Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

28.12.07

सूपन भगत खाये....जज्ञ पूरा भया

((पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव के डोम परिवार के जीवन पर आधारित यह कहानी मैंने बीएचयू में होलटाइमरी के दौरान लिखी थी। इसमें अपने समय के समाज की उन सूक्ष्मतम सच्चाइयों को पकड़ने की कोशिश की गई है जिन्हें हम आमतौर पर देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इस कहानी को जब लिखा था तो लगा था कि इसे हंस को भेज देना चाहिए। इसे बाकायदा टाइप कराकर राजेंद्र यादव के पास रवाना किया था। कई दिनों बाद राजेंद्र यादव लिखित पोस्टकार्ड मिला जिसमें कई तकनीकी व भाषाई कमियां गिनाने के बाद कहा गया था कि कथ्य तो अच्छा है पर छाप नहीं पा रहे हैं। अब जबकि वो पुराना बैग जिसमें पुराने समय के ढेर सारे लिखे तुड़े मुड़े कागज व डायरियां कैद हैं, को धो पोंछकर निकाला तो लगा कि चलो, इस कहानी को जिंदा कर दिया जाए और भड़ास पर डाला जाए। पाठकों से अनुरोध है कि इसे 12 वर्ष पूर्व लिखी गई एक रचना के तौर पर लें। यह लंबी कहानी है, पढ़ने में दिक्कत तो होगी लेकिन पढ़ने के बाद आप जरूर कई दिनों तक इस कहानी को याद रखेंगे। ये मेरी गारंटी है। तो चलिए, शुरू करते हैं.....यशवंत))

पार्ट एक
गांजा पीने के बाद दुक्खू ने चिलम उलटा कर जमीन से टिका दिया। राख नीचे गिराने के बाद चिलम में से गिट्टी निकाल कर छेद में फूंक मारा। इतमीनान से पैर फैलाकर चिलम की राख अपने माथे पर मला। सांझ का सूरज ठीक बगल में कटहल के पीछे। गांव के पच्छिम टोला की महिलायें निपटान के लिए दुक्खू के घर के बगल से निकलने वाले हगनहटी के रास्ते से आ जा रही हैं। यही वह क्षण होता है जब दुक्खू की सारे दिन की थकान मिनटों में फुर्र हो जाती है। सुबह से शाम तक, अपने घर की महिलाओं, बेटों और नातियों-पनातियों के साथ झपोली और खांची बनाने में बांस की काठियों के साथ खेलते खेलते शरीर का पोर पोर अंकड़ने लगता है। गांजा पीते ही सब कुछ नार्मल होते लगता।

गांजा दुक्खू के कपार में घूमने लगा। आती-जाती महिलाओं के चूड़ियों की खनखनाहट, उनकी बातचीत की फुसफुसाहट, हंसी की खिलखिलाहट से दुक्खू को असीम आनंद मिलने लगा। दड़बों में बंद सूअरों के फूं फां चीं चां से दुक्खू को गुस्सा भी आता लेकिन दुक्खू ने अपना पूरा ध्यान आती जाती महिलाओं पर ही लगा दिया। पता नहीं क्यों, दुक्खू को महिलाओं की चाल चीटियों जैसी लगती। रुक रुक कर बतियाना, फिर उसी रास्ते पर आते-जाते रहना। सब कुछ रोज की तरह निश्चित और तयशुदा....नियमबद्ध, कतारबद्ध।

दुक्खू को महसूस हुआ कि जैसे कुछ लोग बातें करते उसके घर की तरफ ही आ रहे हैं। दुक्खू ने कान खड़ा कर दिया। आवाज पहचानने की कोशिश की। दुक्खू तुरंत बोल पड़े...अरे भानु मालिक, आईं आईं....मचिया लाओ रे...आपने यहां आने का कष्ट कैसे किया, बुलवा लिये होते किसी से....

भानु सिंह ने दुक्खू की बात लगभग अनसुनी करते हुए कहा...ये अभय श्रीवास्तव हैं, कामरेड हैं....साथ वाले व्यक्ति का परिचय कराते हुए भानु सिंह ने कहा....हम लोगों की पार्टी के नेता हैं, इस ब्लाक में यही काम धाम देखेंगे।

दुक्खू ने हाथ जोड़कर हें हें करते हुए तुरंत सलाम किया और दांत दिखाना जारी रखते हुए पूछा.....भानु मालिक...उ जो नेता पहले थे आज नहीं.....?
दुक्खू की बात भानु सिंह तुरंत समझ गए...हां हां...उनका ट्रांसफर हो गया, दूसरे ब्लाक में। अब ये नये साथी आये हैं। गरीबों की लड़ाई के लिए इन्होंने अपनी पढ़ाई लिखाई घर बार सब छोड़ दिया है। होलटाइमर हो गए हैं। अब आप लोगों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।

दुक्खू गर्दन हिलाते रहे और समझने की कोशिश भी करते रहे। पर वे भीतर ही भीतर असामान्य होने लगे। अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई बाबू साहब या पंडी जी घर पर आ जाते तो उनसे बतियाते हुए दुक्खू को घबराहट होने लगती...पसीना भी आने लगता...अंदर ही अंदर।

भानु सिंह ने मौन तोड़ा और दुक्खू से पूछा....अभी मुलागी, कतरू नहीं आए हैं क्या?

