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30.8.09

मीडिया मालिकों का आतंकवाद

छोटा मुंह बड़ी बात : मीडिया मालिकों का आतंकवाद

* मोहम्मद मोईन

सहारा समय न्यूज़ चैनल से दर्जनों पत्रकारों को एक साथ हटाए जाने की घटना बेहद चौंकाने वाली रही... खुद सहारा के पत्रकारों के लिए और मीडिया से जुड़े दूसरे लोगों के लिए भी... सहारा के साथियों ने तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ कभी ऐसा सलूक भी हो सकता है... इन मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाए जाने का फैसला जितना अटपटा लगा, उससे ज्यादा हैरत उन्हें हटाये जाने की वजह और उसके तौर-तरीके पर हुई... अपने संस्थान के मीडियाकर्मियों को बलि का बकरा बनाने से पहले सहारा प्रबंधन ने उनसे बात करने और विश्वास में लेने की भी ज़रुरत नहीं समझी... बरसों के रिश्ते तोड़ने में पल भर भी नहीं लगाए... एक झटके में बोल दिया तलाक-तलाक-तलाक... इस्तीफे का ऐसा तालिबानी फरमान जारी किया, जिसमे न कसूर पूछने की छूट और न ही सफाई व माफी की गुंजाइश... अड़ियल रुख अपनाकर मीडियाकर्मियों को आतंकित करने का यह कदम बेहद शर्मनाक रहा... सहारा में हुए इस तमाशे ने कई नए सवाल खड़े किये हैं, जिन पर बहस अब वक्त की ज़रुरत बन चुकी है... ज़रूरी इसलिए भी, क्योंकि सहारा प्रबंधन ने मीडियाकर्मियों को जिस तरह रुसवा कर सरेआम उनके स्वाभिमान और विश्वास का चीरहरण किया, मीडिया की मंडी में वह एक ऐसी नजीर बन चुका है, जिसका खामियाजा लोग बरसों तक भुगतेंगे... आगे चलकर सहारा के इसी नक्शे-कदम पर दूसरे कई संस्थानों के कलमकारों व कैमरामैनो को उनके प्रबंधन द्बारा आतंकित किया जाना करीब तय हो चुका है... इशारा साफ़ है कि पूँजी का आतंक चौथे स्तम्भ को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर लोकतंत्र को दांव पर लगाने की तैयारी में है...

सहारा के प्रबंधन ने अपने लोगों को किस बात की सज़ा दी, यह किसी को नहीं पता, खुद उन्हें भी नहीं, जिन्हें बलि का बकरा बनाया गया... कल तक आँखों के तारे रहे लोग अचानक किरकिरी बन उन्ही आँखों में कैसे चुभने लगे, इसका खुलासा होना बाकी है... बेसहारा किये गए लोगों को सिर्फ यह पता चल सका कि मंदी के दौर में संस्थान पर कुछ आर्थिक संकट आ खडा हुआ है... अगर पल भर को इस पर यकीन भी कर लिया जाय, तो इसमें निकाले गए मीडिया कर्मियों का क्या कसूर... सहारा के चैनल तो अच्छे भले चल रहे थे, ठीक-ठाक टी।आर।पी। भी आ रही थी, यानी संस्थान के मीडियाकर्मी अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम दे रहे थे... इसके बावजूद अगर संस्थान पर आर्थिक संकट आया भी तो उसके लिए दोषी कौन, यह मीडियाकर्मी या फिर सहारा का प्रबंधन... मीडियाकर्मी तो पूंजी जुटाते नहीं, वह अपनी ख़बरों और स्टोरीज़ के ज़रिये चैनल को पैसे व संसाधन जुटाने का माध्यम देते हैं, टी।आर।पी। के ज़रिये एक प्लेटफार्म देते हैं... वैसे सहारा के पत्रकार तो अरसे से विज्ञापन जुटाकर अपने संस्थान को मजबूती भी देते रहे हैं, फिर वह दोषी कैसे हुए... कसूर तो सहारा के प्रबंधन का है, जो बाज़ार की नब्ज़ को समझ नहीं सका... मंदी से निपटने की कोई रणनीति नहीं बनाई... विज्ञापन बढाने के लिए मार्केटिंग विंग से सही काम नहीं ले सका... अपने ऐशो-आराम व उलूल-जुलूल खर्चों में कोई कटौती नहीं की... यानी करे कोई और भरे कोई... प्रबंधन खुद नाकारा साबित हुआ, लेकिन अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए मीडियाकर्मियों को बलि का बकरा बना डाला...

