा मिलती है। किंतु सेवा किस की करने से मेवा मिलती है यह भी तो सोचना और देखना है।

लो क सं घ र्ष !: साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की मुश्किलें

'छोड़ दो समर जब तक न सिध्दि हो रघुनन्दन'-ये पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मशहूर कालजयी कविता 'राम की शक्तिपूजा' की हैं। कृतिवास रामायण की रामकथा से प्रेरित यह कविता तत्कालीन उपनिवेशवादी पूँजीवाद की अन्यायपूर्ण शक्तिमत्ता के संदर्भ को धरण करने वाली है। उपनिवेशवादी सत्ता-प्रतिष्ठान इस कदर शक्तिशाली था कि आजादी के संघर्ष की जीत होना कई बार असंभव लगने लगता है। 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' कहते हुए 'शक्तिपूजा' के राम की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं। वे ऐसे युध्द को चलाने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं जिसमें हार पर हार होती जाती है। हालांकि रावण की पराजय के बाद राज्य पाने का अभिलाषी विभीषण्ा राम को युध्द के लिए उत्तेजित करने की भरपूर कोशिश करता है। उन्हें उनका किया वादा याद दिलाता है और रावण द्वारा सीता को दुख पहुँचाने की बात कर राम के मर्म पर चोट करता है, लेकिन राम पर विभीषण का असर नहीं होता। वे सविनय कहते हैं-'मित्रवर विजय होगी न समर'। निराला के राम के लिए जीत का अर्थ सीता को मुक्त कराके विभीषण को राज दे देना भर नहीं है। वे शक्ति के उस खेल को बदलना चाहते हैं जो अधर्मरत रावण को अपनी गोद में लिए हुए तबाही मचा रही है।

राम की इस मौलिक चिंता को जामवंत समझते हैं और उन्हें शक्ति की मौलिक कल्पना और आराधना करने का परामर्श देते हैं, और जब तक शक्ति की सिध्दि न हो जाए, तब तक समर छोड़ देने को कहते हैं। राम जामवंत के सुझाव को मानते हैं और देवी के रूप में देश आराधना करते हैं। भारत का पूरा नक्शा खिंच जाता है। देवी उनकी परीक्षा के लिए पूजा का अंतिम कमल साधना-स्थल से उठा ले जाती है। राम एक बार फिर निरर्थकता बोध से भर उठते हैं। लेकिन कभी न थकने वाला राम का जो 'एक और मन' है, उसे याद आता है कि माता उन्हें हमेशा कमलनयन कहती थीं। नेत्रों के रूप में उनके पास दो नीलकमल शेष हैं। उनमें से एक कमल देवी यानी देश की पूजा में चढ़ा कर वे यज्ञ पूरा करने का संकल्प करते हैं। वे महाफलक हाथ में लेकर ऑंख निकालने के लिए उद्यत होते हैं तो भगवती आकर उनका हाथ पकड़ लेती हैं। राम को विजय का आशीर्वाद देकर उनके बदन में लीन हो जाती हैं।

हम यह जानते हैं कि यह एक फैंटेसी है। इसका दलित-पाठ तो भला क्यों होगा, ब्राह्मण-पाठ इस अर्थ में होता रहा है कि 'शक्तिपूजा' निराला के निजी जीवन के संघर्षों और उसमें खाई चोटों की गाथा। है। यह संकुचित ही नहीं, गलत अर्थ है और उस प्रवृत्ति को दर्शाता है जिसके तहत अगर कोई ब्राह्मण लेखक व्यवस्था से किंचित प्रताड़ित होता है तो माक्र्सवादी ब्राह्मण प्रताड़ना को ही उसकी महत्ता का आधार बना देते हैं। इससे नुकसान यह होता है सम्बध्द लेखक के साहित्य की महत्ता दब जाती है। यानी उसमें जो युग सत्य अभिव्यक्ति पाता है, उसकी उपेक्षा हो जाती है। निराला और हजारी प्रसाद द्विवेदी इस प्रवृत्ति के ज्यादा शिकार बने हैं। बहरहाल, 'शक्तिपूजा' उपनिवेशवादी सत्ता- प्रतिष्ठान और उसे चलाने वाली शक्ति का विकल्प अर्जित करने की क्रांतिकारी चेतना से बनी कविता है। केवल रावण को हरा देना और उसका उत्सव मनाते रहना पर्याप्त नहीं है। रावण की शक्ति को राम के हक में करना होगा। तब रावण रावण नहीं रह जाएगा। वह भयानक युध्द भी आगे नहीं होगा जिसका वर्णन कविता के शुरू में आया है। निराला ने आगे का युध्द दिखाया भी नहीं है। 'होगी जय होगी जय' के घोष और 'पुरुषोत्तम नवीन' के वदन में शक्ति के लीन होने के साथ कविता समाप्त हो जाती है। कोई उत्तेजना अथवा उन्मत्तता का माहौल नहीं रहता है। यह जय मनुष्यता की जय है।

क्या यह राम-राज्य की जय है? हमारे दलित साथी और सोनिया के सेकुलर सिपाही भड़कें नहीं। हम 'शक्तिपूजा' के राम और उसमें जो राम-राज्य का संदेश हो सकता है, अगर हो सकता है, उसकी बात कर रहे हैं। 'शक्तिपूजा' के राम भालू-बंदरों से घिरे हैं। उनका चौदह वर्ष वन में काटना यहाँ विशेष अर्थ प्राप्त कर लेता है। भल्लनाथ जामवंत उन्हें उपाय सुझाते हैं। उस उपाय की पालना में राम ऑंख तक निकाल कर देने को तैयार हो जाते हैं। राम का जो 'एक और मन' है वह अपनी माँ से प्रेरित होता है। विवशता के चरम क्षण में वह सीता का स्मरण करता है। देश की देवी के रूप में पूजा करता है। शक्तियों और सभ्यताओं की टकराहट के दौर में मातृ-शक्ति पर आधरित मातृ-सभ्यता का यह प्रस्ताव क्या उचित नहीं है? और, संप्रदायवादियों ने राम का जो रूप बिगाड़ कर रख दिया है, उसका यह जवाब नहीं है?

'शक्तिपूजा' की चर्चा को यहाँ और आगे नहीं बढ़ाएंगे। हमने उसका हवाला इसलिए लिया है कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' जैसी स्थिति फिर से उपस्थित है। 'शक्तिपूजा' की रचना के बाद आई आजादी की सुबह कभी की तिरोहित हो चुकी है। साम्राज्यवाद का अमेरिकी संस्करण और ज्यादा अन्यायपूर्ण और आततायी है। उसका प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति और समूह ऐसे में क्या करें? शक्ति साम्राज्य के मोह में जो गिरफ्तार है उसे कैसे बाहर निकालें? शक्ति की मौलिक कल्पना कैसे करें?