इस बीच मुलागी बो और कतरू बो काम रोक कर घर के कोने में खड़े होकर ध्यान से बातचीत सुनने लगीं थीं। दुक्खू बो दुक्खू के पीछे खड़ी हो गईं।

दुक्खू ने रास्ते की ओर देखते हए जवाब दिया....नाहीं मालिक। बेलवा तो हो ही गई है, अभी तक आये नहीं सब। हो सकता है मालिक, वो सब ठेका पर बैठ गए हों.....कहते कहते दुक्खू ने हंसने की कोशिश की।

दुक्खू की हंसी बेपरवाह भानु सिंह ने अपना वक्तव्य दिया......ऐसा है दुक्खू, हम लोग पार्टी के काम से आये हैं। किसान सभा का सदस्यता अभियान चल रहा है इस समय। आज पूरे दिन चमटोली और पसियान में मेंबर बनाए हम लोग। आप लोग भी सदस्य बनिए।

दुक्खू ने हाथ जोड़ते हुए कहा....मालिक हम लोग तो आप के साथ हमेशा से हैं। आप जो कहें हम वही करें।

कुर्ता पाजामाधारी नवयुवक कामरेड श्रीवास्तव जी इस बार बोले....ऐसा है साथी दुक्खू जी, इ सब मालिक... बाबू... सरकार... किसी को मत कहा करिए। हम लोगों की पार्टी तो इसी सब नव सामंती संस्कृति के खिलाफ है। सभी लोग एक बराबर। आप साथी कहिए हम लोगों को।

भानु सिंह बीच में ही श्रीवास्तव जी को बताने लगे....मैं तो दुक्खू को समझाते समझाते परेशान हो गया हूं। ये हर बार कहते हैं कि आदत पड़ गई है सरकार। आपसे पहले वाले कामरेड चुन्नीलाल भी समझाते समझाते हार गए लेकिन दुक्खू ने अपनी आदत नहीं बदली। कहते हैं कि अच्छा नहीं लगता छुच्छे बोलना....।

भानु सिंह फिर तुरंत पहले वाली बात पर वापस लौट आए.....मेंबरशिप का शुल्क है दो रुपये एक आदमी के लिए।
कामरेड श्रीवास्तव जी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए भानु सिंह बोले....रसीदवा दीजिएगा किसान सभवा का।

दुक्खू अभी तक पुरानी बात से उबर नहीं पाये। बोले...ठीक है मालिक सब। आपन आपन जबान है। जिनगी भर आप लोगों का नमक खाया है। अब बुढ़ापा में इ सब बात कहना बोलना हमको नहीं सुहाता...कहते कहते दुक्खू पीछे खड़ी पत्नी पर एकाएक चिल्लाए.....कतरू की माई...जरा पैसवा लाओ तो।

कतरू की माई ने अपनी साड़ी का एक कोना खोला। मुड़कर एक रुपये के सिक्के जैसे हो चुके दस रुपये के नोट को पकड़ा दिया।

कामरेड ने सबका नाम पूछा और नोट किया...दुक्खू, कतरू, मुलागी, मितिया, छंगुरी, हंसमुखिया....। अपना नाम सुनकर कोने में बैठी और बच्चे को दूध पिलाती मितिया मुस्काने लगी। बहुत दिन बाद किसी के मुंह से अपना नाम सुनी, सो खुशी रोक नहीं पाई।

पैसे लेने व रसीद देने के बाद चलते वक्त भानु सिंह ने सीना फुलाकर दुक्खू से कहा....अब किसी से दबने डरने की जरूरत नहीं है। यह सामंती उत्पीड़न बहुत दिन तक चलने वाला नहीं है। हम लोग हर समय आपके साथ हैं..।

दुक्खू हाथ जोड़कर विदा देते और जवाब में जी मालिक जी मालिक करते रहे।

कामरेड श्रीवास्तव जी कुछ दूरी पर चलने के बाद जिज्ञासा प्रकट की.....कहो साथी भानु जी, इस गांव में कोई बड़ा सामंत नहीं है और न ही कोई खुला उत्पीड़न हो रहा है तो फिर ये लोग इतने डरे डरे सहमे सहमे क्यों रहते हैं।

