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23.1.11

आयुर्वेद बेताल के निशाने पर

विक्रमादित्य ने हट न छोड़ा। अपनी रात्रिचर्या के तहत वे सीमेंट-कांक्रीट के उस जंगल से गुजर रहे थे, जहाँ कभी बियाबान जंगल हुआ करता था। जिसके पहले सिरे पर शमशान, पहले की तरह ही अब भी मौजूद था। हमेशा की तरह बेताल सम्राट विक्रमादित्य के कंधे पर सवार हो गया और वह अनेक तथ्यों तथा पेचीदगियों से भरपूर कहानी सुनाने लगा। सुन विक्रम, आज तुझे आयुर्वेद के पराभव की कथा सुनाता हूँ। यूँ तो बात हजारों-लाखों वर्ष पुरानी है, जब आयुर्वेद की उत्पत्ति हुई थी। सोने की चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध भारत नामक एक विराट और बहुत-ही हरा-भरा देश था। जहाँ विविध आयामी भौगोलिक परिस्थितियाँ अपने सम्पूर्ण सौंदर्य के साथ विराजमान थी। निर्मल और शुभ्र हिमाच्छादित पर्वतमालाएँ, विराट हरे-भरे गहन वर्षावन, प्रदूषणरहित समुद्र, निर्मल और शुद्ध जलयुक्त दस हजार से ज्यादा नदियाँ, लाखों सरोवर, हरियाली से भरी अनेकों पर्वत श्रृंखलाएँ, सर्वाधिक वर्षा क्षेत्र, सबसे कम वर्षावाले स्थल, लम्बे-चौड़े सपाट मैदान, विशाल पेड़ों से सुसज्जित घाटियाँ, हजारों तरह के पशु-पक्षी, हजारों तरह की शुद्ध जैविक वनस्पतियाँ, सैकड़ों किस्म की साग-सब्जी, फल और अन्न सम्पदा का अनमोल भण्डार भी भारत में था। इसके अलावा लगभग दो हजार तरह के खनिज। तीन सम्यक मौसम और दो-दो माह की बरबस मन मोहनेवाली छः ऋतुएँ भी परमात्मा ने पुण्यभूमि भारत को दी थी।

स्वयं परमात्मा ने भारत में अनेक बार अवतार लेकर विविधानेक प्रकार की लीलाओं के माध्यम से तनावरहित, स्वस्थ और सुखद जीवन की शिक्षा को लोकव्यापी बनाने का पराक्रम किया था। उसी पावन भूमि में आयुर्वेद नामक एक जीवन पद्धति का उद्भव हुआ था। भारत के नागरिक आयुर्वेद के मार्ग पर चलते हुए सुखी, स्वस्थ तथा संतुष्ट थे। सभी की रोग प्रतिरोधक क्षमता पुष्ट थी, उनके शरीर बलिष्ठ थे। नैतिक मूल्यों और नैतिक वर्जनाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए वे अपना-अपना उद्यम प्रामाणिकता और परिश्रमपूर्वक करते थे। जो धनवान थे, वे दान-पुण्य के चलते तालाब, उपवन तथा धर्मषाला बनवाने में विश्वास करते थे तथा जो धनहीन थे, वे परिश्रम से जीविकोपार्जन कर रूखी-सूखी खाकर भी प्रसन्नतापूर्वक प्रभु के गुण गाते थे। आयुर्वेद और धार्मिकता के चलते भारत की अर्थव्यवस्था गौ एवं गौवंश आधारित थी। स्वयं पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण गायों को चराने वन में गौरवपूर्वक भ्रमण करते थे।

दरअसल आयुर्वेद मानव शरीर को एक जटिल यंत्र न मानते हुए ब्रह्माण्ड के परिप्रेक्ष्य में प्रकृति की एक जैविक ईकाई मानता है। आयुर्वेद मनुष्य की विभिन्न बीमारियों को प्रकृति के संदर्भ में मानव नामक जैविक ईकाई के आन्तरिक (शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, आध्यात्मिक आदि) असंतुलन का प्रकटीकरण मानता है।