सहारा ग्रुप के चेयरमैन सुब्रत राय जी का मैं बचपन से फैन रहा हूँ... तमाम अखबारों में मैंने उनके दर्जनों इंटरव्यूज़ पढ़े हैं... टी।वी। चैनलों पर चहक- चहककर शून्य से शिखर तक पहुँचने की दास्ताँ खुद उन्ही के मुंह तमाम बार सुनी कि कैसे गोरखपुर की गलियों का एक अदना सा शख्स अपनी मेहनत,लगन व कुशल प्रबन्धन के ज़रिये देखते-देखते कामयाबी के उस एवरेस्ट पर काबिज़ हो गया, जिसके सपने देखना भी सबके बूते की बात नहीं... सुब्रत राय जी हर इन्टरव्यू में सीना फुलाकर अपनी गौरव गाथा को खुद महिमा मंडित किया करते थे.... खैर ! इसका उन्हें हक़ भी था... चंद सालों में एक आम आदमी से देश के बड़े पूंजीपतियों में शुमार होना कोई हंसी खेल नहीं... निश्चित तौर पर यह उनके कौशल व कुशल प्रबंधन का ही कमाल रहा होगा, जिसने उन्हें इतराने का मौका दिया... लेकिन, शून्य से शिखर तक का सफ़र अगर उनकी उपलब्धि है, उनके कुशल प्रबंधन व कौशल का कमाल है, तो फिर हवा के एक छोटे से झोंके की तरह आयी मंदी के सामने घुटने टेकना और टूटकर बिखर जाना क्या है?... यकीनन! कामयाबी की वह गाथा अगर इतराने लायक है, तो यह नाकामी ?, आखिर यह भी तो कुछ होगी ही, और इसकी जिम्मेदारी भी उसी को लेनी चाहिए जो अपनी उपलब्धियों पर इतराता रहा हो...


कामयाबी और नाकामी की इस बहस से बाहर निकलकर अगर यह मान भी लिया जाय, कि मंदी के दौर में चैनल पर आया कथित आर्थिक संकट सिर्फ हालात का ताकाज़ा और परिस्थितियों की देन था, लेकिन बाहर का रास्ता दिखाते समय मीडियाकर्मियों के साथ जो रवैया अपनाया गया, वह तो कतई जायज़ नहीं था... इस्तीफे के लिए मीडियाकर्मियों पर बेवजह दबाव बनाना, उन्हें डराना-धमकाना और तुगलकी फरमान जारी करते ही परदेश से आये कलम और कैमरे के सिपाहियों को मिनटों में गेस्ट हाउस से बाहर निकाल सड़क पर फेंक देना, आखिर क्या साबित करता है... यह सब आखिर क्यों... क्या इस तरह आतंकित किये बिना काम नहीं चलने वाला था या इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था... तमाम दूसरे संस्थानों से भी लोग हटाए जाते हैं, वहाँ भी छटनी होती है, लेकिन विदाई की बेला में उनसे इस तरह दुश्मनों से भी बदतर सलूक तो नहीं किया जाता... हाँ, संवेदनाएं ज़रूर जताई जाती हैं और झूठी ही सही, पर दिलासा दी जाती है और जिंदगी के सफ़र में फिर कभी साथ काम करने का आश्वासन भी...