भानु सिंह कुछ देर तक सोचते रहे फिर बोले....दो बातें हैं इसमें। पहली यह कि भले ही यहां कोई बड़ा सामंत न हो लेकिन जो लोग भी सवर्ण हैं वे नहीं चाहते कि जाति प्रथा टूटे। सबको अपने अपने औकात में रहना चाहिए- ये उन लोगों का मानना है। दूसरी बात- दलित और पिछड़े तबकों में भी इस सामंती जाति प्रथा की थोपी गई स्थितियों का दबाव है और इसके विरोध का खुला साहस नहीं है। अतः पीढ़ियों से चला आ रहा सामाजिक आर्थिक संबंध बहुत थोड़ा सा ही बदल पाया है।
हूं...कहकर श्रीवास्तव जी सोचने में जुट गए....भानु सिंह भी तो सवर्ण हैं। पर कितना स्पष्ट है इनका व्यावहारिक ज्ञान। वर्गीय राजनीति की भी ठीकठाक समझ है। विश्वविद्यालय में इतने पके पकाये व्यावहारिक सामाजिक ज्ञान वाले लोग कहां मिलते हैं? वहां तर्क तो घंटों करेंगे लेकिन असल जीवन में उसी ढांचे या सिस्टम का पार्ट बन जायेंगे। वैसे जिला सचिव ने ठीक ही कहा था कि इस आदमी (भानु सिंह) में बहुत संभावना है। अगर इनके जीवन के कांट्राडिक्शन को कायदे से पकड़कर हल किया जाये तो पार्टी को एक अच्छा मास लीडर इस इलाके में मिल जायेगा।

श्रीवास्तव जी भानु सिंह के परिवार के बारे में जिला सचिव के आब्जरवेशन को याद करने लगे.... भानु सिंह के परिवार के बाकी लोग तो रिएक्शनरी किस्म के हैं। फ्यूडल फेमिली है।

चिड़ियों के बढ़ते शोरगुल के साथ अंधेरे की चादर भी फैलने लगी। कुछ ही देर में भानु सिंह और श्रीवास्तव जी समेत पूरा गांव खा पीकर सोने में जुटने लगा।

पार्ट टू
चमटोली के कुक्कुर जब भोंकते तो ठकुरहन के कई कुक्करों की सामूहिक जवाबी गर्जना शुरू हो जाती। पोखरे की तरफ से विभिन्न जीवों का मिश्रित स्वर किसी आधुनिक रीमिक्स म्यूजिक सरीखा महसूस होता। चांद के प्रकाश से पोखरे का गंदला पानी किसी खूबसूरत औरत की तरह चमचमाने लगा। भानु सिंह ने दूसरी चारपाई भी लाकर पोखरे के किनारे ऊंचाई पर बने प्राइमरी स्कूल के बाहर खुले मैदान में डाल दिया।

श्रीवास्तव जी दांत खोदते हुए स्कूल के मैदान में सोने से पहले वाली टहलान में जुट गए। थूकते हुए श्रीवास्तव जी ने भानु सिंह की तरफ प्रश्न फेंका....तो भानु भाई, हम लोगों की पार्टी में आने से पहले भी किसी पार्टी में थे?
भानु सिंह चारपाई सजा रहे थे, तोसक, फिर चदरा फिर तकिया....बोले....इसके पहले भी कम्युनिस्ट पार्टी में ही था। पर वे लोग केवल डंडा झंडा लेकर रैली धरना प्रदर्शन में ही लगे रहते। गांव में लड़ने भिड़ने वाला कोई काम नहीं करते। केवल चुनाव के समय सक्रिय होते। बाकी समय में कभी कभार मिल जाने पर सिद्धांत बतियाते। सिद्धांत बघारने से जनता क्रांति थोड़े ही कर देगी।

हां, वो लोग चुनावी राजनीति में पतित हो चुके हैं....भानु सिंह की बात को एक सैद्धांतिक अंजाम पर पहुंचाया कामरेड श्रीवास्तव जी ने।

भानु सिंह को जैसे इसी अवसर का इंतजार था, बोले... कामरेड, अब तो ये अपनी वाली पार्टी भी चुनाव में भाग लेने लगी है, अंडर ग्राउंड से बाहर ग्राउंड हो गई है। कल को लड़ने भिड़ने वाला काम भी बंद कर दें तो क्या ठिकाना?

श्रीवास्तव जी सचेत हो गए। एक मिनट को सोचे फिर बोले...पहले किसी साथी से इस मुद्दे पर आपकी बातचीत हुई थी?

हां हुई तो थी....डिबिया से सुर्ती निकालते हुए भानु सिंह बोले...उनके तर्क से तो संतुष्ट था पर मुझे उनकी बातें व्यावहारिक नहीं लगीं। इस इलाके में गरीब दलित और पिछड़े इतने आतंकित रहते हैं कि मेरी हर बात बिना बहस किये ही मान लेते हैं लेकिन जब मैं धरना प्रदर्शन या संघर्ष में चलने को कहता हूं तो बहाना बनाकर सरक लेते हैं। या हांथ जोड़कर छोटा आदमी होने की बात कहते हुए इनकार कर देते हैं। यह आतंक कैसे खत्म होगा, यह आदत कैसे छूटेगी। पंडितान या ठकुरहन का कोई भी बच्चा इन लोगों को गरिया देता है और ये लोग चुपचाप सुन लेते हैं। ऐसे में अगर इनके बीच के भूमिहीन गरीबों के लड़कों को हथियार वगैरह चलाने की सशस्त्र ट्रेनिंग दी जाए तो शायद इनको हिम्मत मिले और आतंक टूटे।