ध्यान, योग, तपश्चर्या और गहन चिंतन-मनन, अनुसंधान-अन्वेषण की ठोस आधारशिला पर विराजमान दिव्यदृष्टा महर्षियों ने दीर्घकालिक शोधों के परिणामों के प्रकाश में मनुष्य जाति को एक सम्पूर्ण जीवन पद्धति उपहार स्वरूप दी। आयुर्वेद में सिर्फ रोगोपचार का ही उल्लेख नहीं है, बल्कि मनुष्य सम्पूर्ण रूप से अर्थात् शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से भी निरोग रह सके, ऐसे ज्ञान का भण्डार है, आयुर्वेद। चार वेदों में अथर्ववेद का उपांग आयुर्वेद है। अथर्ववेद में लिखा है ‘ब्रह्माजी ने लोकोपकार के लिए एक लाख श्लोकों वाले आयुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की।‘ आचार्य चरक, वागभट्ट, महर्षि सुश्रुत, दिवोदास धन्वंतरि जीवक वैद्य, माधवकर, अग्निवेश, शारंगधर, शवमिश्र, नागार्जुन, जैसे अनेक महर्षियों ने इस ज्ञान को लोकव्यापी बनाने में महती भूमिका निभाई।यह एक अद्भुत सत्य है कि समूचे विश्व में आधुनिक विद्वान वैज्ञानिकों द्वारा समयसाध्य अनुसंधान कर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये जा रहे हैं, वे प्रायः आयुर्वेद के सिद्धांतों तथा कथनों के अधिकाधिक स्पष्टीकरण और प्रमाण ही हैं।

आयुर्वेद मनीषियों ने प्रयोगों, निजी अनुभूतियों और तपश्चर्या के बल पर जीवनचर्या के एक-एक अंग, एक-एक क्रिया का निरोगी शरीर के लिए क्या महत्व है, इसका विस्तृत सांगोपांग वर्णन किया है। उदाहरणार्थ मनुष्य सुबह कब जागे, क्या विचार करता हुआ जागे, मल त्याग सुबह किस दिशा की ओर मुँह करके करें और शाम को किस दिशा की ओर। मल त्याग के स्थान की पूर्ण विवेचना भी की गई है। दातुन कब करें, किस वृक्ष की टहनी की दतुअन के क्या गुण हैं। दतुअन न हो, तो क्या करना चाहिए। किस व्यक्ति को दातुन नहीं करना चाहिए। जीभ किस तरह से साफ की जाए, कुल्ला किस तरह से किया जाए आदि का भी वर्णन है। यह भी बताया गया है कि आँखों को किस तरह जल से सींचना चाहिए। व्यायाम कब, कैसे और कितनी मात्रा में किया जाए। बाल, नख और दाढ़ी कब बनवाये जाएँ। ऋतुओं के मान से मालिष और मालिश के तेल का चयन किस तरह से करें। स्नान किस तरह करें, स्नान भूमि कैसी हो, किन स्थितियों में स्नान वर्जित है, स्नान के पष्चात गीले सिर में तेल न डालें। कौनसी ऋतु में रेशमी, काशाय और सूती वस्त्र धारण करना चाहिए। अनुलेपन किससे करें, उसका क्या लाभ है? फूल, रत्न तथा गहनें धारण करने से क्या लाभ हैं? प्राणायाम, सूर्योपासना तथा संध्योपासना क्यों हितकर हैं। खड़ाऊ क्यों धारण करना चाहिए। भोजन के आदि-मध्य और अन्त में कितना जल पीना चाहिए। भोजन के पशचात् क्या करें । खटिया कैसी हो। किस ऋतु में दिन में सोना लाभप्रद है और किसमें हानिकारक। दोपहर का समय किस तरह के लोगों के साथ व्यतीत करें। सायंकाल में किन कार्यों को करना चाहिए। सोते समय साथ में क्या-क्या वस्तुएँ रखें और उनके क्या-क्या लाभ हैं। बिस्तर कैसा हो, पत्नी से मैथुन कब करें और कब न करें। गर्भाधान की उम्र क्या हो। किस ऋतु में कितने दिन के अन्तराल से मैथुन किया जाए। गर्भाधान की दृष्टि से जिन दिनों मैथुन किया जाए, उन दिनों पति-पत्नी के मन में किस तरह के विचार हों, इनका भी स्पष्ट विवरण है। मैथुन के पूर्व एवं पश्चात क्या-क्या करें। प्रत्येक ऋतु में खान-पान, आहार-विहार की दृष्टि से दिनचर्या एवं रात्रिचर्या का भी आयुर्वेद के शास्त्रों में वर्णन दिया गया है।