आइए आज की स्थिति पर नजर डालते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दशक अब समाप्ति की ओर है। हम सभी जानते हैं भारत के साहब समाज, नेताओं और वैश्वीकरण के समर्थक बुध्दिजीवियों ने किस धूम-धड़ाके के साथ इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखा था। गोया आजादी से पूर्व और आजादी के बाद खड़ी की गई समस्त बाधाओं को पिछले दस वर्षों में पार करके आखिर वे स्वर्ग के द्वार पर पहुँच गए हैं। नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में घटित हो कर रह जाने वाली भारतीय राजनीति के घोषणा पत्र पर यह निर्णय दर्ज कर दिया गया कि 'गरीब नर्क हैं, उनसे छुटकारा पाना ही होगा'। हमारे कुछ साथी कई लाख आत्महत्याओं के बाद किसानों को दिए जाने वाले 'पैकेज' और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी 'उपलब्धियों' का हवाला न देने लगें। हम पहले भी कह चुके हैं और आज भी कहते हैं कि यह सब छुटकारा पाने तक का बंदोबस्त है, और इस बात की गारंटी कि देश की अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों, नेताओं, उनके दलालों, नौकरशाहों, बाजारवाद की भड़ैती करने वाले कलाकारों, बुध्दिजीवियों के लिए चलाई जा रही है और आगे भी चलाई जाएगी, और धूर्ततापूर्वक झूठ बोले जाएंगे कि सरकार की चिंता असमानता मिटाने की है। हाल में पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती का आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री ने असमानता मिटाने का वादा किया है। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह दिन-रात इस कानून का गुण गाते हुए उसे दुनिया में अभूतपूर्व बताते नहीं थकते। समस्त सरकारी माध्यम प्रचार करने में जुटे रहते हैं कि यूपीए सरकार ने (यूपीए सरकार यानी सोनिया गांधी) गरीबों को मालामाल कर दिया है।

हम इसे संविधान में दर्ज वादों और दायित्वों की तौहीन मानते हैं कि देश की विशाल वंचित आबादी को साल में सौ दिन साठ रुपया रोज पर मिट्टी कोड़ने के काम में लगाने को उपलब्धि बताया जाए। जो यह समझते हैं कि उन्होंने सरकार से यह राहत गरीबों को दिलवाई है और उसके बदले में सोनिया गांधी और मनमोहन मंडली के गुणगायक और सहायक बने हुए हैं, वे अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसा कुछ यह सरकार खुद भी करती। आखिर 'नया इंडिया' बनाने के लिए बेगार तो चाहिए। जी हाँ, ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बेगार प्रथा का वर्तमान संस्करण है। सामंत भी बेगार के बदले पेट में कुछ डालने के लिए देते थे। मेहनतकशों के लिए भागते भूत की लंगोटी और उनकी मेहनत पर मौज मारने वालों के लिए खुली लूट-तो फिर संविधान रखा किस लिए जा रहा है? शपथ खाकर लूट की व्यवस्था चलाने के लिए! तभी साम्राज्यवादी सत्ताा-प्रतिष्ठान के चाकर पूँजीपति नसीहत देते हैं कि देश का प्रधनमंत्री कौन होना चाहिए? वित्तमंत्री तो वे अपना पिछले बीस साल से बनवाते आ ही रहे थे। क्या कहते हैं सीपीएम के कामरेड अपने प्यारे रतन टाटा के बारे में? खैर, हमने एक उदाहरण दिया है। सच्चाई यह है कि पिछले बीस वर्षों के समस्त कानून और कार्यक्रम साम्राज्यवाद की सेवा में बनाए गए हैं। यही इक्कसवीं सदी के 'नए इंडिया' का जयघोष है।

लिहाजा, नवउदारवाद के पैरोकार आज भी वैसे ही उन्मत्ता हैं जैसे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के वक्त थे। हालांकि बीते दशक में भारत सहित दुनिया की मानवता ने पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अनेक निष्ठुर प्रहार झेले हैं। उनकी सूची देने की जरूरत नहीं है। सब आपके सामने है और आगे भी रहने वाला है। चुनौती साम्राज्यवाद के प्रतिरोध की है। जो नहीं हो पा रहा है। दरअसल, साम्राज्यवादी व्यवस्था ने अपने प्रतिरोध की शक्तियों और कार्यप्रणाली (रास्ता) को भी खुद ही गढ़ा है। ऐसा करना उसके लिए जरूरी है ताकि कम से कम नुकसान उठा कर व्यवस्था को मजबूती के साथ चलाए रखा जाए। यह उसकी वैकल्पिक विचारधारा और प्रतिरोध की वैकल्पिक कार्यप्रणाली को निष्क्रिय करने की विशेष पध्दति है, जिस पर वह विशेष ध्यान भी देती है। हम यहाँ केवल तालिबान और अलकायदा जैसी शक्तियों और प्रतिरोध के उनके रास्ते के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम माक्र्सवाद के विभिन्न रूपों से लेकर वर्ल्ड सोशल फोरम, जो अनेक एनजीओ का पुंज है, की बात भी कर रहे हैं। मजदूर, किसान और छात्र यूनियनों की भी, और सरकारी व मठी गांधीवादियों की भी। पूँजीवाद के पेट से पैदा अथवा उसके ऑंचल में पल-पुसने वाली इन प्रतिरोधात्मक शक्तियों पर पूँजीवाद की नजर और पकड़ हमेशा बनी रहती है। जाहिर है, अपने खड़े किए प्रतिरोधों से निपटना पूँजीवादी साम्राज्यवाद अच्छी तरह से जानता है। वह कभी न टूटने वाले संकल्प से परिचालित होता है कि अपने पेटे के बाहर की प्रतिरोधी विचारधारा और कार्यप्रणाली को हर हालत में निष्क्रिय बनाना है।

'यह वह माक्र्सवाद नहीं है जो माक्र्स और एंगल्स ने दिया था, एक दिन माक्र्स और उनके माक्र्सवाद की वापसी होगी, बल्कि हो चुकी है' - इन शास्त्रीय ओटों में मन को तसल्ली भले दी जा सकती हो, पूँजीवादी साम्राज्यवाद का विकल्प प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। भारत से ज्यादा यह सच्चाई दुनिया में और कौन जान सकता है कि जड़ शास्त्रवादी 'परिपूर्णता' और 'पवित्रता' के दावों में जीते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी, युग दर युग अपना पंथ चलाते रहे हैं। शास्त्रीय माक्र्सवाद की ओट में यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि वैज्ञानिक समाजवाद पूँजीवाद को पूर्वमान्य करके चलता है। यानी उपनिवेशवादियों द्वारा तीसरी दुनिया की लूट और तबाही को उसका सैध्दांतिक समर्थन होता है। वरना ठहरे/पिछड़े हुए समाज गतिशील कैसे होते? कोई हमें माक्र्स के भारत संबंधी लेखों का हवाला मत देने लगना। उपनिवेशिक ताकत की 'ऐतिहासिक भूमिका' के हम कतई कायल नहीं हैं। दरअसल, तीसरी दुनिया का वास्तविक इतिहास तभी बनेगा जब पूँजीवाद की कथित 'ऐतिहासिक' भूमिका को नकार दिया जाएगा। शायद तभी पूँजीवादी साम्राज्यवाद विरोध की चेतना भी बहाल हो सकेगी।