आसमान के चांद तारों को देखते हुए श्रीवास्तव जी ध्यानपूर्वक भानु सिंह की बातें सुनते रहे। जिला सचिव की बताई एक बात उन्हें याद आ गई। भानु सिंह पालिटिक्स करते समय ही गुंडई लाइन में चले गए थे। इलाके में तब ये सबसे बड़े गुंडा हुआ करते थे। गांव में भी ठाकुरों के दो ग्रुप थे। दूसरे ग्रुप से इनकी कई बार गोलीबारी हुई। यह तो संयोग था कि उसी दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आ गए।

श्रीवास्तव जी भानु सिंह को समझाने लगे.....साथी भानु जी, बात तो ठीक है। आप जानते ही होंगे कम्युनिस्ट मूवमेंट में दो प्रकार की धाराएं हैं- संसदवादी और अराजकतावादी। इनसे अलग एक तीसरी धारा भी है जो हम लोगों की है जो दोनों प्रकार की अतियों से मुक्त है। अगर आतंक तोड़ने के लिए हथियार उठाने की जरूरत पड़ती है तो हम वो भी करते हैं बशर्ते अगर वह आतंक सचमुच हमारे राजनीति में, किसान आंदोलन की राह में रोड़ा बन गया हो। देखिए जैसे कि बिहार के आरा में....भोजपुर में.....सिवान में....जहानाबाद में.....।

श्रीवास्तव जी एक के बाद एक उदाहरण देकर अलग-अलग आंदोलनों की हिस्ट्री समझाते रहे। उसके बहाने पार्टी की दशा दिशा को थ्यूराइज करते रहे। भानु सिंह हुंकारी भरते रहे। भानु सिंह को संतोष होने लगा। चारपाई पर सिर के बगल में लेवा के नीचे रखे छफैरा रिवाल्वर को हलके से छूकर देख लिया। उसकी गर्मी को महसूस किया। कुछ ही देर में भानु सिंह की नाक बजने लगी। श्रीवास्तव जी अपने रौ में बहे जा रहे थे। एकाएक उन्हें लगा कि भानु सिंह की हुंकारी बंद हो गई है तो उन्होंने भी बात बंद कर दिया।

श्रीवास्तव जी अब बगैर भानु सिंह के सोचने लगे। इस गांव के बारे में सोचने लगे जहां उन्हें काम करने के लिए भेजा गया है। वे सोचने लगे कि किस रणनीति से इस गांव के गरीब दलितों पिछड़ों को स्वतंत्र शक्ति के बतौर खड़ा कर दिया जाए। पार्टी का मास बेस बना लिया जाए। इस गांव का मामला थोड़ा उलटा है। किताबों में पढ़ी गई बातें यहां लागू नहीं हो रहीं। यहां पार्टी के जो मददगार भानु सिंह हैं वो सवर्ण और दबंग परिवार से हैं। श्रीवास्तव जी को प्रदेश सचिव की एक बात याद आई....अगर गांव में भूमिहीनों के साथ उनके जीवन के अनुरूप अपने को ढालने में हम अक्षम रहे तो वे लोग कभी भी पार्टी को अपनी पार्टी के रूप में महसूस नहीं कर पायेंगे। अपने साथियों को मध्यम वर्ग के बीच खाने पीने और सोने से बचना चाहिए....।

श्रीवास्तव जी को अपराध बोध होने लगा। आज किसी दलित के यहां ही रुकना चाहिए था। दुक्खू के यहां ही रुक सकते थे हम लोग।

श्रीवास्तव जी के मन में विचार पर विचार उठते रहे। नींद तो जैसे यूनिवर्सिटी के हास्टल वाले कमरे में छूट गई हो। पूरा गांव शांत था। दुक्खू डोम के घर की ओर से शोर शराबा आ रहा था। लगता है बेटे पी पाकर आए हैं और चिचियाहट मचाए हैं।

पार्ट थ्री
भानु सिंह और श्रीवास्तव जी जब दुक्खू घर के डोम से लौटे तो दुक्खू डोम मचिया हटाकर जमीन पर पसर गये। भानु सिंह की बात दुक्खू के दिमाग में लगातार चक्कर काट रही थी....अब दब के रहने की कोई जरूरत नहीं।

दुक्खू मन में ही सोचने लगा, उसकी निगाह ठीक उपर नीम की टहनी पर स्थिर है, दिमाग में गांजा की गर्मी विचारों के हेलमेल से लगातार कई कई विचार पैदा करने लगी....