इन सूक्ष्म निर्देशों से स्वतः पता चलता है कि आयुर्वेद के आचार्यों ने इस दिशा में निश्चित रूप से समयसाध्य अध्ययन और अनुसंधान किये होंगे। बिना प्रायोगिक परीक्षणों के सिर्फ अटकलों के आधार पर इतने सूक्ष्म निर्देष दिये जाना असंभव है। इन निर्देषों को इसलिए भी काल्पनिक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वर्तमान में पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा किये जा रहे अनुसंधानों से आयुर्वेद वर्णित अनेक निर्देषों की वैज्ञानिक पुष्टि हो चुकी है।

आहार के विषय में जो निर्देष दिये गये हैं, वे अद्भुत हैं। उन्हें पढ़कर लगता है कि ये निष्कर्ष सचमुच हजारों वर्षों के शोधों का परिणाम है। भोजन कब करें, कैसे करें, कहाँ करें, किसके साथ करें, भोजन के आसन पर बैठते समय मनोदशा क्या हो, रसोईघर कैसा हो, कहाँ हो, रसोईया कैसा हो, भोजन बनाने और भोजन ग्रहण करने के पात्र किस तरह की मिट्टी या धातु के बने हों, इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आहार की प्रकृति, दो खाद्य पदार्थों के संयोग, आहार की मात्रा, भोजन में पहले क्या ग्रहण करें। मिष्ठान्न, लवण, फल या पेय कब लें, कितनी मात्रा में लें, कौन-सा शाक या अन्न किस ऋतु में लाभदायक है, यह भी बताया गया है। आहार के विषय में दिये गये, ये निर्देष शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से एकदम सटीक एवं वैज्ञानिक हैं। आयुर्वेद के महर्षियों को यह ज्ञात था कि आहार तंत्र के विभिन्न अंगों के पाचक रसों की क्या प्रकृति है तथा पाचक रस किस तरह के पदार्थों के साथ किस तरह की क्रिया करते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व एक अन्तरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी के हवाले से अमेरिकी वैज्ञानिक प्रो. थॉमस जेफरसन का वैज्ञानिक निष्कर्ष तमाम अखबारों ने प्रकाशित किया था कि भोजन के पश्चात बांई करवट लेटना स्वास्थ्यकर होता है। आयुर्वेद की कृपा से इस तथ्य को गाँव का बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जानता है। चार दशक पहले पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष दिया था कि उत्तर की तरफ सिर रखकर सोने से हृदय संबंधी विकार, अनिद्रा तथा बैचेनी की संभावना बढ़ जाती है। आयुर्वेद में कहा गया है कि पूर्व, गुरु तथा दक्षिण की तरफ पैर रखकर नहीं सोना चाहिए। हमारे आयुर्वेदाचार्य सिर्फ चिकित्सा वैज्ञानिक ही नहीं थे, बल्कि वे तो निखिल ब्रह्माण्ड के उन ग्रहों तथा तारापिण्डों के जानकार भी थे, जो अपनी गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के जरिए पृथ्वीवासियों की मनोशारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। इसी ज्ञान के आधार पर आयुर्वेद में बताया गया है कि भोजनशाला कहाँ हो, उसकी लम्बाई-चौड़ाई कितनी हो। ये निर्देष हवा तथा प्रकाश की दृष्टि तथा ज्योतिष आदि ज्ञान के मद्देनजर दिये गये हैं। कुछ सालों पहले एक और खोज पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने की है कि ‘मनुष्य को शिथिल (रिलैक्स) होकर, प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए।‘ महर्षि चरक तथा महर्षि सुश्रुत ने विभिन्न श्लोकों के माध्यम से कहा है कि - प्राणियों का प्राण अन्न है। जीविका के लिए लौकिक कर्म, स्वर्गगमन के लिए वैदिक कर्म और मुक्ति के लिए ब्रह्मचर्य आदि कर्म हैं, वे सब अन्न में प्रतिष्ठित हैं। अतः मनुष्य सावधान होकर मात्रा और काल का विचार करता हुआ नित्य अन्न सेवन करें। भोजन करनेवाले को सुन्दर, बाधारहित, समतल, पवित्र और सुवासित स्थल पर भोजन करना चाहिए। भोक्ता कोमल वस्त्र पहन, प्रसन्न हृदय होकर, तत्क्षण पैर धोकर, परिजनों, प्रियजनों और मित्रों के साथ रसोईघर में बैठकर हितकर भोजन करें। मुँह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें। ऐसा करने पर हितभोजी तथा जितेन्द्रिय मनुष्य सौ वर्ष तक जीता है।‘

