शकील "जमशेद्पुरी"
मैं खुद ही मुलाक़ात को चल देता हूँ
मायूसी जब चलके दो कदम नहीं आती
तेरी हर अदा मेरी एहसास में बसी है
याद तेरी बेसबब नहीं आती.........
समंदर आज फिर से खौफज़दा है
चेतावनी दी है किसी ने सुनामी की
वही होगा जो पहले हो चुका है
अंजाम जैसे तेरी-मेरी कहानी की
इन बातों से कोई दहशत नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती.......
बहुत करीब थे अपनी मंजिल के हम
ज़रा सा आगे बढ़ कर हाथ बढ़ाना था
में तेरा हूँ, सिर्फ तेरा हूँ
ये बात तुम्हें ज़माने को बताना था
काश के तुझमें कोई झिझक नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती.......
शहर से दूर पहाड़ों के दामन में
मोहब्बत का अपना भी एक घर था
हर एक कोणा, दरो-दीवार और फिजा
सब तेरी खुशबू से तर था.
बड़ी दिनों से तेरी महक नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती.....
कभी जो तू निकल आती थी सावन में
घटा तुझको देख कर बरसती थी.
गुज़र होता जो तेरा बाग़ से तो
तुझे छूने को हरेक डाली लचकती थी.
इन डालियों में अब वो लचक नहीं आती.
तेरी याद बेसबब नहीं आती.....
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