हुंह, यह हवा हवाई बात है। ....काट कर रख देंगे ठाकुर और पंडित। अकेले भानु सिंह से क्या होगा। फिर भरोसा क्या कि वह हम्हीं लोगों के साथ रहेंगे हमेशा। लोग इसी तरह मीठी मीठी बात करते हैं, काम निकालने के लिए। मौका मिलने पर गांड़ काटने में भी नहीं चूकते। हम लोग अपनी बिरादरी में अकेले हैं, चमार भी तो नहीं सटते हैं हमसे। समय आने पर सब एक तरफ हो जायेंगे। जब हम कुआं खोदवाते हैं तो उसमें भी बाबू साहब लोगों को अपनी हेठी देखती है तो....हुंह।

दुक्खू के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। आधा खोदा जा चुका कुआं किस तरह से बाबू साहब लोगों के दबाव में पटवाना पड़ गया, वह सब दृश्य दुक्खू के आंखों के सामने से घूम गया। तब तो कोई भी आगे नहीं आया कहने को कि डोमवा को पानी की बहुत परेशानी होती है, उसको कुआं खोदवाना ही चाहिए। जिनगी भर पोखरी का पानी ही लिखा है पीने को। पैसा रुपया है पर साफ पानी पीने को नहीं मिल सकता।

दुक्खू की आंख आकाश में टिमटिमाते तारों पर पड़ी। वह गौर से देखने लगा तारों को। सफेद सफेद तारे और काला आकाश। जैसे सफेद तारे बाभन ठाकुर हों और काला आकाश डोम चमार।

दुक्खू की आंख आसमान में कुछ ढूंढने लगी। सतरिसिया तरई। एक बार मुलागी के बेटे फेंकू ने पूछ लिया था....बाबा, ये सतरिसिया तरई अकसवा में करते क्या हैं?

तब दुक्खू ने समझाया था- ये जो चार कोने के चार तारे हैं, ये मुर्दा उठाकर फेंकने के लिए ले जा रहे हैं। तीन लोग जो पीछे हैं वे मुर्दे के दर दयाद हैं। वे परवाह करने ले जा रहे हैं।

तब फेंकू ने फिर पूछा था- ये रोज रोज मुर्दा क्यों फेंकते हैं?

दुक्खू ने समझाया- बात ये है कि रात भर मेहनत करने के बाद ये गंगा जी के पास पहुंचते हैं। सुबह होते ही सूरज भगवान गंगा जी को सुखा देते हैं तब ये वापस लौट आते हैं।

पर बाबा, सुबह गंगा जी सूखती कहां हैं? फेंकू ने सवाल किया।

दुक्खू झुंझला उठे.....अरे वो अकास वाली गंगा जी की बात है। वहां पर होता तो तुम्हारे बाबू लास जलवा दिये होते अब तक।

फेंकू इस उत्तर से संतुष्ट हो गया और उसे अपने बाप पर गर्व महसूस होने लगा था।

सोचते हुए दुक्खू के आंख में आंसू आ गए। बूंद ढुलक कर मूंछ में फंस गए। बूंद रुके नहीं, मूंछ से सरकर दाढ़ी के लंबे बाल में अंटक गए।

दुक्खू ने गमछे से आंख पोछने के बाद दाढ़ी पर हाथ फेरा.....ऋषियों की संतान डोमराजा.....सोचकर दुक्खू को हंसी आ गई....कैसी कैसी उलटी पुलटी बात सोच लेता है वह....। गर्दन हिलाकर अगल बगल देखा। ओसारे में ढिबरी जल रही है। मुलागी और कतरू आ चुके हैं। रोज की तरह दुक्खू मुलागी और कतरू की साइकिल की ओर बढ़ा और हैंडिल में लटकी पोटली निकाल लाया। खोला। शराब पाउच, पान, टार्च मसाला, बीड़ी बंडल। चार पाउच शराब निकालकर बाकी पोटरी उसी तरह हैंडिल में लटका दिया।

दुक्खू चुपचाप पीते रहे। मुलागी सोये सोये ही नशे के अतिरेक में रोने लगा। महिलाएं भी नशे में हो चुकी थीं। वे हंसते बतियाते मांस पकाने में जुटी हुई थीं। शोरगुल बढ़ता देख दुक्खू एक बार जोर से चिल्लाया.....चुप माधड़चोद। फिर धीरे से बोला...आज हम लोग पार्टी के आदमी बन गए। बिना नाम लिए कही गई ये बात कतरू और मुलागी के लिए थी।

किस पार्टी के आदमी हो....कतरू हंसते हुए उठकर बैठ गया। शराब पूरे शरीर व दिमाग को मजा दे रहा। कतरू को पार्टी के आदमी बनने वाली बात रोज के रूटीन से हटकर लगी।

दुक्खू ने जवाब दिया...भानु मालिक वाली पर्टिया के। फिर अपना ज्ञान बघारते हुए बताया....चुन्नूलाल कामरेड कहीं अउर भेज दिये गये हैं, उनकी जगह श्रीवास्तव कामरेड आए हैं।

कतरू को दुख हुआ कि वह उस मौके पर नहीं था वरना वह भी हाथ मिला लिया होता नये वाले कामरेड से। कतरू ने पूछ ही लिया.....क्या ये नये साथी भी सबसे हाथ मिलाये?