विक्रम, आयुर्वेद में बीमारियों को उत्पादक कारणों के अनुसार चार वर्ग में विभाजित किया गया है। पहला: आहार-विहार से उत्पन्न शारीरिक बीमारियाँ, दूसरा: लोभ, मोह, ईर्ष्या, क्रोध आदि से उत्पन्न मानसिक बीमारियाँ, तीसरा: अभिघात(प्रहार या विनाश), दंष आदि से आगंतुक तथा चौथी: जन्म-मरण, क्षुधा आदि से होनेवाली स्वाभाविक व्याधियाँ। जल, वायु, देश, काल आदि में दोष से संक्रामक रोग उत्पन्न होते हैं, इसका भी आयुर्वेद में वर्णन है। सुश्रुत संहिता में प्रदूषित जल से होनेवाले रोगों के विषय में कहा गया है कि जो ऐसा जल पीता है, उसे शोथ, पीलिया, चर्मरोग, अपच, श्वास-कास, जुकाम, शूल, गुल्म (पेट की गाँठ) उदर और अनेक प्रकार के विषम रोग शीघ्र हो जाते हैं। इसी तरह दूषित वायु के कुप्रभाव का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।

शल्य चिकित्सा के मामले में सुश्रुत संहिता अद्भुत सिद्ध हुई है। इसमें शरीर के भीतरी अंग-उपांगों का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पशु-शरीर के आंतरिक अंगों का विवेचन करनेवाले यज्ञीय विद्वान की प्रशंसा की गई है। शतपथ ब्राह्मण में सिर संधान का वर्णन मिलता है। कृत्रिम पैर तथा कृत्रिम नेत्र लगाये जाने की घटनाएँ घटित हुई हैं। सुश्रुत काल में शल्य क्रिया के काम में आनेवाले उपकरणों की संख्या 180 तक पहुँच गई थी। शरीर के किसी भाग में मवाद या गठान हो जाने पर चीरा कहाँ और कैसे लगाया जाए, शरीर के विभिन्न भागों में जलवृद्धि (जलोदर, प्ल्यूरेसी) हो जाने पर जल सुई द्वारा कैसे खींचा जाए, दन्त चिकित्सा, अस्थि चिकित्सा तथा मूत्राशय की पथरी, भगंदर, बवासीर, मोतियाबिंद की शल्य क्रिया के साथ-साथ, माँ के गर्भ में चीरा लगाकर शिशु को जन्म देने की शल्यक्रिया आदि की बारीकियों का अनूठा वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। इसी तरह सौंदर्यार्थ शल्य चिकित्सा(कॉस्मेटिक/प्लास्टिक सर्जरी) से जुड़ी क्रियाओं का भी वर्णन मिलता है। आधुनिक शल्य चिकित्सा शास्त्रों की पाश्चात्य पुस्तकों में सुश्रुत द्वारा कटे हुए नाक को पैर के मांस द्वारा ठीक करने की विधि का ‘नाक की प्लास्टिक सर्जरी की भारतीय विधि के नाम से उल्लेख किया गया है। घावों की शल्य चिकित्सा पर वूंड केयर नामक पुस्तक पर डॉ. बर्नार्ड नाइट ने घाव चिकित्सा का इतिहास नामक अध्याय में लिखा है कि ‘भारतीय शल्य चिकित्सा ईसा से शताब्दियों पूर्व काफी उन्नत थी।