बात इक्कीसवीं सदी के पहले दशक को लेकर शुरू हुई थी। पिछले दशक में हमने देश की आजादी से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाओं, आदर्शों और नेताओं का स्मरण किया है। उनमें प्रमुख हैं - सुभाषचंद्र बोस का जन्म शताब्दी वर्ष, चंद्रशेखर आजाद का जन्मशताब्दी वर्ष, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के 75 वर्ष, भगत सिंह का जन्म शताब्दी वर्ष, खुदीराम बोस की शहादत का शताब्दी वर्ष, 1857 (सत्ताावन) के संग्राम की डेढ़ सौवीं सालगिरह, जेपी का जन्मशताब्दी वर्ष, सत्याग्रह की शुरुआत का शताब्दी वर्ष और अब 'हिंद स्वराज' लिखे जाने का शताब्दी वर्ष। इस साल मार्च से लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष भी शुरू होने जा रहा है जिसे मनाने की तैयारी साथी कर रहे हैं।

उपर्युक्त अवसरों पर ज्यादातर कार्यक्रम सरकारी स्तर पर अथवा सरकारी सहायता से संपन्न हुए हैं। हालांकि कुछ लोगों और संगठनों ने आपसी सहयोग से सरकारी तंत्र के बाहर भी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन किया। इसके अलावा राजनैतिक पार्टियों ने भी अपने आयोजन किए। 1857 को लेकर देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों में ठना-ठनी हो गई थी। जबकि माक्र्सवादी पार्टियों और बुध्दिजीवियों ने संदेश देने की कोशिश की कि 1857 पर केवल उनका पेटेंट है। साम्राज्यवाद विरोध के संघर्ष में आगे रहने वाले कुछ साथियों ने सरकारी स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने से लेकर उनमें सक्रिय हिस्सेदारी की। अनेक गैर-सरकारी और स्वायत्ता कही जाने वाली संस्थाओं ने सरकार से धन लिया। 1857 की डेढ़ सौवीं सालगिरह का ऐसा जोर चला कि सरकार ने खजाना खोल दिया। कुछ साथी कहते हैं कि सरकारी खजाना खुल गया था इसलिए ज्यादा जोर चला! जो भी हो, लेने वालों ने लंबे हाथ पसार कर सरकारी धन लिया। हम उसमें नुक्ता नहीं निकालते। साथियों को लग सकता हैे कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित करने में सरकारी सहयोग किया/लिया जाना चाहिए। यह तो साथी मानते ही हैं कि उस दिशा में विदेशी धन लेने वाले एनजीओ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे तर्क प्रचलन में आ गए हैं कि सरकारी संस्थाओं और विभागों में नौकरी करने वाले लोगों की तनख्वाहों और अन्य सुविधाओं में विदेशी धन मिला होता है। लिहाजा, एनजीओ का विदेशी धन लेना गलत नहीं है।

हमारी चिंता अलग है। साल दर साल पूरे देश में असंख्य और भव्यतम कार्यक्रम संपन्न होने के बावजूद साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित और प्रभावी नहीं हो पाई। सब कुछ जैसे उत्सव बन कर रह गया। क्या यह मानें कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना अब पैदा ही नहीं हो पाती है? वरना यह कैसे संभव है कि स्वतंत्रता संघर्ष की इतनी विराट और प्रेरणाप्रद घटनाओं, आदर्शों और नेताओं को याद करते रहें और देश की राजनीति में वह होता रहे जो हो रहा है। यानी गुलामी और केवल गुलामी। हमारे कुछ साथियों को स्वतंत्रता का संघर्ष भले ही समझौतावादी लगता हो, उस दौर में देशवासियों की कुर्बानियों, जो हिंसक और अहिंसक दोनों रास्तों पर दी गईं, की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। हमने पिछले महीने रॉस टापू, जहाँ 1857 के बागियों को बंदी बना कर ले जाया गया था और अंडमान स्थित सेलुलर जेल को देखा, जहाँ बाद में क्रांतिकारियों को ले जाकर कैद रखा जाता था। रॉस टापू पर अंग्रेजों ने अपने लिए 'मिनी पेरिस' बसाया था जो 1941 के भूकम्प में और फिर 1942 में जापानियों के आधिपत्य के चलते विनष्ट हुआ। लेकिन उसके काफी पहले अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में अपना वैभव कायम कर लिया था। रॉस और पोर्ट ब्लेयर का वह वैभव सेकुलर जेल में लगे चित्रों में देखा जा सकता है। उस पाशविक बरताव की कहानियाँ भी वहाँ खुदी हैं जो अंग्रेज आजादी के दीवानों के साथ करते थे। लेकिन हमारे विद्वान हमें उसी दिन से पट्टी पढ़ा रहे हैं कि अंग्रेज प्रगतिशील थे और भारतीय क्रांतिकारी सामंती!

बहरहाल, इनकार शुरू से ही मौजूद रही खांटी साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से भी नहीं किया जा सकता। न ही पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की उस वैकल्पिक विचाधारा के होने से जिसे गांधी ने गढ़ने की कोशिश की थी। हमारे आधुनिक और प्रगतिवादी साथियों के यहाँ सबको माफी है सिवाय 'पिछड़े' भारत और 'बुर्जुवा' गांधी के। उनके विचार में उनमें कोई क्रांतिकारी तत्व हो ही नहीं सकता। इसलिए आम भारतीयों की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना और गांधी की साम्राज्यवाद के विरोध की वैकल्पिक विचारधारा की बात जाने दें। फिर भी देशवासियों द्वारा दी गईं कुर्बानियों के मद्देनजर विचार करें तो जिन्हें समाज और राष्ट्र का अपराधी करार दिया जाना चाहिए, वे देश के नियंता और निर्णायक बने हुए हैं। साम्राज्यवाद के इन गुलामों को मीडिया और बुध्दिजीवी लोगों के बीच तारनहार, त्यागमूर्ति, विकास-पुरुष, युवा हृदय-सम्राट और न जाने क्या-क्या प्रचारित करते हैं, और हम कुछ नहीं कर पाते हैं।