दुक्खू ने ज्ञानी की भांति निर्विकार भाव से कहा....नहीं, ई साथी बात बहुत कम किये। भानु मालिक पार्टी की रसीद काटकर दिये।

कतरू को निराशा हुई। वह अपना हाथ मलने लगा।

इस बीच मुलागी रोना बंद कर बातचीत ध्यान से सुनने लगा था। पार्टी का आदमी बनाने और रसीद काटने की बात सुन उसने मन ही मन समझ लिया कि बहुत जल्द वोट पड़ने वाला है। पिछली बार परधानी के चुनाव में इसी तरह रसीद काटकर दिया गया था। मुलागी को खुशी हुई। चलो अच्छा है। चुनाव के समय ही डोमराजा की असली पूछ होती है।
मांस पकने की खुशबू चारों तरफ फैलने लगी।

कतरू की आंख खुली। निगाह शराब पीते हुए बच्चों पर गई। सोये सोये ही चिल्लाया---माधरचोद, कम ही पियो, स्कूल जाने में तो गांड़ फटती है, सूअर चराओ सालों।

लड़के पूर्ववत चुपचाप पीते रहे।

मुलागी को एकाएक याद आया—कल इसी बेला तो एक ठकुराइन भूत भूत करके भागी थीं। इसीलिए आज लाइट का मसाला लाया है। मुलागी चिल्लाया....अबे लौंडों, सइकिलिया पर से गमछिया ले आओ। ओम्मा लइटिया का मसाला होगा। लइटिया भी ले आना।

मसाला और टार्च का मेल कर मुलागी ने अपनी बीवी के मुंह पर रोशनी फेंकी फिर कतरू की ओर रोशनी डालते हुए बोला....कतरूवा, कल ऐही बेला ठकुराई को भूत मिला था ना। देखते हैं आज कहां है भूत।

मुलागी ने टार्च की रोशनी कटहल की तरफ कर दी। कतरू और दुक्खू भी उठकर बैठ गए और रोशनी को निहारने लगे।

पर ये क्या? कटहल के सामने एक नंगे लड़का और लड़की। आपस में चिपके।

कतरू चिल्लाया....अरे हई देखो भूत का खेल।

वो नंगे बदन रोशनी से बचने को कटहल के पीछे छिपने लगे।

दुक्खू सकपका गया। चिल्ला उठा—अबे बंद कर रोशनी। बहुत लात पड़ेगी।

दुक्खू पहचान गया। लड़का तो पप्पू सिंह हैं। भानु मालिक के छोटे भाई। .....अरे साला लइटिया बंद कर।

दुक्खु झटपट उठे और लाइट छीनकर उसी के सिर पर दे मारा। ....माधरचोद जानते हो, वो कौन हैं, पप्पू सिंह। अब किसी की खैर नहीं। बाप रे....माफ करो बाबू।

दुक्खू कांपने लगा और बकबकाने लगा, माफी मांगने लगा। परिवार के अन्य सदस्यों को तो जैसे काठ मार गया।

कटहल के तरफ से मर्दानी आवाज गूंजी....आ रहा हूं ससुर लोग, बहुते मन बढ़ गया है। निपटते हुए औरतों पर टार्च बार रहे हो। शराब का नसा आज तुम लोगों के गांड़ में डाल दूंगा।

दुक्खू परिवार में कोहराम मच गया। पप्पू सिंह आए और अकेले ही दुक्खू कुनबे के हर सदस्य को हिक भर मारा। सब पिटते रहे...बाबू बाबू और मालिक मालिक कहते हुए। अंत में पप्पू सिंह चले गए और दुक्खू परिवार के सदस्य गोलाई में बैठकर सामूहिक रुदन करने लगे।

बीच में चूल्हे पर रखा मांस भीनी भीनी खुशबू देते हुए पकता रहा।

पच्छिम टोला के लोग आते रहे और जाते रहे। लोगों में संक्षिप्त प्रश्नोत्तर होता रहा।

क्या हुआ हो?
डोमवा को पप्पू सिंह पीट दिये हैं।


बात पूरे गांव में फैल गई। भानु सिंह और श्रीवास्तव जी भी दौड़े दौड़े दुक्खू के घर आये।

मोटा से मोटा बांस मिनटों में चीर देने वाले डोम कुनबे के हथियार छुरा और चाकू अगल बगल पड़े थे। अब सब शांत हो केवल सुबक रहे थे।

भानु सिंह ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा....का हो दुक्खू, इ सब कब तक होई। एक आदमी पूरे परिवार को पीट देता है।