इस घटना से तमाम सवाल उठ खड़े हुए हैं... जिनके जवाब तो आसान हैं, पर उन पर यकीन करना बेहद मुश्किल... दरअसल पिछले एक दशक में मीडिया, खासकर न्यूज़ चैनलों की चकाचौंध ने तमाम पूंजीपतियों को अपने ग्लैमर के जाल में जकडा... इस हरजाई ने बहुतों को अपना दीवाना बनाया, उन्हें सपने दिखाए... बिल्डर से लेकर चूरन बेचने वाले तक, हर किसी को इसमें अपना भविष्य नज़र आने लगा... यानी कलम और कैमरे की आड़, तमाम सही-गलत धंधों को बेरोक-टोक चलाने का हथियार बन गयी... सियासत के सर्कस में वाह-वाही लूटने का इससे आसान और कारगर तरीका दूसरा कोई नहीं रहा... नतीजतन हर महीने, हर हफ्ते नए मीडिया संस्थान खुलने लगे, लेकिन समाजसेवा के मिशन के दफ्तर के रूप में नहीं, बल्कि दुकान की तरह, जहां नज़र ध्येय पर नहीं, बल्कि धंधे पर अटकी रही... मानवीय मूल्य, नैतिकता, संवेदनाएं, सरोकार,परम्पराएं और कर्तव्यबोध जैसे शब्द इन दुकानों में बेमोल और अर्थहीन साबित हुए... ज़ाहिर है दुकान है तो वहाँ बातें सिर्फ नफे और नुकसान की ही होंगी, बाकी का कोई मतलब भी नहीं... बिल्डर और चूरन वालों ने भी यही किया, पत्रकारिता की दुकानें सजाईं, कलम और कैमरे को मोहरा बनाया और जुट गए अपने ख़ास मिशन में... किसी ने दूसरे धंधे चमकाए तो किसी ने राजनीति... पर अगर अपने अनाडीपन से अगर कहीं कोई नुकसान उठाया तो उसका ठीकरा मीडिया के सर फोड़ने में देरी भी नहीं लगाई... घाटा दूसरे धंधे में हुआ, तो मंदी का बहाना बताकर गाज मीडिया विंग पर गिरा दी... यानी पहले मीडिया की आड़ में चलने वाले धंधे अब उसी के बजट से चलाने की योजना तैयार हुई...


मंदी की मार से भारतीय मीडिया कितना प्रभावित हुआ है इसका अंदाजा न्यूज़ चैनलों और अखबारों के विज्ञापनों को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है... यानी भेडिए का पता नहीं और शहर भर में शोर... सौ फीसदी हकीकत है कि भारतीय मीडिया पर मंदी का कोई ख़ास असर नहीं हुआ... जो शोर मचाया गया वह बेमतलब था... जिस चैनल, स्टार न्यूज़ में मैं काम करता हूँ, वहाँ तो आज तक मंदी के नाम पर न तो खबरें कम की गईं और न ही पैसे, बल्कि मुझ पर तो ज्यादा से ज्यादा अच्छी स्टोरीज़ करने का दबाव अब भी पहले की तरह ही रहता है... मंदी ने हमारे संस्थान में आर्थिक संकट क्यों नहीं पैदा किया, शायद इसलिए कि यहाँ की पूंजी, चैनल के कर्ता-धर्ताओं के दम तोड़ते दूसरे धंधों में ट्रांसफर नहीं की गई...