आध्ुनिक युग में ठीक ही युवा-शक्ति पर बहुत भरोसा जताया जाता है। सभी देशों के राजनैतिक दल और अन्य संगठन युवा-शक्ति का आह्वान करते पाए जाते हैं। लेकिन भारत का परिदृश्य निराशाजनक है। कांग्रेस और भाजपा से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लगे युवक, नेताओं के बेटे-बेटियों के पिछलग्गू बने घूमते हैं। वे पोस्टर और होर्डिंग लगा कर अपने आक़ाओं को खुश करने में लगे रहते हैं। पूरा देश इस तरह के पोस्टरों-होर्डिंगों से पटा हुआ है। वामपंथी पार्टियों में युवकों के लिए करने को कुछ खास नहीं होता। पहले से 'लाइन' तय होती है। झोला उठाइए, लग जाइए। थोड़ा उग्र किस्म के माक्र्सवादी हुए तो 'नव-गांधीवाद' को ठिकाने लगाने में दिमाग लगाते रहिए। कहने का आशय यह है कि क्रांतिकारियों के जन्म और शहादत दिवस और वर्ष के कार्यक्रमों में शामिल होने के बावजूद ज्यादातर युवक भी कोरे रह जाते हैं। सुभाष चन्द्र बोस का तरुण्ााई का सपना उनमें प्रेरणा नहीं फूँक पाता। मीडिया में जब यह कहा जाता है कि युवा नेतृत्व आगे आना चाहिए तो नेताओं के उन बेटों से ही मुराद होती है, जो संसद में मौज-मस्ती करते हैं और जिन्हें अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों 'युवा तुर्क' बना कर पाठकों के सामने कई दिनों तक पेश किया था। आपने देखा कि उस अखबार के एक भी पत्रकार या स्तंभकार ने यह सवाल नहीं उठाया कि युवा तुर्क के क्या मायने होते हैं और नेताओं के बेटे युवा होने से ही युवा तुर्क कैसे हो गए? उलटे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के धुर समर्थक इस अखबार के संपादक को गणतंत्र दिवस पर महामहिम राष्ट्रपति ने पद्म पुरस्कार प्रदान किया है। हमें साम्राज्यवाद के गुलामों की अनंत कथा में नहीं जाना है। इतना कहना था कि देश की युवा-शक्ति में भी उपर्युक्त कार्यक्रमों से साम्राज्यवाद विरोध्ी चेतना का संचरण नहीं हो पाया।

आज की वास्तविकता यही है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का परिणाम नहीं निकलता। बल्कि साम्राज्यवाद शक्तिशाली होता जाता है। साम्राज्यवाद के गढ़ अमेरिका से शुरू होकर बाकी दुनिया पर असर डालने वाली आर्थिक मंदी को हम साम्राज्यवाद के ढहने की शुरुआत नहीं मानते। उसे इस तरह के संकटों से ढहना होता तो 1930 के दशक में ही ढह जाता। तब कम से कम दुनिया के कई देशों में समाजवादी आंदोलन का जोर था और औपनिवेशिक गुलामी झेलने वाले देशों में आजादी के संघर्ष का। अब तो माक्र्सवादी आगे बढ़-बढ़ कर पूँजीवाद को लुभाने और अपने देश-प्रदेश में लाने की घोषणा करते हैं। जैसा कि पिछले अंक में हमने लिखा था-अमेरिका के पहले अर्ध्द-अश्वेत राष्ट्रपति को हम साम्राज्यवाद के बाहर की कोई ताकत नहीं मानते। वैसे भी इस लेख में हम भारत में चलने वाले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष पर विचार कर रहे हैं, जो पिछले बीस वर्षों से एक बार फिर साम्राज्यवाद की चरागाह बन कर रह गया है।

साम्राज्यवाद विरोध की शक्तियों के बिखराव पर अक्सर चिंता की जाती है। वह सही चिंता है। कहने की जरूरत नहीं कि विरोध की शक्तियों को बिखराव में डाले रहना साम्राज्यवाद को माफिक आता है। लेकिन बिखराव के बावजूद, अगर शक्ति है, तो उसका कहीं कुछ असर दिखाई देना चाहिए। आगे का रास्ता भी बनता दिखना चाहिए। 1992 में हमने भारत छोड़ो आंदोलन की पचासवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई थी। वही समय मनमोहन सिंह की मार्फत नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत का था। तब से अब तक नई आर्थिक नीतियाँ तो अपना काम कर गईं। यानी भारत पूँजीवादी साम्राज्यवाद का मातहत बन गया। लेकिन क्रांतिकारी विरासत की याद और चौतरफा संघर्ष के अनेक प्रयासों के परिणाम स्वरूप सामाजिक, राजनीतिक अथवा बौध्दिक क्षेत्र में कतिपय अचूक और मजबूत साम्राज्यवाद विरोधी उपस्थितियाँ उभर कर सामने आनी चाहिए थीं, वह नहीं हुआ। उलटे बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ और भारत साम्प्रदायिकता के बाद आतंकवाद का भी शिकार हो गया। एक अरब बीस करोड़ की आबादी के देश में, जहाँ अधिसंख्य लोग हर तरह के अन्याय का शिकार हैं, मुख्यधारा के बाहर एक भी नेता की ऐसी प्रतिष्ठा नहीं है कि वह विधानसभा या लोकसभा का चुनाव जीत सके। साम्राज्यवादी आदेश पर चलने वाली भारत की राजनीति का प्रतीकात्मक विरोध करने के लिए एक-दो लोग संसद या विधानसभाओं में जा सकें, इसके लिए बार-बार प्रयास होते हैं लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिलती। जबकि नेताओं के रिश्तेदार, माफिया, उद्योगपति, फिल्मी हीरो सोचते बाद में हैं, संसद में प्रवेश पहले मिल जाता है। शक्ति के इस खेल पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा, भले ही फिलहाल समर छोड़ देना पड़े।

आइए कुछ देर के लिए अपने को कटघरे में खड़ा करें। जिसे बिखराव कहा जाता है, कहीं वह भटकाव तो नहीं है? यानी निरंतर बना रहने वाला बिखराव हमारे भटकाव के चलते तो नहीं है? सीध्ी अभिव्यक्ति में कहें - स्मरण और संघर्ष करते हुए भी हम पूँजीवाद के पथ पर तो नहीं भटके रहते हैं? यानी हम पूँजीवाद की चलाई पध्दति के तहत तो प्रतिरोधरत नहीं होते हैं? अगर ऐसा नहीं होता तो पूँजीवादी विकास और जीवनशैली उन लोगों के मन-मानस में भी कैसे रम जाती है जो उसका सीधे शिकार हैं? हमने शिक्षा, मीडिया, शोध, भाषा, संभाषण आदि में वह सब कुछ किया होगा तभी तो पूँजीवाद का प्रभाव इतना गहरे पैठा है? अपने बचाव में तो हम कह सकते हैं कि पूँजीवादी जीवनशैली अपना कर भी हम प्रगतिशील हैं, क्योंकि विचारधारा से हम प्रगतिशील हैं। लेकिन यह सवाल तो है कि आजादी के बाद से समस्त बौध्दिक उद्यम हमारे हाथ में रहा है, फिर ऐसा क्यों है कि पूँजीवाद विरोध की प्रेरणा न हमारा इतिहास देता है, न राजनीति शास्त्र, न समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और न ही कला और साहित्य।