दूसरे तरफ चुप्पी जारी रही।

भानु सिंह बोलते रहे...ससुर चरित्रहीन आदमी पप्पूवा। गरीब को पीटकर बड़का गुंडा बनते हैं। अबकी पुलिस से तोड़वाते हैं तब पता चलेगा कि गुंडई कैसी होती है।

दुक्खू ने हाथ जोड़ते हुए सुबक कर कहा---मालिक माफ कीजियेगा, गलती हम लोगों की ही है। अपने आत्मा में बहुत कष्ट है। गांड़ पर का लहंगा फाटने के लिए ही तो होता है।

श्रीवास्तव जी दुक्खू के कथन का अर्थ निकालने लगे। ये लोग साफ साफ बात क्यों नहीं करते। यही दिक्कत है। मजबूती से कहना चाहिए कि हमारा उत्पीड़न हुआ है।

काफी देर चुप्पी छाई रही। अंत में भानु सिंह और श्रीवास्तव जी उठकर चल दिए।

रास्ते में श्रीवास्तव जी ने भानु सिंह को टटोलने के लिए प्रश्न उछाला.....तब भानु भाई, इस मामले में क्या किया जाए?

इस साले को तोड़वाना होगा। परिवार के इज्जत को नाश करने पर तुला है। थाने चलिए। एफआईआर करवाया जाये....भानु सिंह ने उबलते हुए कहा।

कामरेड बोले....मैं सोच रहा हूं कि गांव में एक सामूहिक बैठक बुलाकर पप्पू सिंह से दुक्खू के कुनबे से माफी मांगने के लिए कहा जाए। इससे गरीबों में मैसेज जायेगा। पार्टी के प्रति भरोसा पैदा होगा। आम जनता को गोलबंद करने और संगठन विस्तार के लिहाज से यह ठीक होगा।

देखिये...पप्पूवा को मैं जानता हूं। बहुद जिद्दी और दुस्साहसी है। किसी कीमत पर माफी नहीं मांगेगा। डंडा झंडा लेकर मीटिंग करो और बाद में मुंह लटकाकर वापस लौट जाओ, यही मुझसे नहीं होता है।

भानु सिंह की बात से श्रीवास्तव जी को झटका लगा। मन में सोचने लगे....बात तो सही कह रहे हैं। पप्पू अगर माफी मांगने नहीं आया तो जनता डिमोरलाइज होगी।

तब क्या उपाय हो सकता है?

श्रीवास्तव जी रात को ही भानु सिंह को साथ लेकर पार्टी के जिला कार्यालय पहुंच गए। श्रीवास्तव जी ने एकांत में जिला सचिव से बातचीत की। मास मोबलाइजेशन के लिहाज से एफआईआर के अलावा भी कोई ग्रास रूट प्रोग्राम आर्गेनाइज करना होगा, पर वह क्या हो, यही तय नहीं हो पा रहा था।

भानु सिंह पार्टी आफिस के बाहर चौकी पर लेट गए। उन्हें गुस्सा आने लगा। यही सब पार्टी में ठीक नहीं लगता। अरे, तुरंत निर्णय करो और काम करो। पर यहां छोटी सी बात का भी बतंगड़ बनाकर घंटों बहस करने का रिवाज है। बहस, मीटिंग क्लास....हर एक बात पर। करिये आप लोग मीटिंग।

भानु सिंह करवट बदल कर सोचते रहे, बड़बड़ाते रहे। अंत में थक हार कर खर्राटे भरने लगे।

श्रीवास्तव जी और जिला सचिव स्टेशन पर चाय पीने चले गये। रास्ते में भी बातें होती रहीं। जिला सचिव श्रीवास्तव जी को समझाते रहे। अंत में तय हुआ कि.....फिलहाल एफआईआर करवाया जाये। साथ ही इस गांव का सामाजिक आर्थिक अध्ययन और कायदे से किया जाये। लैंडलेस पीजेंट के बीच कंसनट्रेट करके वर्क किया जाये। उनका इंडिपेंडेंट एसरशन ही आगे इस तरह की घटनाओं को रोक पायेगा।

पार्ट फोर
सुबह पार्टी के पैड पर पूरे घटनाक्रम का विवरण देते हुए दलित उत्पीड़न के मुख्य अभियुक्त पप्पू सिंह पर कार्रवाई की मांग करते हुए प्रार्थनापत्र तैयार किया गया। तीनों लोग थाने पहुंचे।

दरोगा ने घटनाक्रम जानने के बाद तीनों लोगों के चेहरों को गौर से देखा और पूछा....आप में से प्रताड़ित व्यक्ति है कौन?

