शब्दों को हाथों में
समेटकर चली थी मैं
बिखर ना जाएं कहीं
इस डर से दिल से लगाए थी मैं
शब्द जो दिल में थे
होठों तक आ ना जाएं
उन्हें अंदर ही अंदर
दबाए हुई थी मैं
वो बातें जो कहनी थीं
पर कभी कही ना जा सकीं
वो तमाम मुलाकातें
जो कभी हो ना सकीं
14.12.07
एक अधूरी कविता
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
अपने छात्रा दिनों की याद ताजा की है या कोई निरगुन है?? लेकिन बहुत दिन बाद शब्दों को शेप देकर पोस्ट के रूप में तब्दील किया, इसके लिए बधाई...उम्मीद है आपके भावनाओं के समंदर में हम भड़ासी गोते लगाते रहेंगे....
यशवंत
Post a Comment