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30.8.09

अर्थात: अब नज़र खुदरा बाज़ार पर

अर्थात: अब नज़र खुदरा बाज़ार पर

खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मामला एक बार फिर से सुर्खियों में है। जहाँ एक तरफ अप्रत्याशित रूप से जीत कर आई कांग्रेस सरकार ने आरंभ से ही इस क्षेत्र में 26 से 49 फ़ीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के पर्याप्त संकेत दिये हैं , वहीं इस विषय पर गठित एक संसदीय समिति ने किराने के सामान, फल और सब्ज़ियों के खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी ही नहीं अपितु बडे़ देशी कारपोरेट पूंजीपतियों के प्रवेश को पूरी तरह प्रतिबंधित किये जाने की अनुशंसा की है। यही नहीं, मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में गठित इस 31 सदस्यीय समिति ने एक कदम आगे बढ़कर देश में पूंजीपतियों द्वारा खोले जा रहे दीर्घाकार ‘माॅलों’ में उपभोक्ता वस्तुएं बेचे जाने पर भी अंकुश लगाये जाने की भी ज़ोरदार वक़ालत की है। पिछले दरवाज़े से फ्रेंचाइजी के सहारे खुदरा बाज़ार में प्रवेश पर निगरानी रखने के लिए ‘कैश एण्ड कैरी’ लाइसेंसों पर भी नज़र रखने की बात की गयी है, हालांकि इन बंद दरवाज़ों के बीच एक खिड़की खुली रखी गयी है- कमेटी का प्रस्ताव है कि ‘ खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लागू करने से पहले सरकार को अपने क़ानूनी तथा नियामक ढांचे को दुरुस्त कर लेना चाहिये’। जानने वाले इन खिड़कियों की हक़ीक़त ख़ूब जानते हैं! आईये सबसे पहले देखते हैं कि मामला क्या है।
नब्बे के दशक में नई आर्थिक नीतियों के बेहद आरम्भिक दौर में ही जब विदेशी पूंजी निवेश के लिए रास्ते खोले गये तो कृषि के बाद देश के इस दूसरे सबसे बड़े असंगठित क्षेत्र पर भी देशी- विदेशी पूंजीपतियों की गिद्धदृष्टि पड़ गई थी। फलस्वरूप 1993 में ही तत्कालीन विŸामंत्री मनमोहन सिंह ने इस क्षेत्र में क़ानूनों में आवश्यक फेरबदल किये थे। इसी दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘डेरी फार्म ’ ने सबसे पहले भारतीय बाज़ार में प्रवेश किया लेकिन नरसिम्हाराव की सरकार के पतन के बाद सŸाा में आई संयुक्त मोर्चा सरकार के दौर में वामपंथी दलों के दबाव में तत्कालीन विŸामंत्री पी। चिदंबरम को 1996 में क़ानूनों में फिर से फेरबदल कर खुदरा बाज़ार क्षेत्र में विदेशी निवेश पर रोक लगानी पड़ी। नवउदारवाद की प्रचंड समर्थक भारतीय जनता पार्टी आरंभ से ही इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर उतनी मुखर नहीं रही है। छोटे दुकानदारों के अपने पुराने वोट बैंक को देखते हुए पार्टी का यह स्टैंड कोई भी समझ सकता है। लेकिन यह समझ लेना नादानी होगी कि दक्षिणपंथ और वामपंथ का यह विरोध यकसां है। अपने शासनकाल में अनेकों बार एनडीए के मंत्रियों ने इसे लागू करने के संकेत दिये। इस मामले पर भाजपा का पूरा दृष्टिकोण विŸामंत्री के पूर्व सलाहकार रहे और संघ के भीतर स्वदेशी लाबी के आलोचक रहे मोहन गुरुस्वामी के इस संदर्भ में लिखित एक शोधपत्र ‘ एफ डी आई इन इण्डियाज़ रिटेल सेक्टर: मोर बैड दैन गुड’ (देखें सेंटर फार पालिसी आल्टरनेटिव की वेबसाईट) की अनुशंसाओं से स्पष्ट हो जाता है। यहां वह खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के तमाम कुप्रभावों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘ भारतीय खुदरा क्षेत्र की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाना चाहिए ताकि यह ऐसी नीतियां बना सके जो उन्हें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से निपटने में सक्षम बना सके - जब कभी वे आयेंगे... (.