विक्रम, इस संबंध में आयुर्वेद की अतिरंजित लगनेवाली शल्य चिकित्साओं का जिक्र मैं, तुझसे अभी नहीं करूँगा। परन्तु एक गौरवपूर्ण तथ्य तुझे जरूर बताऊँगा। ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़े विभिन्न देशों के शल्य चिकित्सा वैज्ञानिकों ने सुश्रुत संहिता के विषद् अध्ययन के पश्चात महर्षि सुश्रुत को निर्विवाद रूप से चिकित्सा इतिहास में शल्य चिकित्सा का जनक माना है। अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, आस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा आदि के विद्वानों द्वारा लगभग 25 वर्षों के श्रमसाध्य अध्ययन के पष्चात तैयार सिनोप्सिस ऑफ आयुर्वेद नामक ग्रंथ में उक्त घोषणा की गई है। तेहरान विश्वविद्यालय के शल्य शास्त्री डॉ. एम. नगमावादी का कहना है कि सुश्रुत संहिता प्राचीन अरबी दुनिया में किताब-ए-सुसरूव के नाम से उपलब्ध थी । और तो और नगमावादी ने यह भी कहा है कि आधुनिक चिकित्सा जगत सुश्रुत संहिता को आत्मसात् करेगा, तो विश्व का चिकित्सा इतिहास बदल जाएगा।

पार्वतीपुत्र गणेश का मस्तक प्रत्यारोपण, राजा अलर्क द्वारा अपने दोनों नेत्रों का अंधे ब्राह्मण को दान, द्रोणाचार्य के भू्रण का द्रोण (दोने) में विकसित होना (परखनली शिशु) आदि अनेक घटनाएँ आयुर्वेद के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। अर्जुनपुत्र अभिमन्यु का माँ के पेट में चक्रव्यूह तोड़ना सीख लेना भी इसी ज्ञान की सहज उपलब्धि थी।

विक्रम, मुझे पता है , मौत के भय से तूने मेरी बातें ध्यान से सुनी होंगी । अब कुछ और बातें भी मन लगाकर सुन। एक तरफ अमेरिका कई आयुर्वेदिक औषधियों को पेटेन्ट करा चुका है। अनेक मल्टीनेशनल दवा कम्पनियाँ आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाकर अरबों डॉलर कमा रही हैं। अमेरिका के चालीस प्रतिशत से अधिक लोग एलोपैथी से निराश होकर आयुर्वेद, योग, ध्यान और अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का दामन थाम चुके हैं। भारत में भी एलोपैथी दवा कम्पनियाँ आयुर्वेद के फार्मूलों से बनी देशी दवाइयों का बड़ा बाजार हथिया चुकी हैं, यानी आयुर्वेद दमदार तथा मलाईदार भी है और दूसरी तरफ भारत में आयुर्वेद की दुर्दशा अपने चरम पर है।

अब तू मेरे चन्द सवालों को पूरी तन्मयता से सुन। मेरे हर सवाल का सटीक जवाब देना। यदि सही जवाब नहीं दिए तो तेरे सिर के टुकड़े-टुकडे़ हो जाएंगे।

मेरा पहला प्रश्न है लाखों परम्परागत और आधुनिक तरीके से शिक्षित-दीक्षित आयुर्वेदाचार्यों के होते हुए भारत में आयुर्वेद की दुर्गति का क्या कारण है ? दूसरा प्रष्न है समन्वित चिकित्सा के अन्तर्गत एलोपैथी का ज्ञान आयुर्वेद के स्नातकों को देना कहाँ तक उचित है ? तीसरा सवाल है, क्या आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भारत के छः लाख गाँवों में सुदूर बसे तथा अभावों और दूषित पेयजल व अनाज की कमी के कारण संक्रमित एवं कुपोषित करोड़ों नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने में सक्षम है ? जबकि 77 प्रतिषत नागरिकों की दैनिक आय बीस रूपये से कम है।

मेरा चौथा सवाल तेरे दिमाग की नसें हिला डालनेवाला है, वह भी सुन। ज्ञान के अनूठे वैभव से सुसम्पन्न आयुर्वेद की पुनर्प्रतिष्ठा कैसे की जा सकती है ताकि भारत के सवा सौ करोड़ नागरिक अपनी सीमित आर्थिक क्षमता के उपरान्त भी स्वस्थ और सक्षम रह सकें।