निराशा और गहरी हो जाती है जब देखते हैं कि अगर कहीं से कोई प्रेरणा बन सकती है तो हमने उसे सप्रयास नष्ट करने का प्रयास किया है, बलिक नष्ट किया है। हाल का एक अनुभव आपसे साझा करना चाहते हैं। देश के मूर्धन्य अर्थशास्त्री और साम्राज्यवाद विरोध के एक महत्वपूर्ण अगुआ प्रोफेसर कमलनयन काबरा ने लोहिया का 1943-44 के बीच लिखा गया लंबा किंतु अधूरा निबंध 'इकॉनॉमिक्स आफ्टर माक्र्स' हमसे पिछले साल पढ़ने के लिए लिया। उन्होंने हाल में एक-दो बार लोहिया की संसद में की गईं आर्थिक बहसों के बारे में भी हमसे जानकारी ली है। यानी देश की वामपंथी विद्वता के दायरे से लोहिया बहिष्कृत रहे हैं। ऐसा सप्रयास किया गया है। कुछ साल पहले प्रकाशित दूधनाथ सिंह के उपन्यास 'आखरी कलाम' का कथानायक वैसा निबंध लिखने को लोहिया की हिमाकत बताता है। हम यहाँ यह सिध्द नहीं करने जा रहे हैं कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों को पूण्र्[1]ा रूप से परिवर्ध्दित और अंतत: बंद व्यवस्थाएं मानने वाले लोहिया के पास ही उनका वास्तविक विकल्प था और उसे आजमाना चाहिए। लोहिया तो एक उदाहरण हैं, हम उस प्रवृत्ति की तरफ ध्यान खींचना चाहते हैं जिसके तहत कांग्रेसी शासन से सुविध-प्राप्त विद्वानों ने भारत के बहुत-से महत्वपूर्ण विचारकों को विद्वता के दायरे से बाहर रखा है।

25 जनवरी को आईआईटी में प्रोफेसर उपाध्याय के यहाँ वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में विकल्प की अनौपचारिक चर्चा के लिए काबरा साहब का फोन आया कि हम भी उसमें आएं। फोन पर बात-चीत में उन्होंने हँस कर जिक्र किया कि किसी ने एक लेख में लिख दिया है कि गाँधी और लोहिया का विकल्प उपलब्ध है। प्रगति और विकास की ज्ञान-संरचना से बाहर रखे गए दो विचारकों को विकल्प बताने की बात पर काबरा साहब का हँसना गलत नहीं है। जिस विद्वत समाज का वे हिस्सा रहे हैं वहाँ ऐसा ही 'माइंडसेट' रहता है। वहाँ गाँधी और लोहिया जैसे विचारकों से फुटकर सहायता ली जा सकती है, उनके चिंतन को आधुनिक प्रगति और विकास का आधार नहीं बनाया जा सकता। ज्ञान और उसकी सरणियों की पूँजीवादी और माक्र्सवादी समझ ने विद्वानों का यह दिमागी दायरा (माइंडसेट) बनाया है। हम यहाँ फिर स्पष्ट कर दें कि यह उदाहरण देना गाँधी अथवा लोहिया के चिंतन को पूँजीवादी साम्राज्यवाद का एकमात्र विकल्प मानने की वकालत करना नहीं है। ज्ञान के क्षेत्रों में प्रचलित वैदुषिक वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की कमी को रेखांकित करना है।

कुछ साथी कह सकते हैं कि यथार्थ को इस रूप में पेश करना निराशावाद है, और कुछ कह सकते हैं कि माक्र्सवाद को छोड़ कर और कौन-सी आशा है? आगे बढ़ने से पहले हम स्पष्ट कर दें कि भविष्य को लेकर हमें कोई निराशा नहीं है। अलबत्ता वर्तमान और निकट अतीत को लेकर जरूर निराश हैं, जिसे ज्यादातर पूँजीवाद, फासीवाद और साम्यवाद के सम्मिलित त्रिकोण ने अंजाम दिया है। गांधीवाद का थोड़ा-बहुत दखल आजादी के अहिंसक संघर्ष में कोई मानना चाहे तो मान लें, वरना देश-विदेश में आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था को बनाने और चलाने वालों में उनका कोई पुछत्तर नहीं रहा है। खुद आजाद भारत के पहले प्रधनमंत्री ने उनकी चिठ्ठी को कूड़ेदान के हवाले कर दिया था, उनकी नजर में वही उसकी सही जगह थी। अगर उस वाकिये का हम प्रतीकतार्थ करें तो भारतीय जनता को, जैसी भी भली-बुरी वह है, कूड़ेदान में फेंका गया था। हमारी निराशा के ठोस कारण हैं। साभ्यवादी व्यवस्था की स्थापना में और उसे चलाने-फैलाने के दौरान हुई हत्याओं को 'क्रांतिकारी कर्म' मान कर अलग निकाल दिया जाए, तो भी मानव सभ्यता के इस 'प्रगतिशील चरण' में कई करोड़ हत्याओं का आंकड़ा बताया जाता है। कई मानव समूहों का तो सफाया कर दिया गया है। हत्याओं की बात एकबारगी जाने दें - 'जो आया सो जाएगा राजा रंक फकीर'। भारतीय उपमहाद्वीप समेत एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका में किसी भी लिहाज से मानवीय नहीं कहा जा सकने वाला जीवन जीने वाले असंख्य लोग हमें निराशा से भर देते हैं।

उस दिन कामरेड आईके शुक्ला की याद में शमशुल भाई ने सभा रखी थी। काफी दिन बाद प्रोफेसर रणधीर सिंह से मिलना हुआ। उनकी हमारे ऊपर कृपा और भरोसा दोनों हैं। मिलते हैं तो अपने लेखन और कार्यक्रमों के बारे में उत्साह से बताते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की एक सच्ची आवाज हैं। उन्होंने बताया कि एक लेख में उन्होंने गाँधी का कुछ जिक्र किया है जो मेरे काम का हो सकता है। फिर बोले कि आजादी क्रांतिकारी रास्ते से आती तो आज यह सब न होता। क्रांतिकारी रास्ते से उनका आशय हिंसक रास्ते से है। उनकी वैसी सैधांतिक मान्यता के लिए उग्र वामपंथी साथी उनका सम्मान करते हैं। हम छिपी और खुली हिंसा से चौतरफा घिरे हैं तो वह अकारण नहीं है। हमें धर्मवीर भारती के 'अंध युग' की पंक्तियाँ अनायास ध्यान आ गईं - 'यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है'। आपको बता दें, हिंदी आलोचना में इस कृति को क्रान्ति का खलनायक बताया जाता रहा है।