यानि आना तो तय हैं!) ’ साथ ही वह चाहते हैं कि ‘विदेशी कंपनियों की प्रवेश प्रक्रिया धीमी होनी चाहिए और सामाजिक सुरक्षात्मक उपायों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। शुरूआती दौर में उन्हें केवल मेट्रो शहरों में सुपरमार्केट खोले जाने की इजाज़त दी जानी चाहिए।’ संघ की दूसरी लाईन के प्रवक्ता और स्वदेशी जागरण मंच के नेता गुरूमूर्ति , जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तीव्र विरोध के लिए जाने जाते हैं ने 26 जनवरी 1998 में ए. एस. पनीरसेल्वन को दिये गये एक साक्षात्कार में ‘ भाजपा की आर्थिक प्राथमिकतायें गिनाते हुए विदेशी निवेश के बारे में कहा कि -‘उपभोक्ता क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं होना चाहिये। बहरहाल इसके लिए अपने आर्थिक हितों के प्रति पूर्वाग्रहित हुए बिना रास्ते निकाले जा सकते हैं। 1970 के राष्ट्रीयकरण के दौर में जिस तरह यूनिलीवर को आने की अनुमति दी गयी वही माडल अपनाया जाना चाहिये। उनका दुख है कि हममें मोलभाव करने की दक्षता की कमी है।’ साफ़ है कि ये सारी खिड़कियां विरोध के पूरे ‘आख्यान’ का प्रतिआख्यान रचती हैं और यही उस सच का असली सच है। यही नहीं यह जो विरोध है वह भी केवल विदेशी पूंजी का है। देशी पूंजीपतियों के इस बाज़ार पर कब्ज़े को लेकर कहीं कोई संशय नही है मानो इस क्षेत्र पर उनके कब्ज़े से खुदरा बाज़ार में लगे पांच करोड़ से अधिक लोगों के रोज़गार और शहरों के पारिस्थितिक संतुलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
दरअसल स्वदेशी जागरण मंच का यह पूरा ‘विरोध’ इसी मोलभाव को बढ़ाने और इसके हितों को भारतीय पूंजीपतियों के हितों में मोड़ने का आयोजन है जिसमें आमजन के लिए कोई जगह नहीं इसीलिए तो बंेगलूर में ज़र्मन रिटेलर मेट्रो एजी के आने पर उसके विरोध में लिखे हुए लेख (जो उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध है) में बड़ा हिस्सा बजाज और दूसरे देशी पूंजीपतियों के प्रति उनकी वफ़ादारी और उनके हितों के लिए गुरूमूर्ति द्वारा निभाई गई बिचैलिये की भूमिका के महिमामण्डन को समर्पित है।
खैर, इन सबके बीच भारतीय मध्यवर्ग का बड़ा आकार रिटेल चेन चलाने वाले वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्का जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों को हमेशा से आकर्षित करता रहा और भारतीय सरकार पर भीतर और बाहर दोनों तरफ से दबाव बनाये जाते रहे। यह दबाव विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र के दौरान अपने चरम पर पहुंच गया जब भारत को सीधे-सीधे धमकी दी गयी कि यदि खुदरा क्षेत्र में पूंजी निवेश पर रोक नहीं लगायी गई तो उसे गैट के तहत दी जा रही मदद रोक दी जायेगी और उसके खि़लाफ़ प्रतिबंधात्मक कार्यवाही भी की जायेगी। यह दबाव कारगर साबित हुआ और दसवीं पंचवर्षीय योजना की मध्यावधि समीक्षा में सरकार ने इस क्षेत्र को आंशिक रूप से खोलने की घोषणा की। वामपंथियों तथा कुछ अन्य समर्थक दलों की आपŸिायों को नज़रअंदाज करते हुए सरकार ने 10 फरवरी 2006 को ज़ारी प्रेस नोट के द्वारा कुछ शर्तों के साथ ‘एकल’ ब्राण्ड के उत्पादकों को 51 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दे दी। इसके बाद थोक व्यापार तथा गोदामों में भंडारण के क्षेत्र में भी शतप्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दे दी गई। इससे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिये पिछले दरवाज़े खुल गये। इस सीमित, परंतु महत्वपूर्ण सफलता से उत्साहित वालमार्ट ने सुनील मिŸाल