विक्रमादित्य - बेताल, आयुर्वेद के पराभव का सबसे बड़ा कारण है, आत्म-विस्मरण। अधिकांश परम्परागत और शिक्षित-अशिक्षित आयुर्वेदाचार्य, राज्याश्रय और राजनीतिक आषीर्वाद से सम्पन्न एलोपैथी के वैभव की चकाचौंध में इस गौरवमयी बात को भूला चुके हैं कि आयुर्वेद एक पूर्णरूपेण विज्ञानसम्मत जीवन पद्धति है। वे आयुर्वेद को एलोपैथी से निम्न स्तर की चिकित्सा पद्धति भर मानते हैं। इसीलिए समन्वित चिकित्सा की बैसाखी उन्हें खूब भाती है तथा वे एलोपैथी की औषधियों का प्रयोग धड़ल्ले से करने में अनूठे गौरव का अनुभव करते हैं। जबकि भारत के संदर्भ में समन्वित चिकित्सा के तहत एम.बी.बी.एस. कर रहे चिकित्सा विद्यार्थियों को आयुर्वेद का ज्ञान दिया जाना चाहिए, क्योंकि आयुर्वेद में ऐसे हजारों निर्देश हैं जिनसे स्पष्ट पता चलता है कि बीमारियों से बचाव कैसे हो तथा बीमार होने पर पथ्यापथ्य तथा उपचार से उसके प्रसारण को कैसे रोका जाए । अब अपने तीसरे सवाल का जवाब भी सुन। यह एक कपोल कल्पनाभर है कि सर्वसुविधायुक्त शहरों में रहकर एलोपैथी की शिक्षा से दीक्षित चिकित्सा-स्नातक बुनियादी सुविधाओं से सर्वथा रीते सुदूर गाँवों में रहकर ‘सबके लिए स्वास्थ्य के नारे को साकार कर सकेंगे। यह लक्ष्य सन् 2000 के लिए तय था। मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम की तरह इसकी तिथि अनन्त काल तक खिसकती चली जाएगी। बकौल अखबारी खबरें, सच तो यह भी है कि शहरी अस्पतालों में भी एलोपैथी के चिकित्सक अधिकांश समय गायब रहते हैं। यह भी मजेदार बात है कि स्वतंत्रता के 60-61 साल बाद यह सामान्य तथ्य देश के आम नागरिकों तक पहुँचाने का पहला राष्ट्रव्यापी प्रयास किया गया कि हाथ धोना कितना महत्वपूर्ण है। राज्याश्रय, राज्याशीर्वाद तथा राजनीतिक समर्थन से फल-फूल रही एलोपैथी के सम्पन्न और राष्ट्रव्यापी मुख-हाथ-पैर होने के बावजूद यह तथ्य स्वतंत्रता प्राप्ति के 63 वर्षों बाद भी लोगों तक नहीं पहुँच पाया है कि शक्कर-नमक के घरेलू मिश्रण से प्रतिवर्ष 10 लाख की संख्या में मर रहे बच्चों में से 9 लाख 90 हजार को इस साधारण से मिश्रण के उपयोग से आसानी से बचाया जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सोश्यल मेडिसिन एवं कम्युनिटी हैल्थ की सह प्राध्यापिका डॉ. रितु प्रिया के मुताबिक ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं में अभाव साफ झलकता है, जहाँ सामान्य चिकित्सा अधिकारियों के महज साढ़े छः फीसदी पद ही भरे हुए हैं।

बेताल, अब तू तेरे अंतिम सवाल का जवाब ध्यान से सुन। गाँधीजी ने कहा था एलोपैथी चिकित्सा पद्धति नहीं है, बल्कि अपने आप में एक शक्ति तंत्र है। दरअसल एलोपैथी दुनिया के सबसे शक्तिषाली देशों तथा विश्व के सम्पन्न लोगों से जु़ड़ी पद्धति है। भारत में शुरूआत से ही पूर्णरूपेण राज्याश्रय के कारण विकसित एलोपैथी ने अब अपना एक शक्ति तंत्र खड़ा कर लिया है, जिसके समक्ष आयुर्वेद से जुड़े लोग अपने आपको बौना मानने लगे हैं।