एक और शास्त्रवादी माक्र्सवादी प्रोफेसर एजाज अहमद माक्र्सवाद की पुर्न प्रतिष्ठा होने की अनिवार्यता के बारे में लगातार लिख और बोल रहे हैं। 'युवा संवाद' के दिसंबर अंक में उनका 'फासीवाद एक निर्मम सूदखोर' लेख छपा है। लिखा है, ''द्वितीय विश्व युध्द के दौरान फासीवाद विरोधी प्रतिरोध में साम्यवादी पार्टियों की केंद्रीय भूमिका रही या सोवियत संघ ने फासीवाद की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युध्द में रूस के कुल हताहतों की संख्या मानव इतिहास के किसी भी युध्द में हुए हताहतों से अधिक थी तथा इसके अतिरिक्त केवल वियतनाम में ही संभव हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में जान का नुकसान उठाने वाला देश विजयी हुआ।'' एजाज साहब सोवियत रूस और वियतनाम के लाखों सैनिकों और लोगों की मौत को इसलिए इतना मान दे रहे हैं क्योंकि वे भौतिकवादी साम्यवाद की बलिवेदी पर हुईं। जबकि, जैसा कि उन्होंने अपने लेख में कहा है, फासीवादी देशों के सैनिक और लोग आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की बलिवेदी पर कुर्बान किए जाते हैं। साम्यवाद के रास्ते पर मरना इतना पवित्र है तो मारना उससे ज्यादा नही ंतो उतना अवश्य होता होगा!

हिंसा की समस्या जटिल है। परिस्थितिजन्य हिंसा का उद्वेग और विस्फोट व्यक्ति और समाजों में होता रहता है। लेकिन हिंसा की सैध्दांतिक संपुष्टि एक अलग चीज है। वह आध्ुनिकता-पूर्व के कई शास्त्रों और जीवन दर्शनों में मिलती है। गाँधीवाद के सिवाय आधुनिक युग की सभी विचारधाराएँ हिंसा की न केवल सैध्दांतिक संपुष्टि करती हैं, हिंसा से परिचालित भी हैं। उनकी हिंसा की चपेट में मनुष्यों के साथ बड़े पैमाने पर अन्य जीवधारी और प्रकृति भी आते हैं। यह जिक्र हमने इसलिए किया कि हम न केवल अपने दिमाग में पूँजीवादी विकास और प्रगति लिए घूमते हैं, हिंसा भी हमारे दिलो-दिमाग में जगह बनाए रहती है। शायद इसीलिए हम गाँधी के विचारों और पध्दति से रिश्ता नहीं बना पाते, जबकि पूँजीवाद और माक्र्सवाद से रिश्ता बनाने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।

ऐसा नहीं है कि हम पूँजी, टैक्नोलोजी और उत्पादन के विरोधी हैं। शालीन, शानदार, सर्जनात्मक और सुरक्षित जीवन के सब हकदार हैं। जिनका दमन और शोषण हुआ है वे सबसे पहले और सबसे ज्यादा। लेकिन पूँजीवाद में इसकी न इजाजत है, और जाहिर है, न व्यवस्था। पूँजीवादी प्रगति और विकास को आदर्श मानने वाला माक्र्सवाद वह कर देगा, ऐसी भी संभावना नहीं है। फिर भी हम कहीं न कहीं मानते हैं कि वैसा हो सकता है, बल्कि होना चाहिए। जब तक हमारे सोच में यह भटकाव रहेगा, और हिंसा बध्दमूल रहेगी, साम्राज्यवाद का सूरज भी चमकता रहेगा।


-प्रेम सिंह

लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

*दिल के छाले *

जिन आँखों में सितारे
झीलमीलाते है.

उन आँखों के आंसू
दरिया भी बन जाते है.
कुछ दर्द होते है जिनका
इलाज नहीं होता.
फिर भी लोग दिल के छालों पर मरहम लगाते है.
*****नितिन सबरंगी******

लो क सं घ र्ष !: छायानट का सम्मोहन...


व्याकुल उद्वेलित लहरें,
पूर्णिमा -उदधि आलिंगन
आवृति नैराश्य विवशता ,
छायानट का सम्मोहन

जगती तेरा सम्मोहन,
युग-युग की व्यथा पुरानी।
यामिनी सिसकती -काया,
सविता की आस पुरानी।

योवन की मधुशाला में,
बाला है पीने वाले।
चिंतन है यही बताता ,
साथी है खाली प्याले

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

28.8.09

http://katrane.blogspot.com/2009/08/blog-post_06.html?showComment=1251479180268#क६३४०५३६०१९९४६९९१२७२ से लौटकर