की भारती इंटरप्राईजेज के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत वालमार्ट बैकएण्ड( यानि वस्तुओं की आपूर्ति) संभालेगा और भारती फ्रंटएण्ड (यानि वितरण की व्यवस्था)। लेकिन यह सीमित छूट लूट की उनकी महात्वाकांक्षा को पूरा नहीं कर सकती तो और छूट के लिये दबाव बनाने की प्रक्रिया ज़ारी है। विदेशी कंपनियों की इस सक्रियता के बरअक्स भारतीय उद्योग घरानों ने भी इस क्षेत्र में पूरी तैयारी के साथ प्रवेश किया। गोयनका के आरपीजी ग्रुप, किशोर बियानी के यूचर ग्रुप, वाडिया ग्रुप, रहेजा ग्रुप और आदित्य बिड़ला ग्रुप के अलावा इस क्षेत्र में सबसे बड़ा नाम है मुकेश अंबानी के रिलायंस का जिसने देश में 25 हज़ार करोड़ से ज़्यादा का निवेश कर डेढ़ हज़ार शहरों में एक हज़ार हाईपर मार्केट, तीन हज़ार सुपर मार्केट और पांच सौ से अधिक स्पेशियालिटी स्टोर खोलने की योजना को मूर्त रूप देना शुरू कर दिया है। रिलायंस की विशिष्टता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि दूसरों की तुलना में काफ़ी पहले ही उसने इस क्षेत्र के सबसे लाभकारी क्षेत्र खाद्यान्न, फल और सब्ज़ी व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश के लिए पूर्ति की पूरी तैयारी कर ली थी। वायदा बाज़ार के जरिए इसने देश भर से भारी मात्रा में इन उत्पादों की ख़रीदारी की है। इनकी कार्यपद्धति वालमार्ट की ही तरह सीधे-सीधे पूर्ति और वितरण दोनो क्षेत्रों पर पूर्ण नियंत्रण कर लेने की है। पिछली सरकार के दौरान कृषि उत्पाद विपणन समिति क़ानूनो (एपीएमसी) में हुए सुधारों तथा ठेके पर कृषि व्यवस्था के पर्याप्त प्रोत्साहन ने इनका काम और आसान कर दिया है। फलस्वरूप प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बिना भी भारतीय खुदरा बाज़ार में संस्थागत क्षेत्र की भागीदारी तेज़ी से बढ़ रही है। 1999 में कारपोरेट जगत की इस क्षेत्र में कुल भागीदारी थी पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये जो 2005 में बढ़कर पैंतीस हज़ार करोड़ हो गई और अब भी यह 40 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार संगठित क्षेत्र 2003 के दो प्रतिशत से बढ़कर 2008 तक पांच प्रतिशत खुदरा व्यापार पर कब्ज़ा जमा चुका है। इस वृद्धि का सीधा अर्थ है 42 मिलियन छोटे दुकानदारों का लगातार खेल से बाहर होता जाना। इस तथ्य की तस्दीक तो अपनी हालिया किताब ‘’द वल्र्ड इज़ लैट’ में थामस एल फ्रीडमैन भी करते हैं। देश में कुल रोज़गार का सात फ़ीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने वाले इस क्षेत्र की तबाही का असर पहले ही रोज़गारविहीन विकास और मंदी की मार से जूझ रहे इस देश पर क्या होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इसके अन्य कुप्रभावों पर पहले भी विस्तार से लिखा जा चुका है जिसके चलते न सिर्फ भविष्य में एकाधिकार जमाकर ये कंपनियां मनमानी लूट मचायेंगी बल्कि पहले से बदहाल आम आदमी के लिए रोटी दाल को और अधिक मुश्किल बना देंगी।
इस पूरी अवधारणा तथा निगमों की कार्यपद्धति को समझने के लिए रिलायंस के अनुभव को देखा जा सकता है। रिलायंस के काम करने का तरीका बिल्कुल साफ है - वह उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की पूरी कड़ी (आढ़तिये, कमीशन एजेण्ट,थोक व्यापारियों और खुदरा व्यापारी) पर कब्ज़ा जमा लेना चाहता है। इस प्रक्रिया में दावा किया जाता है कि ‘कुटिल दलालों’ से यह मुक्ति एक तरफ़ किसानों को सही दाम दिलायेगी तो दूसरी तरफ़ उपभोक्ता को भी उचित क़ीमत पर सामान उपलब्ध करायेगी। लेकिन हक़ीक़त इसके उलट है- रिलायंस ने अब तक जो भी अनाज़, फल