यदि आयुर्वेद को पुनर्प्रतिष्ठित करना है और देष के सभी नागरिकों तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचाना है, तो आयुर्वेद को एक शक्ति तंत्र में रूपान्तरित करने के लिए प्राणपण से राष्ट्रव्यापी ध्येयनिष्ठा से प्रयास करने होंगे। ये प्रयास आपसी मतभेदों को परे रखकर सभी राजनीतिक दलों, आयुर्वेदाचार्यों, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों को करना होंगे।

सबसे पहले तो देश के सभी निजी एवं सरकारी मेडिकल कॉलेजों, आयुर्वेद महाविद्यालयों एवं दवा कम्पनियों को अनिवार्य रूप से प्रतिवर्ष कम से कम दो पृथक-पृथक घरेलू तथा आयुर्वेदिक नुस्खों पर अनिवार्य रूप से एक वर्ष के लिए क्लीनिकल ट्रॉयल करने के निर्देष दिए जाएं। साथ ही संबंधित कॉलेजों के प्रिवेन्टिव एंड सोश्यल मेडिसिन विभाग को आयुर्वेद में वर्णित उन निर्देषों में से प्रतिवर्ष दो पर वैज्ञानिक शोध अध्ययन करना होंगे, जिन्हें रोगों से बचाव के तहत आहार-विहार, व्यवहार तथा पथ्यापथ्य की दृष्टि से उल्लेखित किया है। नुस्खों और बचाव के निर्देशों पर अध्ययन और अनुसंधान करते समय न तो अविश्वास की भावना हो और न ही अंधविश्वास की, बल्कि आतंकित एवं आशंकित होने के बजाय विशुद्ध जिज्ञासा के साथ ये अध्ययन किए जाएं। आधुनिक वैज्ञानिक मापदण्डों के तहत किए गए इन शोधों की समय-समय पर निगरानी की जाना चाहिए। ऐसे शोध के अभाव में कॉलेज या दवा कम्पनी की मान्यता का वार्षिक नवीनीकरण न किया जाए।

आयुर्वेदिक दवा कम्पनियों और बड़े आयुर्वेदिक उपचार संस्थानों का यह अनिवार्य दायित्व होगा कि वे स्थानीय स्तर पर किसी रोग विशेष के लिए उपचार कर रहे अनुभवी लोगों की उपचार-विधा को विशेष प्रश्रय देकर लिपिबद्ध करने के साथ जीवित बनाये रखेंगे। इसी तारतम्य में विलुप्त हो रही स्थानीय चिकित्सा-विधाओं, स्थानीय नुस्खों तथा जड़ी-बूटियों के पुनर्जीवन का दायित्व भी उन्हीं को सौंपा जाना चाहिए। इस तरह प्रतिवर्ष कम से कम एक हजार नुस्खों तथा एक हजार निर्देषों का परीक्षण तथा सत्यापन हो सकेगा।

जो नुस्खे और निर्देष सत्यापित सिद्ध हों; उन्हें न केवल एलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए, बल्कि शालेय शिक्षा में सदैव स्वस्थ रहें नामक नूतन विषय में जोड़कर बौद्धिक क्षमता के अनुरूप प्रत्येक कक्षा में अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम के तहत पढ़ाया जाना चाहिए। सदैव स्वस्थ रहें विषय की परीक्षा में सफलता अनिवार्य की जाए तथा इस विषय में शाला स्तर, तहसील स्तर तथा जिला स्तर पर सर्वाधिक अंक अर्जित करनेवाले तीन-तीन विद्यार्थियों को विशेष रूप से पुरस्कृत तथा सम्मानित किया जाना चाहिए।

इस विषय के अन्तर्गत पहली कक्षा से ही उपलब्ध संसाधनों से आहार किस तरह संतुलित किया जाए, उपलब्ध जल को कैसे पीने योग्य बनाया जाए तथा स्वच्छता के महत्व को अनिवार्य रूप से बताया जाना चाहिए।

इसके अलावा कक्षा दसवीं में उत्तीर्ण प्रत्येक गाँव तथा तहसील स्तर के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न विद्यार्थियों का चयन कर उन्हें अपने क्षेत्र में बहुलता से व्याप्त बीमारियों से बचाव और उनके प्राथमिक उपचार का विषेष प्रशिक्षण देकर इस योग्य बनाया जाए कि वे अपने क्षेत्र के रोगी का प्राथमिक उपचार (फर्स्ट एड) कर उसे सही सलामत निकट के अस्पताल तक ले जाने में सक्षम हो जाएं। ऐसे विद्यार्थियों के लिए तहसील स्तर पर मेडिकल स्कूल संचालित कर उन्हें तीन से चार वर्ष का प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है। इसके तहत एनिमेशन और वीडियो फिल्म और प्रशिक्षित चिकित्सकों के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

