दुनिया को रास्ता दिखाने वाला लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मलिकों के दबाव के आगे घुटघुट कर जीने को मजबूर है। हर किसी के शोषण के खिलाफ अपनी कलम से आवाज बुलंद करने वाले पत्रकार जगत की आवाज मालिकानों की धमक के आगे दबकर रह गई है। अब इसे पत्रकारों की नपुंसकता मानें या उनकी रोजी-रोटी की मजबूरी वह विसंगतियों के बीच जीने को अभिशप्त हैं। विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के वाजिब वेतन और भत्ते की चिंता करने वाला कलमकार खुद अपने यथोचित पगार के लिए आवाज उठाना तो दूर सुझाव तक देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। राष्ट्रीय श्रमजीवी पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए गठित वेतन बोर्ड के सामने एक साल में मात्र ११ सुझाव ही मिलना पत्रकारों की वास्तविक संघर्ष सामथ्र्य की पोल ही खोलता है। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारियों के वेतनमान निर्धारण एवं संशोधन के लिए दो राष्ट्रीय वेतन बोर्ड गठित किए हैं। एक बोर्ड श्रमजीवी पत्रकारों तथा दूसरा गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए २४ मई २००७ को जारी अधिसूचना एवं तीन जुलाई २००७ के आदेश तहत गठित किए हैं। बोर्ड को मई २००८ तक अंतरिम रिपोर्ट तैयार करनी है इसलिए प्रत्येक राज्यों में बैठक में पत्रकारों एवं मालिकों से सुझाव लिए जा रहे हैं और इसी सिलसिले में राजस्थान के जोधपुर में गत दिवस पहली बैठक हुई। वेतन बोर्ड की हुई प्रथम बैठक में यह तथ्य सामने आया कि देशभर में अभी तक बोर्ड को मात्र ११ ही सुझाव मिले हैं। सुझाव नहीं मिलने की वजह यह है कि पत्रकार प्रतिष्ठान मालिकों के डर से खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं। बैठक में वेतनबोर्ड के सदस्य सचिव केएम साहनी ने बताया कि अहमदाबाद में एक पत्रकार ने यहां तक कहा कि आपसे मिलने की सूचना भी पत्र मालिक को मिल गई तो हमारे लिए समस्या पैदा हो जाएगी। उन्होंने कहा कि बैठक में यह भी सुझाव आया कि वेतनमान लागू नहीं करने वाले समाचार पत्रों को मिलने वाले सरकारी विज्ञापन एवं कागज कोटे में सख्ती बरती जाए लेकिन इस प्रकार का निर्णय समाचार पत्र मालिकों के खिलाफ जाकर लेने का साहस किसी सरकार के पास नहीं है। इस संबंध में १२५ अखबारों को नोटिस जारी किए गए हैं। जस्टिस नारायण कुरुप की अध्यक्षता में गठित वेतन बोर्ड को अपनी रिपोर्ट २०१० तक केंद्र सरकार को देनी है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में पांच से सात मई तक नई दिल्ली कार्यालय में जन सुनवाई भी रखी गई है। अब देखने वाली बात यह है कि उस सुनवाई में कितने पत्रकार सुझाव देने की हिम्मत जुटा पाते हैं।
26.4.08
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
मंतोष भाई,
अभी भी मान लो कि , चलो अब मान ही लो कि .....
कोन सा पत्रकार..... काहे का पत्रकार......
भाई सभी नौकर हैं और नौकरी बजा रहें हैं , ज्यादा चूं चपड़ की तो लाला रास्ता दिखा देगा, ना रही पत्रकारिता और ना रहा पत्रकार।
क्योँ किसी कि रोजी रोटी पे कह रहे हो लात मरो , बस नौकरी बजाओ।
जय जय भडास.
Post a Comment