भानु सिंह बोले....सर, प्रताड़ित व्यक्ति पर इतना अधिक दबाव है, इतना डरा हुआ है कि वह यहां आ नहीं सकता।

दरोगा ने रोबीले आवाज में कहा....इसका क्या मतलब हुआ। कल को वह इनकार कर दे कि मेरे साथ ऐसा कोई घटना हुई हो नहीं तो आप लोग क्या करेंगे। ऐसे रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती।

तीनों लोग थाने से बाहर निकल आए।

उधर गांव में बीती रात को ही कई माह से बीमार भानु सिंह के बाबा की तबीयत अचानक ज्यादा खराब हुई और मौत हो गई। छोटे से गांव में एक ही रात हुई दो घटनाओं की खूब चर्चा हुई। भानु सिंह के बाबा की मौत और डोमवा की पिटाई। ये दोनों प्रकरण जन जन की जुबान पर थे।

ठकुरहन और बभनौटी में यह चर्चा आम रही कि अपने गांव का डोमवा बहुत इज्जतदार है। गांव की बात थाने पुलिस में नहीं ले गया। पार्टी वाले तो उसे खूब उकसाते रहे।

चमटौली और पसियान में भानु सिंह की बाबा की मौत पर मुंह दबाकर लोग कहते रहे...जैसा किया वैसा मिला। डोम को पीटा तो भगवान ने भी घर के एक सदस्य को ऊपर बुला लिया। जैसे को तैसा न्याय हुआ।

अंतिम पार्ट
बाबा के अंतिम संस्कार में भानु सिंह का पूरा परिवार जुट गया। भानु सिंह के पिता चिंता में डूबे थे कि अगर डोमवा नहीं आया तो परवाह कैसे होगा। पर मुलागी को आता देख उन्हें संतोष हुआ।

मृतक संस्कार की तेरह दिनों की प्रक्रिया में डोम परिवार बराबरर अपने हिस्से के कर्तव्य का निर्वाह करता रहा। तेरहवीं के दिन दुक्खू परिवार मय अपने कुनबे और लाव लश्कर के साथ भानु सिंह के दरवाजे उपस्थित हुआ।

तेरहवीं के दौरान होने वाले भोज व खान-पान के स्थान से उठने वाला मिश्रित शोर और पेट्रोमेक्स की रोशनी दुक्खू के यहां पहुंचते पहुंचते कमजोरी हो जा रही थी। बैठका के बगल में आम के पेड़ के नीचे बैठा दुक्खू परिवार आते जाते लोगों को निहार रहा था। लोग आ रहे थे और बड़ी बड़ी पांतों में भोजन करके जा रहे थे। भोजन करके पांत ज्योंही उठती, कुक्कुर जूठे पत्तलों को साफ करने पहुंच जाते। पर दुक्खू की लाठी लगते ही कांय कांय करके दूर भाग जाते। जूठे पत्तलों को जल्दी जल्दी उठाकर मुलागी और कतरू अपनी महिलाओं को सुपुर्द कर देते।

आधी रात बीत गई।

भोज समाप्त होने के बाद परंपरानुसार दुक्खू परिवार को अलग बैठाकर पूरा भोजन कराया गया। सफेद रोशनी फेंकता गैस सन्न सन्न की तेज आवाज निकाल रहा है। दुक्खू डोम को भोजन करने के बाद तेरह दिनों की मृतक संस्कार प्रक्रिया के सफल होने की घोषणा करनी है। थके हुए लोग इस अंतिम लेकिन जरूरी कवायद की प्रतीक्षा करने लगे।

भोजन करने के बाद दुक्खू मोटी लाठी को दोनों हाथों से पकड़कर पूरा जोर लगाकर खड़े हुए।

पप्पू सिंह का धैर्य जवाब दे चुका था.....बोल पड़े....अरे दुक्खुवा...जल्दी बोल, बहुत देर हो गई है।

दुक्खू सकपकाया। एक बार भानु सिंह की तरफ देखा फिर चिल्ला पड़ा.....

सूपन भगत खाये.....जज्ञ पूरा भया.....सूपन भगत खाये....जज्ञ पूरा भया....।

इस समय अगर पंडितान के शास्त्री जी होते तो वे अगल बगल बैठे लोगों को समझाते कि जब युद्ध में मारे गये अपने परिवार के लोगों की शांति और मुक्ति के लिए युद्धिष्टर ने श्राद्ध करवाया तो तेरहवें दिन सुपच सुदर्शन नामक डोम ने भोजन करने के बाद श्राद्ध संस्कार और मृतक आत्माओं के सफल व मुक्त होने की घोषणा की थी। बस, तभी से चला आ रहा है यह विधान, मृतकों की मुक्ति के लिए.....!!!

----------------
जय भड़ास
यशवंत सिंह

1 comment:

अजित वडनेरकर said...

यशवंत जी, बढ़िया कहानी के लिए बधाई। भड़ास पर पढ़ी पहली सार्थक पोस्ट। आपकी खुलेपन की नीति से हटकर नितांत आपकी प्रतिभा को सामने लाने वाली कृति जो आपकी संवेदनशील दृष्टि और सामाजिक सरोकारों की बानगी पेश करती है।
मृतात्माओं की शांति के प्रतीक के सहारे आपने डोम बिरादरी की व्यथा खूब उकेरी। शुभकामनाओं सहित , अजित...