इसी तरह विभिन्न आकस्मिक दुर्घटनाओं (जलना, डूबना, बिजली का करन्ट लगना, चोट लगना, सड़क दुर्घटना, तेज बुखार, निर्जलन आदि) के प्राथमिक उपचार से संबंधित डेढ़-दो मिनट की वीडियो फिल्में बनाकर उनका सिनेमाघरों तथा राष्ट्रीय एवं स्थानीय चैनलों पर दिनभर में दो से चार बार प्रसारण अनिवार्य किया जाना चाहिए।

इन सबके साथ-साथ अधिकांश नवदीक्षित आयुर्वेदाचार्यों के मन में आयुर्वेद के प्रति अविश्वास की भावना घर कर गई है। देष के स्थापित, सफल एवं वरिष्ठ आयुर्वेदाचार्यों को जामवन्तजी की तरह हनुमानजी की तरह उन्हें अपनी क्षमता का स्मरण कराना होगा। देष में रावण की तरह अनेक मुखी महामारियाँ हैं। भगवान श्रीराम ने भी युद्ध के मैदान में आत्मविश्वास की कमी और थकान को महसूस किया था, तब महर्षि अगस्त्य ने आदित्य हृदय स्तोत्र के माध्यम से श्रीराम के हृदय में आत्मविश्वास और स्फूर्ति का संचरण किया था और फिर श्रीराम ने रावण का सहज ही वध कर डाला था। वरिष्ठ आयुर्वेदाचार्यों को भी नवाचार्यां के भीतर आत्मविश्वास का संचरण करने के लिए अगस्त्य ऋषि की भूमिका निभाना चाहिए।

देखो बेताल! आज के परिदृष्य में शरत में प्रचलित समस्त चिकित्सा पद्धतियों और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (ऐलोपैथी) के विवेकपूर्ण समन्वय की आवश्यकता है।

इन सभी प्रयासों से सबके लिए स्वास्थ्य सस्ता और सुलभ हो जाएगा तथा आयुर्वेद एक शक्ति तंत्र के रूप में खड़ा हो सकेगा।

अपने विकट सवालों का सटीक उत्तर सुनकर बेताल बेतहाशा हँसने लगा और फिर बोला - अरे विक्रम ! तू तो बड़ा चतुर है रे ! यह कहकर पेड़ों के अभाव के चलते शमशान के लकड़ियों के गोदाम में पड़े अपने मनचाहे पेड़ के मोटे तने में घुस गया।

डॉ. मनोहर भण्डारी,
एम.बी.बी.एस., एम.डी.
डिप्लोमा इन योग एंड नेचुरोपैथी, रैकी प्रथम डिग्री
सहायक प्राध्यापक, फिजियोलॉजी
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आयुर्वेदिक महाविद्यालय जबलपुर
मोबाइल - 094250-32324, ई-मेल: drmbhandari@gmail.com



2 comments:

निर्मला कपिला said...

ज्ञान के अनूठे वैभव से सुसम्पन्न आयुर्वेद की पुनर्प्रतिष्ठा कैसे की जा सकती है ताकि भारत के सवा सौ करोड़ नागरिक अपनी सीमित आर्थिक क्षमता के उपरान्त भी स्वस्थ और सक्षम रह सकें।
अगर इस समस्या का हल मिल जाये तो भारत के लोगों का उद्धार हो जायेगा। कहानी के रूप मे ये आलेख बहुत ग्यानवर्द्धक है। धन्यवाद।

यदाकदा said...

आयुर्वेद की महत्ता पर आपने बेताल कथा के माध्यम से बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। आज के युग में समन्वित चिकित्सा ही सफल हो सकती है। किसी एक पैथी के बस में सारे रोग और रोगी नहीं हो सकते। लेकिन एलोपैथी वाले यह बात कबूल करें तब तो संभव है।