सहारा में आई सुनामी भविष्य के खतरे का संकेत है... ख़तरा इस बात का भी है कि अगर चौथा स्तम्भ इसी तरह पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया तो देश के लोकतंत्र का क्या होगा... जिस दौर में कार्यपालिका और विधायिका से लोगों का भरोसा उठ चुका हो, न्यायपालिका खुद कटघरे में हो, ऐसे नाजुक दौर में चौथे स्तम्भ का कमज़ोर होना, लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं... चौथे स्तम्भ को कमज़ोर करने और इसके खेवनहारों को आतंकित कर लोकतंत्र के लिए ख़तरा पैदा करने वालों का जुर्म किसी आतंकवाद से कम नहीं... क्योंकि पत्रकार जिस दिन खुद को असुरक्षित और कमज़ोर महसूस करेगा, उस दिन से आम आदमी की आवाज़ दबने लगेगी और लोकतंत्र बेमानी हो जाएगा... सवाल सिर्फ सहारा का नही बल्कि पूंजी के उस आतंकवाद का है, जिसके हाथ में चौथे स्तम्भ का रिमोट चला गया है... अगर यही हाल रहा तो क्या आने वाले दिनों में मीडिया की भी वही दुर्दशा नहीं होगी जो आज राजनीति की हो चुकी है.... राजनीति कभी समाजसेवा का प्लेटफार्म होती थी लेकिन आज... आज तो नेता शब्द किसी गाली से कम नहीं चुभता है...
इस बारे में मंत्रालय और सरकार की चुप्पी भी बेहद खतरनाक है... सरकार न सिर्फ आँखों पर पट्टी बाँध धृतराष्ट्र की तरह चुपचाप चौथे स्तम्भ के चीरहरण का तमाशा देख रही है, बल्कि नित नए दुशासन भी पैदा कर रही है... कलम और कैमरे के सिपाही सरेआम रुसवा हों, चौथे स्तम्भ का चीरहरण हो, यह सब होता रहे अपनी बला से... सत्ता पर काबिज़ और उसकी दौड़ में लगे नेताओं के लिए तो यह सुकून की बात है... आखिर पेट और परिवार की खातिर नौकरी बचाने के लिए पत्रकार जब नेताओं व प्रभावशाली लोगों की परिक्रमा करने को मजबूर होगा, उनके रहमो-करम पर निर्भर होगा, तो उनकी कारगुजारियों की खबर क्या ख़ाक बनाएगा... उसकी हालत तो महाभारत की उस गांधारी जैसे होगी, जिसे सही-गलत की पहचान होती है, अच्छे-बुरे का एहसास होता है, अनर्थ होता देख मन तड़पता है, दिल रोता है, लेकिन सब कुछ जानने अरु समझने के बावजूद उसकी अनदेखी करने और उसे बर्दाश्त करने की विवशता होती है... चुपचाप तमाशा देखना उसकी नियति बन जाती है.... ऐसे में कथित मीडिया मालिकों के पूंजी के आतंकवाद के खिलाफ सरकार से कोई उम्मीद बेमानी है, इस बारे में कोई पहल तो खुद मीडिया से जुड़े वरिष्ठ लोगों को ही करनी होगी, और ऐसा करना उनकी व हम सब की नैतिक ज़िम्मेदारी भी है, वरना इतिहास देश के लोकतांत्रिक ढाँचे के बिखरने या कमज़ोर होने का दोष हम सब पर मढ़ने में देर नहीं लगाएगा....


NOTE : यदि आप इस लेख पर कोई कमेंट्स देना चाहते हों तो इस ब्लॉग पर लिखने के साथ ही मेरे ईमेल
moinallahabad@gmail.com पर भी भेज सकते हैं...

10 comments:

Anonymous said...

आपकी आवाज पुजीपतियों तक पहुचे बस यही दुआ हे रब से
मीडिया कर्मी आज अकेला खडा हे अपने अधिकारों की लडाई में
शायद आपकी पहल सुरुआत बने इस विकट बुराई में
आपका बहुत २ आभार.इस मुद्दे को उठाने के लिए,
में तो आपका फेन हो गया

jeet mail me jtsngh707@gmail.com said...

uprokta comment mera he
jitendra singh

Anonymous said...

moin bhai aapki baat sau feesadi sahi hai. sahara me employee ko "KARTAVYA YOGI" ka ek jhutha tamga diya jata hai jisko taang kar wo ghumta hai jab tak ki company ko uski jaroorat rahi tab tak to wo karrtavyayogi karyakarta raha, uske baad us sadasya ko tathakathit parivaar se bina kisi kaaran ke aur bina kaaran bataye baahar ka raasta dikhaya jaata hai. kya parivaar ka yahi matlab hota hai. shayad punjipatiyo ke yahan aisa hota hoga mere aur tamam aur aap ke yahan aisa nahi ho sakta kyoki hum aur aap parivaar ke har sadasya ko unche uthta dekhna chaahenge na ki unke upar se chadhkar apna kad badhana chahenge? kaya sahara parivaar sirf dikhava hai?
kya sahara parivar "PARIVAR" SHABD KE NAYE MATLAB KHOJ RAHA HAI?

Anonymous said...

moin bhai aapki baat sau feesadi sahi hai. sahara me employee ko "KARTAVYA YOGI" ka ek jhutha tamga diya jata hai jisko taang kar wo ghumta hai jab tak ki company ko uski jaroorat rahi tab tak to wo karrtavyayogi karyakarta raha, uske baad us sadasya ko tathakathit parivaar se bina kisi kaaran ke aur bina kaaran bataye baahar ka raasta dikhaya jaata hai. kya parivaar ka yahi matlab hota hai. shayad punjipatiyo ke yahan aisa hota hoga mere aur tamam aur aap ke yahan aisa nahi ho sakta kyoki hum aur aap parivaar ke har sadasya ko unche uthta dekhna chaahenge na ki unke upar se chadhkar apna kad badhana chahenge? kaya sahara parivaar sirf dikhava hai?
kya sahara parivar "PARIVAR" SHABD KE NAYE MATLAB KHOJ RAHA HAI?