और सब्ज़ियां खरीदे हैं वे किसानों से न ख़रीद कर मण्डियों से ही ख़रीदे हैं, वह भी दलालों के माध्यम से। ऐसे में उसने सिर्फ़ थोक और खुदरा व्यापारियों की भूमिका ही समाप्त की है जिससे किसानों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। उपभोक्ता के लिए जो क़ीमत है वह थोक और खुदरा क़ीमतों के बीच की ही है और अगर कहीं इससे कम है तो वह कृत्रिम रूप से रखी गयी है जिसका उद्देश्य छोटे व्यापारियों की प्रतिस्पद्र्धा को पूरी तरह नष्ट करना है जिससे भविष्य में बाज़ार पर पूरी तरह कब्ज़ा जमाकर मनमानी लूट की जा सके। थोक और खुदरा क़ीमतों के बीच का यह मामूली अंतर भी बड़े स्टोरों के रखरखाव के भारी ख़र्च के कारण लंबे समय तक बनाये रख पाना संभव नहीं होगा। दूसरे अगर यह मान भी लिया जाये कि भविष्य में रिलायंस किसानों से सीधे अनाज़ ख़रीद सकेगा तो भी किसानों की स्थिति कतई बेहतर होने की उम्मीद नहीं है। अपनी विशाल मोलभाव क्षमता और बाज़ार पर एकाधिकार के चलते रिलायंस (या कुछ अन्य कंपनियांे के साथ बना उसका कार्टेल) किसानों से मनचाही कीमतों पर अनाज़ खरीदने में आढ़तियों से ज्यादा कारगर होगा और मुनाफ़े की अंधी भूख के कारण यही अनाज़ ऊंची क़ीमतों पर वातानूकूलित दुकानों में बिकेगा। दूसरे तरीके ठेके की खेती के बारे में तो अब हम सब जानते हैं। इस बारे में वालमार्ट के बारे में अमेरिका में किये गये एक सर्वे की रिपोर्ट हमारे लिए आंख खोलने वाली हो सकती है जिसमें कहा गया कि ‘अमरिका के जिन क्षेत्रों में वालमार्ट स्टोर खोले गये वहां के किसान तुलनात्मक रूप से अधिक ग़रीब हो गये।’
लेकिन यह भी तस्वीर का एक पहलू ही है। यदि इस प्रक्रिया के व्यापक सामाजार्थिक प्रभावों की विवेचना करें तो कई दूसरे भयावह तथ्य सामने आते हैं। सामान्यतः ये स्टोर नगरीय क्षेत्रों के उच्च तथा उच्चमध्यवर्गीय रिहाइशी इलाकों में ही खोले जा रहे हैं। छोटी दुकानों के उलट यहां एक साथ बड़ी मात्रा में ख़रीदारी को प्रोत्साहन दिया जाता है। स्पष्ट है कि निम्नमध्यवर्गीय तथा ग़रीब उपभोक्ता अब भी छोटी दुकानों से ही सामान ख़रीदेगा। इन कंपनियों द्वारा भारी मात्रा में बेहतर गुणवŸाा के सामान ख़रीद लिये जाने का अर्थ होगा बाज़ार में ऐसे सामानों की कमी और कम गुणवŸाा वाले सामानों की मांग तथा क़ीमतों में बढ़ोŸारी। अतः जहां उच्च तथा उच्चमध्यवर्गीय वर्ग बेहतर गुणवŸाा के सामान, कम से कम आरंभिक दौर में, सस्ती कीमतों पर खरीद सकेगा वहीं निम्नमध्यवर्गीय तथा ग़रीब उपभोक्ता घटिया उत्पाद बढ़ी क़ीमतों पर ख़रीदने पर बाध्य होगा जिससे पहले से व्याप्त आर्थिक विषमता के आधारों में और वृद्धि होगी। जालंधर में रिलायंस ने यही किया है। यहां वह पहले भारी मात्रा में आढ़तियों से फल और सब्ज़ियां ख़रीदता है फिर उनमें से अच्छे-अच्छों को छांट कर बाकी को उसी दाम पर पुनः आढ़तियों को बेच दिया जाता है जिसे छोटे व्यापारी ऊंची कीमतों पर ख़रीदने के लिये बाध्य होते हैं (देखें फ्रंटलाईन, 13 जुलाई,2007)
मुनाफ़े की यह अपार संभावना ही निगमों के इस आकर्षण का कारण हैं। 27 जून 2008 को प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 तक भारत में खुदरा क्षेत्र मे संगठित व्यापार का परिमाण 50 बिलियन अमेरिकी डाॅलर के बराबर हो जायेगा। 2007 से 2015 के बीच मॅालों की संख्या में वृद्धि की दर 18।