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
आज ब्लॉग्गिंग में कोई नौ महीने होने को हुए....मैं कभी किसी झमेले से दूर ही रहा....सच तो यह है....महीने-दो-महीने में ही मैंने ब्लोग्गरों में इस ""टोलेपन"" को भांप लिया था....और इस बात की तस्दीक़ रांची में हुए ब्लोग्गर सम्मेलन में भी भली-प्रकार हो गयी थी.........मैं किसी से ना दूर हूँ ना नज़दीक..........आज पहली बार किसी भी ब्लॉगर की पोस्ट पर इतनी ज्यादा देर ठहरा हूँ...!!....शायद आधे घंटे से भी ज्यादा.......पूरी पोस्ट और हर एक टिप्पणी पर ठहर-ठहर कर सोचते हुए बहुत से विचारों का कबाड़ा मैंने भी अपने दिमाग में इकठ्ठा कर लिया था.......और सोचा कि ना जाने क्या-क्या कुछ लिख मारूंगा.....मगर कविता वाचक्नवी जी की टिप्पणी पर पहुँचते ही सारी बातें अपने-आप ही व्यर्थ हो गयी......और यह सब समय की ऐसी-की-तैसी करना लगा.......बेशक आपके मुद्दे बिलकुल सही हैं....तथ्यवार हैं......और गंभीरता-पूर्वक "सोचनीय" भी....मगर जैसा की कविता जी ने कहा.....अन्त में, यही सत्य है कि जो जितना खरा होगा उतना दीर्घजीवी होगा। कालजयी होने के लिए काल पर जय पाने में समर्थ सर्जना अश्यम्भावी होती है वरना समय की तलछट में सब कुछ खो जाता है......सारी बातों का यही विराम है.......!!
.......मैं ऐसा मानता हूँ....जब तक आदमी है.....उसमें ""टोले"" बनाने का भाव रहेगा ही....क्योंकि ""टोलों"" में सुरक्षा होती है.......पहले पशुओं से थी....फिर प्रकृति से..... फिर अन्य समाजों से.......या अन्य किस्म के ""टोलों"" से.......फिर राज्यों या देशों से....!!!!.....और अब..... अब, अपनी ही भाषा बोलने वाले....लिखने वाले....की विभिन्नताओं से....विभिन्न किस्म की "सोचों" से....!!....रचनाकर्म सर्जन-धर्मिता या सृजनात्मकता नहीं.......बल्कि विभिन्न तरह के "वाद" हैं....!!.....ये "वाद"....क्योंकर बनाए हुए हैं या बनाए जाते हैं....किसके द्वारा बनाए जाते हैं....किसके द्वारा चलाये जाते हैं....कौन से लोग कौन से स्वार्थों से इन "वादों"को पोषते हैं.....सृजन-कर्म सिर्फ एक कला-कर्म ना होकर "वादों की बपौती" क्यों हैं.....और क्यों पसंदीदा चीज़ों के ""टोले"" निर्मित हो जाते हैं....???.....और उनसे विलग दूसरी चीज़ें क्यों उपेक्षा का शिकार बन जाती हैं....??....किन्हीं लोगों के निजी संस्मरण क्यों प्रशंसा पाते हैं...?? और क्यों अच्छी-से-अच्छी बात लोगों के गले नहीं उतरती....!!.....लोगों में देश को बनाने और उसके लिए कुछ कर जाने वाली संजीदा चीज़ें भी क्यों घर नहीं कर पाती...और अन्य मनोरंजनात्मक चीज़ें कैसे "लिफ्ट" होती हैं....!!....क्या लोगों में उपयुक्त संजीदापन नहीं है....या कि भारत के ब्लागर अभी उतने "समझदार" नहीं हुए हैं....या....कि अभी पाठकों का एक बड़ा वर्ग संजीदा चीज़ों से अभी-तक ""अ-जानकार"" है....ऐसे बहुत से ब्लॉग मेरी दृष्टि से होकर निकले हैं जिनके कंटेंट अद्भुत रहे हैं....यहाँ तक कि भाषा अथवा शैली भी....मगर वहां पर हमरे ब्लोगर टिप्पणीकार नहीं दिखे....और अन्य किसी हल्के-फुल्के ब्लॉग पर मस्ती से टिपियाते दिखाई दिए....!!! या कि एक दुसरे को टिपियाकर आत्मरति का सुख लेने का भाव है हम लोगों में.....यहाँ तक कि मैंने अब तक जो भी आलोचनात्मक टिप्पणियां की वहां विशुद्द रूप से सामने वाले को ऊपर उठाने के भाव से यथोचित उचित राय ही दी,कभी किसी को ब्लॉगपर गाते सुना तो उसके बेसुरेपन पर भी उसको चेताया....जबकि वहां बाकि सारे लोग उसकी प्रशंसा में "आत्मरत" थे....और तुर्रा यह कि उक्त ब्लोगर ने मेरे ब्लॉग पर ही आना छोड़ दिया....इससे यह भी इंगित है कि हम सिर्फ प्रशंसा ही चाहते हैं....और इसे पाने लिए हम दूसरों के ब्लॉग पर अपनी प्रशंसा का ""इनवेस्टमेंट""करते हैं....मगर मैं तो भूत हूँ........ मैं सदा ""जो है""....वैसा ही कहकर लौटता हूँ.....बेशक कुछ वक्त लगे....मगर सही बात समझने की तमीज ब्लोगर को आएगी ही.....!!.......
........आवेश.....जहां तक मैं जानता हूँ.....आदमी मनोरंजन पहले पसंद करता है....संजीदगी उसके बाद....और ब्लॉग्गिंग करने वाले लोग भगवान् की दया [अरे-रे-रे क्या बोल गया मैं....भगवान नहीं भाई{सांप्रदायिक हो जाएगा ना....!!}.....उपरवाले की दया] से ""पेट से भरे हुए हैं....और भरे पेट में दुर्भाग्य वश खामख्याली ज्यादा आती है....संजीदगी कम....अरे-अरे-अरे खुद मैं इससे अलग थोडा ना कर रहा हूँ.....फिर एक बात और भी तो है....कि उपरवाले सबके कान में यह फूंककर नीचे भेजा है कि भैया तू ही सबसे श्श्रेष्ठ है.....तुझसे बेहतर कोई नहीं....(तेरी कमीज़ से ज्यादा और कोई कमीज़ सफ़ेद नहीं.......!!)
आवेश भाई.....!!!......नेट पर हम सब अपने-अपने काम के बीच या सारा काम-धाम निबटा कर आते हैं.......काम के बीच हो या काम के बाद........दिल को मनोरंजन ही चाहिए होता है....और ब्लॉग्गिंग के नाम पर हम मनोरंजन ही कर रहे हैं........बल्कि साफ़-साफ़ कहूँ तो मनोरंजन ही कर रहे हैं.......ब्लॉग्गिंग तो इसके बीच कहीं-ना-कहीं हो जा रही है....मुई इतना के बाद भी ना होगी......तो भला कब होगी.......!!........इतना कहने के बाद मैं यह कह कर अपनी समाप्त करना चाहता हूँ....कि मेरी इस बात से कोई सहमत ना भी हो तो मुझे कतई माफ़ ना करे...क्योंकि यह तो खुला विद्रोह है भई....ऐसे बन्दे को तो ब्लॉग्गिंग की राह से सदा के लिए हटा ही देना ही चाहिए....!!.....और ऐसी बातों की चुनौतियों को मैं भूतनाथ अपने पूरे होशोहवास के साथ स्वीकार करता हूँ....!!.....आवेश तुमने शुरुआत कर दी है....तो इसकी इन्तेहाँ अब मैं करूंगा....बेशक मुझे यहाँ से हट ही क्यों ना जाना पड़े....!!

सविता भाभी डॉट काम पर रोक लगी सच का सामना को हरी झंडी

भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं हमें दुनिया में हमारी सांस्कृति के कारन पूजा जाता हे हमें विश्व सांस्कृति गुरु का सम्मान दिया गया हे इसी परम्परा को कायम रखने मैं भारत सरकार जी जान से जुटी हुई हे हमें बार बार याद दिलाया जाता हे की हम एक अनुसषित रास्ट्र हे |
रास्ट्र की गरिमा बचने के उदस्य से सविता भाभी डॉट कम पर बेन लगा दिया गया सारकारी महकमों से आवाज आई की अशलीलता को बर्दास्त नहीं किया जायगा |
बेचारी सविता भाभी (विदेश में बेठा साईट ओव्नेर) इन दिनों बड़ी परेशान हे और मन बना रही हे न्यायलय जाने का अब ये बात तो भविष्य के गर्भ में छुपी हे की भाभी का क्या होगा |
पर सारकारी मशीनों मे सायद जंग सा लग गया हे तभी तो अपने विवादित फॉर्मेट के कारन विवादों में घेरे में रहेने वाले टी वी शो सच का सामना पर अभी तक कोई आपति उठाने की जहमत नहीं उठाई कई बार संसद सामेT राज्य शभा में आवेजे उठती रही पर सिर्फ शोर बनकर थम गई |
एक वेबसाइट (सविता भाबी डोर कॉम ) पर सिर्फ इसलिए रोक लगी दी गई क्योकि अश्लील कार्टून केरेक्टर के माध्यम से अश्लीलता को परोसा जा रहा था लेकिन क्या वेबसाइट पर प्रकाशित अश्लीलता लोगो , किशोरों , तक आसानी से पहुच सकती हे जवाब हर एक व्यक्ति के पास हे नहीं अहुच सकती |
वेबसाइट पर बेन लगाने के फेसले का हम सम्मान करते हे पर उस टीवी शो पर बी रोक लगनी चाहिए हम ये भी उमीद करते हे सिर्फ लिख भर देने से की इस कार्यक्रम में दिखये जाने वल्ले प्रश्न प्क्रिपक्वा हो सकता हे से किशोर इसे देखना बंद नहीं कर देंगा इससे क्रोसिटी बदिती हे |
सरकार का दो मुखी raviya समहज से परे हे