Unknown said...

aapki awaj pujipatiyon k sath-sath sahara k prabandhan k kano tk pahuchen...yahi dua hai...thanks sabki awaj apni kalam se uthane k liye...

divya bhatnagar said...

मोईन सर,
आपका लेख पढ़ा. दिल को छू गया. वास्तव में मीडिया की हालत दिन ब दिन बद से बदतर होती जा रही है. आपने जो चिंता जताई है वह जायज़ है. अगर मीडिया पर वाकई पूंजीपतियों का कब्ज़ा होता गया तो चौथे स्तम्भ की अहमियत ही ख़त्म हो जाएगी, जिसका हमारे लोकतंत्र पर काफी बुरा असर पड़ेगा.
आपने जिस प्रकार सहारा की घटना को आधार बनाकर भविष्य के खतरे के बारे में आगाह किया है, उस पर चिंतन बेहद ज़रूरी हो गया है, वरना शायद हम लोग चिंता करने लायक भी नहीं रह पाएंगे. इस बारे में आप सीनियर लोग जी भी कदम उठाएंगे मैं उसमे आपके साथ रहूँगी. आपसे अनुरोध है आपने जो मुहिम छेड़ी है, उसे बीच में मत छोडियेगा. आप शुरुआत करें, तमाम लोगों का कारवां खुद ब खुद तैयार हो जाएगा.
मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं. एक बार पुनः आपको बधाई.
दिव्या भटनागर
इलाहाबाद

Kanchan from Mumbai said...

Excellent. Aapne hakeekat byaan ki hai. Lekin Apko is baat ki de rahi hoon ki aapne is sach ko saamne laane aur likhne ki himmat ki, wah bhi apne naam se. aap ek achche lekhak ke saath hee saahsi wa nirbheek insaan bhi hai. Moin ji apko punah badhai.

Anonymous said...

Moin bhai aapne bahut sacchai se aiij ki parshitiyon ko likha hai per tathakathit bade yaa senior media karmiyon se koi madad ki ummid mat lagayiye kyonki sabhkuch inki sahmati se hi ho raha hai..... Jang jaari rakhiye sabhi mediakarmi aapke saath hai....

rachna said...

भाई आपको बढ़ाई. सिर्फ लिखने व हकीकत बयां करने के लिए ही नहीं, बल्कि इस बात के लिए आपने यह सब कहने की हिम्मत जुटा ली, वरना आज तो लोग सिर्फ ऐसे मालिकों की चाटुकारिता ही करते हैं. आपकी बात जायज़ है, लेकिन इन हालातों में किया भी क्या जा सकता है. मेरी राय है आप इस तरह सीधे न लिखें वरना कैरियर प्रभावित हो सकता है क्योंकि हमें और आपको काम तो इन्ही के बीच करना है. फिर भी आपका प्रयास सराहनीय है.

Anonymous said...

MOIN YOU ARE ABSOLUTELY RIGHT...SAHARA KE PAAS IPL KE LIYE HAZARON KAROD HAIN PAR STAFF KI SALARY NAHI DE SAKTE. SAHARA IS THE BIGGEST DESERT & SAHARA IS A HARA PARIWAR. ALL THAT IS WRITTEN IN DIARY IS BULLSHIT TO CON COMMON PEOPLE.I THOUGHT THEY ARE NATIONALISTIC BUT I HAVE BEEN CONNED AFTER 15 Yrs OF SERVICE & NOW THEY FEEL THEY CAN JUST BUMP ME OFF WITHOUT GRATUITY...THEY HAVE GOT ADVISORS WHO HAVE NO IDEA ABOUT HR POLICIES. THEY ARE COMING UP WITH IPO WITHOUT CLEARING STAFF DUES.CHARITY BEGINS AT HOME.PEHLE GHARWALON KA BHALA KARO PHIR DESH KA SOCHO. CRICKET ME PAISA BARBAD KARNE KI BAJAY ASLI LOGON KI MADAD KARO...JINKA HAQ CHHEENA HAI.