9 प्रतिशत रहेगी और ग्रामीण बाज़ारों का परिमाण बढ़कर कुल बाज़ार का आधा हो जायेगा। रिपोर्ट के अनुसार इस वृद्धि में सबसे बड़ा हिस्सा होगा खाद्य पदार्थो और किराना संबधित वस्तुओं का। इसी आधार पर भारत को रिटेल व्यापारियों केे लिये सबसे आकर्षक गंतव्य के रूप में चिन्हित किया गया है। और भारत को जारी यह इकलौता सर्टिफिकेट नहीं है- हाल ही में अमेरिका स्थित वैश्विक प्रबंध सलाहकार फर्म एटी कैयर्नी द्वारा ज़ारी एक रिपोर्ट में यही सब दोहराया गया हैं। इसके अनुसार विश्व की 30 उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में रिटेल क्षेत्र में निवेश के लिए भारत सबसे आर्कषक स्थान है। कैयर्नी द्वारा निर्मित भूमण्डलीय रिटेल विकास सूचकांक में भारत को रूस, चीन, यूएई और सऊदी अरब से ऊपर रखा गया है। पिछले वर्ष जारी कैयर्नी के रिर्पोट में भारत का स्थान दूसरा था। प्रतिवर्ष जारी होने वाली इस रिपोर्ट के पिछले पांच में से चार बार भारत को पहले स्थान पर रखा गया है। इस रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जारी की गयी है कि जल्दी ही इस क्षेत्र की बची-खुची बाधायें दूर कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की राह आसान कर दी जायेगी जिससे दुनिया के बड़े रिटेल चेन चलाने वाले निगमों को यहां प्रवेश का मौका मिलेगा।
सरकार भी इन निगमों को उपकृत करने के लिये बेहद उत्सुक है। वैसे भी कांग्रेस के मन में 1993 से ही इसे लेकर कोई विशेष दुविधा नहीं रही है। यूपीए के पिछले कार्यकाल में भी इसके लिए काफी प्रयास किये गये लेकिन वामदलों के कड़े रूख के कारण यह संभव नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री की उत्सुकता 29/06/2005 को नये मंत्रियों के शपथग्रहण समारोह के बाद पत्रकारों के सवालों के जवाब में झलकती है जब उन्होंने कहा था कि ‘हम अपने वामपंथी साथियों को खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए मना लेंगे...मुझे उनकी राष्ट्रभक्ति पर पूरा विश्वास है’ और अब जबकि वामपंथियों का दबाव भी नहीं है तो मनमोहन सिंह अपनी ‘राष्ट्रभक्ति’ का अचूक प्रदर्शन कर सकते हैं। पिछली फरवरी में ही इसमें कुछ परिवर्तन किये गये और अब गत दो जून को दिये गये एक बयान में वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने सरकार की प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर दिया। इस बात की पूरी उम्मीद की जा रही है कि आगामी बजट में खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 26 से 49 फ़ीसदी छूट दे दी जायेगी और बहुराष्ट्रीय निगम पूरे धज के साथ मुख्यद्वार से प्रवेश कर सकेंगे।
ऐसे में यह मुश्किल ही लगता है कि यह रिपोर्ट सरकार के निश्चय पर कोई प्रभाव डाल पायेगी। संसद में अपनी बेहद कमज़ोर स्थिति और बंगाल से लेकर केरल तक अपने ही दल के भीतर मचे घमासान से परेशान सीपीएम के नेतृत्व में संसदीय वाम इस मसले पर रस्मी विरोध से आगे बढ़ पायेगा, ऐसा मानने का कोई आधार नज़र नहीं आता। रहा सवाल भाजपा का तो अमेरिका के सबसे विश्वस्त चाकर से ऐसी उम्मीद की ही नहीं जा सकती। संसद के बाहर और भीतर भले ही यह अपने परंपरागत वोटबैंक को बचाने के लिए संघर्ष की मुद्रा में नज़र आये लेकिन वह किसी बड़ी लड़ाई में तब्दील नहीं हो पायेगी। महिला आरक्षण के मुद्दे पर ज़हर खाने को तैयार समाजवादी ऐसे मौकों पर कुछ बेहतर खाना पसंद करते हैं तो बात-बात पर तोड़-फोड़ मचाने वाले संघ के ‘राष्ट्रभक्त‘ पतली गली से निकलना। ज़ाहिर है कि कांग्रेस की इस सरकार के दौर में नवउदारवाद के घोड़े को सरपट दौड़ना है। पर यह भी तय है कि देर-सबेर जनता का आक्रोश विभिन्न रूपों में दिखाई देगा ही। देखना यह है कि ख़ुद को जनपक्षधर कहने वाली ताक़तें उसे कितने सकारात्मक रूप में प्रयोग कर पाती हैं।(यह आलेख समयांतर के पिछले अंक में छपा था)

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