JEET

क्यों नहीं आ पा रहा हिन्दी में स्त्री वादी लेखन

हिन्दी में स्त्रीवादी विमर्श संभव नहीं लगता. इसके कारणों को आलोचकों में ढूढने के बजाय समाज में ढूंढने चाहिए. हिन्दी समाज बना ही इस रूप में है कि इसमें स्त्री का पक्ष ठीक से आता ही नहीं. जिस हालत में हिन्दी समाज है और जिस तरह से इसका विकास हो रहा है स्त्री वादी दृष्टि का विकास दो चीजों पर निर्भर करता है. या तो कोई ऐसा स्कूल बने जो इस विषय को हिन्दी समाज के हिसाब से उठाए. यह स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिया न हो नहीं तो इसका प्रभाव नहीं पडेगा. लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे. यह काम धीरज से किया जा सकता है. अभी हाल में अनामिका की एक किताब देखी थी. मुझे लगता है अगर इस तरह का लेखन ज्यादा मात्रा में होने लगे तो बात बन सकती है. मर्दवाद का विरोध करने की जल्दबाजी में कुछ लोग एक इस तरह के स्त्रीवाद को पोसने लगते हैं जो इस समाज के क्या किसी भी समाज के अनुकूल नहीं है. मर्दवाद कोई आसमान से टपकी हुई चीज नहीं है और न ही किसी षडयंत्र के तहद इसे प्रतिष्ठित किया गया है. मर्दवाद एक तरह की समस्या है जिससे परेशान पुरुष भी है. अपने समाज में जब से आधुनिक विचारों का आक्रमण /हस्तक्षेप हुआ तब से ही इस बात की ओर कम ध्यान दिया गया है कि भारतीय समाज को कुछ विजातीय से दीखने वाले तत्त्वों के साथ तालमेल बिठाना पडेगा. स्त्री पुरूष सम्बन्ध को लेकर जो एक तरह की बहस उन्नसवीं शताब्दी में चली थी उसका कोई बडा प्रभाव समाज पर, कम से कम हिन्दी समाज पर शायद नहीं पडा. गांधी के विचारों में एक परिपक्व भारतीय नारीवादी दृष्टि का विकास हुआ दीखता है लेकिन समाज ने उसे भी भुला दिया. जैनेन्द्र के साहित्य में एक भारतीय नारीवादी दृष्टि थी लेकिन हिन्दी समाज भी उसके लिए कोई सही कसौटी नहीं बना पाया. प्रेमचन्द से लेकर रेणु तक में स्त्री वादी (भारतीय) दृष्टि के विकास की संभावना थी. लेकिन समस्या यह है कि इसके बाद लेखिकाओं को उस दृष्टि का और विकास करना चाहिए था. महादेवी वर्मा को छोडकर बाकियों में उस गाम्भीर्य का अभाव दीखता है जो भारतीय समाज की गति-प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सामाजिक विचार को आगे बढने और बढाने के लिए आवश्यक है. कुल मिलाकर जो स्त्री की विविध छवियों का मिसाइली हमला बाजारवाद के कारण बहुत विकृत रूप में आया है. 1990 के बाद नारी के आक्रामक रूप ने भीतर ही भीतर भारतीय मर्द को दहला दिया है. यह एक ऐसे समय और स्थितियों के लिए भारतीय मर्द को तय्यार रहने के लिए कहता है जहां वह अपने पुराने सभी आदर्शों से अपने को अलग खडा पाएगा. एक भारतीय मर्द अभी भी उसी के साथ प्रेम करना चाहता है जिसके साथ वह बुढापा बिताने की सोचता है. लेकिन इस समय की नारी उसे आक्रांत करती है. विवाह, परिवार, जीवन साथी, मां की ममता, सात जन्म आदि के साथ इस नयी नारी को मिला नहीं पाता. ऐसे समय में वह बह रहा है, एक अनिर्णय की स्थिति को ढोते हुए.


हिन्दी के अधिकतर सिद्ध विचारक इस समय हाथ जलाने के जोखिम से बचते हुए बाकी का समय बिताना चाहते हैं. वे जिस बौद्धिक स्ट्रेटेजी से काम चलाते हैं उसे समझना कठिन नहीं है. वे नारी का आदर्शीकरण करते हुए पुरूषवाद का विरोध इस अमूर्तन के साथ करते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

होना यह चाहिए कि बडी संख्या में लेखिकाओं को बहस के केन्द्र में लाया जाए और उन्हें धैर्य से सुना जाए. ज्यादा से ज्यादा युवा लेखक लेखिकाओं को बहस के केन्द्र में रखा जाए. लेकिन इसमें एक बडी मुश्किल है. जब दलित लेखकों की एक बड़ी संख्या हिन्दी में सक्रिय हुई वे बहुत हडबडी में दिखाई दिए. इस कमजोरी का फायदा उन लोगों को मिला जो समाज की नई चुनौतियों का मुकाबला नये समय के हिसाब से नहीं करना चाहते थे. धीरे धीरे ये नये दलित लेखक गुटबंदी के शिकार हो गये और दिग्भ्रमित हुए. आज दलित लेखन उतना संभावनाशील नहीं दिखलाई पड रहा जितना उसे होना चाहिए था. स्त्री लेखन को इससे बचना चाहिए. एक स्त्री कुछ अच्छा लिखती है तो हिन्दी के बहुत सारे दिग्गज उसे सहारा देने, उसके बारे में अतिश्योक्तिपूर्ण बातें कहने की प्रतियोगिता करने लगते हैं. मैं तो उस दिन दहल सा गया जब इस बीमारी का शिकार होते हुए एक बहुत् ही संभावनाशील युवा दलित आलोचक को देखा. उन्होंने एक लेखिका की पहली पुस्तक की प्रशंसा करते हुए उसे निर्मल वर्मा से भी श्रेष्ठ घोषित कर दिया! साहित्य का क्षेत्र कोई फिल्म जगत नहीं है जहां किसी को रातोंरात स्टार बनाया जा सकता है. इस क्षेत्र में धैर्य और निष्ठा के साथ लेखन का कार्य करने वालों को ही स्थायी मान मिल सकेगा. हम तो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि लेखिकाओं की ओर से नई दृष्टि का विकास हो सकेगा.